आनंद : लंबी नहीं… बड़ी जिंदगी

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राजेश खन्ना आज ज़िंदा होते तो 80 बरस के हो रहे होते। उन्होने ऐसी कई फिल्मों में काम किया जिन्हे पारिवारिक फिल्में कहा जाता था और जिन्होने दर्शकों के मर्म को छुआ। ऐसी ही एक फिल्म थी हृषिकेश मुखर्जी की 1971 में बनाई फिल्म आनंद। ये फिल्म, इसका संगीत, इसकी कहानी, इसका अभिनय और इसके डायलॉग हमेशा के लिए अमर हो गए। आखिर क्यों इस फिल्म ने दर्शकों के मन को इतने गहरे छुआ…  ‘सिनेमा के साहित्य की समीक्षा’ के तहत  ‘आनंद’ की साहित्यिक कथावस्तु के नज़रिए से की गयी अजय चंद्रवंशी की एक बेहद अलग सी समीक्षा में शायद ये समझने को मिले। ‘सिनेमा के साहित्य की समीक्षा’ सीरीज़ में हम किसी फिल्म के कथानक के साहित्यिक-सामाजिक पक्ष पर एक समीक्षा देते हैं, क्योंकि सिनेमा साहित्य से ही बनता है। लेखक-समीक्षक अजय चंद्रवंशी बतौर शिक्षा अधिकारी कवर्धा, छत्तीसगढ़ में कार्यरत हैं।

मृत्यु अवश्यंभावी है, मगर मनुष्य की जिजीविषा भी अनंत है। जीवन से मोह, दुनिया से आसक्ति उसे कर्मरत रहने को प्रेरित करती है।यों अनासक्त कर्म की भी बात की जाती है, क्योंकि कई बार मोह जकड़न का काम करती है।इस तरह ‘कर्म’ आसक्ति और अनासक्ति के द्वंद्वात्मकता में निहित है।

सामान्यतः मृत्यु भयभीत करने वाली घटना है।क्योंकि इसके बाद कुछ भी नही! मृत्यु से पूर्व का भय ‘अपने’ लोगो के भविष्य को लेकर भी होता है, हालांकि उसे देखने के लिए व्यक्ति उपस्थित नहीं होता।जबकि मृतक से गहरे जुड़े व्यक्तियों का भय और दुःख उसकी अनुपस्थिति से उत्पन्न कमी के कारण होता है।

जीवन से लगाव इतना गहरा है(होना भी चाहिए) कि मनुष्य मृत्यु के यथार्थ को सहज ढंग से नहीं ले पाता सभ्यता के प्रारंभिक काल से इसे झुठलाने के लिए ‘दर्शन’ गढ़ता रहा है। यों यह तत्कालीन ज्ञान की सीमा जनित भी था। विभिन्न सभ्यताओं में मृत्यु के ‘बाद’ की सम्भावनाओं जनित कल्पनाएं उत्पन्न हुई और तदनुरूप कर्मकांड विकसित हुए। अमूमन सभी सभ्यताओं में ‘आत्मा की अमरता’ जैसी अवधारणा देखी जा सकती है।विकासमान ज्ञान प्रकृति के बहुत से अज्ञात पहलुओं को लगातार उजागर करते रहता है बावजूद इसके प्रकृति के व्यापकता के कारण ऐसा समय शायद कभी नहीं आएगा जब हम सबकुछ जान लें। यह ‘जानने की सीमा’ ही कई तरह के रहस्यवाद और भाववादी चिंतन का आधार रहा है।

इस बात से शायद ही कोई असहमत हो कि जीवन से लगाव की सार्थकता जीवन को भरपूर जीने में है। जिंदगी की लंबाई की अपेक्षा उसकी गहराई ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसे फ़िल्म का नायक आनंद कहता भी है “जिंदगी लंबी नही बड़ी होनी चाहिए”। अधिकांशतः जिंदगी को ‘भरपूर’ जीना चाहते भी हैं, मगर इस ‘चाहने’ को बहुत से कारक प्रभावित करते हैं।मसलन आर्थिक, पारिवारिक, शारीरिक आदि। व्यक्ति के सुखी जीवन के लिए मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति अपेक्षित होता है।

मगर एक दूसरा पहलू भी है। कुछ लोग बेवज़ह दुखी रहते हैं। ओशो के शब्दों में कहें तो “दुःख में भी एक अहंकार होता है”। महत्वाकांक्षी होना अच्छी बात है,नित नए उपलब्धि हासिल करने की सोचने में बुराई क्या है? मगर इसके लिए वर्तमान को तिलांजलि देकर;जो है उसकी खुशी न मनाकर, जो नहीं मिल सका है उसके लिए रात-दिन दुःखी रहना भी एक बीमारी है। कहना न होगा कि कर्तव्यहीन भोगवाद एक दूसरी चीज है, जहां व्यक्ति अराजकतावाद में चला जाता है।यह सार्थक नहीं है।

‘आनंद’ फ़िल्म का नायक आनंद(राजेश खन्ना) ‘भरपूर जीवन जीने’ का उदाहरण है। वह गंभीर बीमारी(कैंसर) से ग्रसित है और उसे मालूम है कि तीन माह से अधिक उसकी जिंदगी नहीं बची है,फिर भी वह जैसे मौत की हँसी उड़ाता है। मौत आएगी तब आएगी अभी से उसका ग़म क्या! ऐसे व्यक्तित्व विरले होते हैं। अपनी क्षुद्रताओं में घिरे हम सब स्वीकार नहीं पाते कि जिंदगी ऐसी ज़िन्दादिली से जी जा सकती है।

मानवीय करुणा से लबरेज आनंद सबसे प्रेम करता है;सबको अपना बनाना चाहता है, दिलों को जोड़ने का काम करता है।इसका मतलब यह नही कि उसे जिंदगी से प्रेम नहीं है।वह जीना चाहता है मगर हालात ने उसे अवसर नहीं दिया, इसलिए वह यथार्थ को स्वीकारता है, और शेष जिंदगी को भरपूर जीता है। प्रथम दृष्टया ऐसा लग सकता है कि यदि उसकी जिंदगी लंबी होती तो क्या वह ऐसा जीता?  कहीं यह मृत्यु के भय को छुपाने का उपक्रम तो नहीं है?निश्चित रूप से यदि ऐसा होता तो उसकी जिंदगी लंबे समय तक सहज नहीं रह पाती। उसके चरित्र की निर्दोषिता सहज है। ऐसा भी नहीं कि वह मानवीय कमजोरियों और दुःखों से परे है।फ़िल्म में इसके संकेत है। उसे अपना असफल प्रेम याद आता है।

बहरहाल फ़िल्म, आनंद के जिंदादिली और और उससे जुड़े लोगों के संवेदनशीलता, ख़ासकर डॉ बैनर्जी(अमिताभ बच्चन) के उदात्त चरित्र  और सम्वेदना प्रभावित करती है। ज़ाहिर है ऐसी फिल्में निर्देशन, पटकथा, संवाद, अभिनय के समन्वित प्रयास से ही सम्भव होती हैं।

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