याद-ए-कैफ़ी: ये दुनिया, ये महफिल मेरे काम की नहीं…

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Amitabh ji
Amitaabh Srivastava

मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की आज पुण्यतिथि है…। कैफ़ी को भारत में तरक्कीपसंद शायरों की दूसरी पीढ़ी का शायर कहा जाता है, वो आजीवन कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे। उनकी शायरी का खास तेवर उनकी फिल्मी पारी में भी मौजूद रहा और बेहद पसंद किया गया। आज़मगढ़ से ताल्लुक रखने वाले कैफ़ी का परिवार किसानी से ताल्लुक रखता था.. और उन्हे मौलवी बनाना चाहता था। गांव की उस दुनिया से कैफ़ी कैसे बाहर निकले, वो दिलचस्प किस्सा बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म समीक्षक अमिताभ श्रीवास्तव

कोई तो सूद चुकाए, कोई तो ज़िम्मा ले
उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है

कैफ़ी आज़मी ने अपने बारे में कहा था -मैं ग़ुलाम हिंदुस्तान में पैदा हुआ, आज़ाद हिंदुस्तान में बूढ़ा हुआ और सोशलिस्ट हिंदुस्तान में मरूँगा। यह किसी दीवाने का सपना नहीं है। समाजवाद के लिए सारे संसार में और स्वयं मेरे अपने देश में एक समय से जो महान संघर्ष हो रहा है, उससे सदैव जो मेरा और मेरी शायरी का जो संबंध रहा है, इस विश्वास ने उसी की कोख से जन्म लिया है।
अफ़सोस कि कैफ़ी साहब ने जिस इंक़लाब के उधार रहने की तकलीफ़ बयान की थी , उसे उन्होंने जीते जी धूलधूसरित होते देखा , सोशलिस्ट हिंदुस्तान के अपने यक़ीन को भी चूर-चूर होते देखा। साम्प्रदायिकता का नंगा नाच, बर्बरता देखी । बाबरी मस्जिद गिराये जाने पर लिखी उनकी नज़्म कैसे भुलाई जा सकती है –

Pic of Kaifi Azmi taken on 10th May, 2002; Courtesy: Shabana Azmi Twitter

शाकाहारी हैं मेरे दोस्त, तुम्हारे ख़ंजर
तुमने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो सर में आये

पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नज़र आये वहाँ ख़ून के गहरे धब्बे
पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फज़ा आई नहीं रास मुझे
छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे

सईद मिर्ज़ा की फ़िल्म नसीम जिन्होंने देखी होगी, उन्हें शायद याद होगा कि फ़िल्म में नसीम के दादा का किरदार कैफ़ी साहब ने ही निभाया था। फ़िल्म में बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के दिन ही नसीम के दादाजी की मौत हो जाती है। सईद मिर्ज़ा ने प्रतीक के माध्यम से भारत की साझा सांस्कृतिक, सामाजिक विरासत और सौहार्द्र ख़त्म होने की तरफ़ इशारा किया था।

Kaifi with daughter Shabana & wife Shaukat

कैफ़ी आज़मी के बड़े-बुज़ुर्गों ने उन्हें मौलवी बनाने के लिए दीनी तालीम दिलानी चाही थी ताकि फ़ातिहा पढ़ना सीख जाएँ क्योंकि घर में उनकी बहनों की मौत के बाद इस तरह की सोच फैली कि बेटों को अंग्रेज़ी पढ़ाने की वजह से परिवार पर यह क़हर टूटा है। उधर, उनके काश्तकार चचा चाहते थे कि कैफ़ी कुछ न पढ़ें, खेतीबाड़ी देखें। वह कैसे इस फंदे से बचे, इसका बड़ा दिलचस्प क़िस्सा है। एक दफ़ा उनके चचा ने फ़सल की कटाई के वक़्त उनको किसानों पर नज़र रखने का ज़िम्मा दिया ताकि कोई अपनी ढेरी में ज़्यादा अनाज न इकट्ठा कर ले। फ़सल काटने वालों में गाँव की एक ख़ूबसूरत लड़की भी थी। कैफ़ी का ध्यान उसी पर था और वह अपनी बड़ी सी ढेरियां बना कर ले गई। गाँव की ही एक औरत यह नज़ारा देख रही थी। उसने भी अनाज चुरा रखा था। कैफ़ी के चचा आए तो उन्होंने उस औरत को पकड़ लिया। तब उसने कैफ़ी और उस जवान लड़की की घटना की शिकायत कर दी। इस पूरे वाक़ये को ख़ुद कैफ़ी आज़मी ने बहुत दिलचस्प अंदाज़ में बयान किया है –

“गाँव की एक ख़ूबसूरत और जवान लड़की भी फ़सल काट रही थी। मैं अधिकतर उसी के पास खड़ा रहा। दोपहर तक उसके गोरे-गोरे गालों से धूप रंग बनकर टपकने लगी। उसको कुछ अपने ऊपर यक़ीन था, कुछ मेरी कमज़ोरी भी समझ चुकी थी इसलिए उसने अपनी पौलियाँ बहुत बड़ी बना रखी थीं और जब मैं उनको देखने लगता तब वह मुस्कुराने लगती। उसने पौलियाँ जैसी बनायी थीं, ऐसी ही मैंने उसको ले जाने दिया। गाँव की एक बूढ़ी औरत यह सब कुछ बड़े ग़ौर से देख रही थी। उसने थोड़ा सा अनाज चुरा रखा था।

इतने में चचा आ गये । उन्होंने उस बुढ़िया को पकड़ लिया, उसको डराया-धमकाया तो उसने उनसे नमक-मिर्च लगाकर मेरी शिकायत जड़ दी कि तूं इसे मुट्ठी भर जौ छीन लिए और तिहरे बनवाये का, ऊ जौन पतुरिया की तरह बाल डारे जा रही है, तेरे बिटवा ने ऊ का , ऊ जौन पतुरिया की तरह सिंगार करके काटे आय रही, बोझ का बोझ उठाय के ऊ के सरा पर रख दीन । चचा ने मेरा कान पकड़ा और घसीटते हुए घर में अम्माँ के पास ले गये कि इनको भी वहीं भेज दीजिए, यह गाँव में रहेंगे तो सब कुछ लुटा देंगे । मुझे माँगी मुराद मिल गयी, दो-चार दिन के बाद अम्माँ ने मामू के साथ मुझे लखनऊ भेज दिया।

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