तपन सिन्हा का सिनेमा

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आज 2 अक्टूबर के दिन तपन सिन्हा की जयंती होती है। 1924 में आज ही के दिन कोलकाता में उनक जन्म हुआ था। तपन सिन्हा बांग्ला और हिंदी सिनेमा के प्रख्यात फिल्म निर्देशक थे जिन्होने दोनों ही भाषाओं में बेहतरीन फिल्में बनाईं। उनकी सबसे बड़ी खूबी ये है कि उनकी फिल्मों में उच्च कलात्मक मूल्य होते हुए भी वोआम लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय हुईं… और उससे भी अधिक खास रहा है उनकी फिल्मों के विषयों में विविधता का रेंज। हिंदी सिनेमा के दर्शकों के लिए उन्हे याद करने के लिए जो तीन बेहद खास फिल्में हैं वो हैं- सगीना (1974), सफ़ेद हाथी (1977) और एक डॉक्टर की मौत (1990)… और बंगाली फिल्मों में ये फेहरिस्त और भी लंबी हैं। सफ़ेद हाथी बच्चों के लिए उस दौर में बनायी गयी एक बेहद सफल और लोकप्रिय फिल्म रही है। और क्या क्या खास रहा है उनकी फिल्मों और उनके काम में पढ़िए इस आलेख में…

14 से अधिक नेशनल अवॉर्ड और दादा साहब फालके पुरस्कार से सम्मानित होने के बावजूद आज सिनेमा के बहुत से सुधी दर्शक तपन सिन्हा के काम से लगभग अनजान हैं। कहा जा सकता है कि उनका सिनेमा एक तरह से अवमूल्यांकित या अनदेखा रहा है…। इसकी एक वजह ये भी है कि दरअसल पहचान से वो मूलत: बंगाली फिल्मकार थे और बंगाली सिनेमा पर जब भी कोई गंभीर चर्चा होती है वो बांग्ला फिल्मकारों की सबसे प्रतिष्ठित त्रयी- सत्यजित राय, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन से शुरु होकर वहीं खत्म हो जाती है। हालांकि बंगाली सिनेमा में तपन सिन्हा जैसा कोई दूसरा फिल्मकार नहीं, जिसने उच्चस्तरीय कलात्मकता और बॉक्स ऑफिस सफलता को एक साथ साधा हो।

तपन सिन्हा का सिनेमा बंगाली सिनेमा की प्रतिष्ठित त्रयी के सिनेमा और अजोय कार, असित सेन, तरुन मजुमदार जैसे उनके हमभाषी और अपेक्षाकृत कम मशहूर फिल्मकारों के सिनेमा के बीच की एक मज़बूत कड़ी है। शास्त्रीय साहित्यिक रुपांतर हो, व्यंग्य हो या सामयिक सामाजिक धारा… तपन सिन्हा के सिनेमा के जॉनरा की रेंज व्यापक रही है। उनके सिनेमा को समझने के लिए एक बेहतरीन ज़रिया बनकर आयी है किताब The Cinema of Tapan Sinha जिसे अमिताव आकाश नाग ने लिखा है, जो सिनेमा पर पहले भी कई किताबें लिख चुके हैं। ये किताब आज ही यानी तपन सिन्हा की जयंती के दिन 2 अक्टूबर 2021 को रिलीज़ हुई है।

ज़िंदगी ज़िंदगी, सगीना, सफ़ेद हाथी, आदमी और औरत (टेलीफिल्म), एक डॉक्टर की मौत जैसी उनकी हिंदी फिल्मों के विषय- गांव में जातिवाद, मजदूरों के अधिकार और संघर्ष, एक वैज्ञानिक डॉक्टर का संघर्ष और उसके विभाग की अंदरुनी राजनीति जैसे मुद्दे रहे हैं। जबकि बंगाली फिल्मों ये विविधता और भी बढ़ जाती है। इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि सगीना से पहले उन्होने बांग्ला में सगीना महतो बनायी थी। रबींद्र नाथ ठाकुर (टैगोर) की कहानी काबुलीवाला पर बिमल रॉय और हेमेन गुप्ता की फिल्म (1961, बलराज साहनी वाली) से पहले 1957 में उन्होने बांग्ला में इसी नाम से फिल्म बनायी थी। 1968 में बनायी उनकी फिल्म आपन जन एक राजनीतिक प्रतीकात्मक थी, जिसको हिंदी में मेरे अपने नाम से बनाकर गीतकार गुलज़ार ने अपनी निर्देशकीय पारी की शुरुआत की थी। 1960 में टैगोर की ही कहानी पर बनायी फिल्म क्षुदिता पाषाण को गुलज़ार ने रुपांतरित कर 1990 में लेकिन नाम से फिल्म बनायी थी। 1968 में बनायीउनकी फिल्मगल्पा होलियो सात्यि को हिंदी में हृषिकेश मुखर्जी ने बावर्ची (1972) के नाम से बनाया। बावर्ची की भी कहानी तपन बाबू ने ही लिखी। यहां इसका भी ज़िक्र कर देना चाहिए कि फिल्म एक डॉक्टर की मौत में पंकज कपूर का अभिनय मील का पत्थर माना गया था, लेकिन प्रबल और योग्यतम दावेदारी के बावजूद उस साल (1990) के नेशनल फिल्म अवॉर्ड्स में ये अवॉर्ड अमिताभ बच्चन को फिल्म अग्निपथ के लिए दिया गया। हालांकि बेस्ट डायरेक्शन और सेकंड बेस्ट फीचर फिल्म के पुरस्कार के लिए एक डॉक्टर की मौत को चुना गया।

Poster of the film Adalat O Ekti Meye

80 के दशक में जब मलयालम फिल्में अश्लील कंटेंट के सहारे भारत के कई क्षेत्रों में खूब देखी-दिखायी जा रही थीं, तब इससे खिन्न हो कर उन्होने रेप पर एक फिल्म अदालत ओ एकती मेये बनाकर विषय की संवेदनशीलता को दर्शकों के सामने रखा। 1980 की उनकी फिल्म बांछाराम बागान तो इतनी लोकप्रिय हुई कि फिल्म के मुख्य पात्र बांछाराम (जोकि बेहद कंजूस है) का नाम आज भी बंगाली समाज में किसी कंजूस व्यक्ति के लिए एक विशेषण के तौर पर इस्तेमाल होता है। फिल्म आतंक में एक टीचर रात में घर लौटते हुए अपने ही एक पूर्व छात्र को एक कत्ल करते हुए देख लेता है, जिसके बाद वो छात्र अपने अध्यापक को मुंह बंद रखने के लिए धमकाता है… लेकिन अध्यापक हिम्मत कर सामने आता है, और उस आरोपी को जेल भिजवा देता है, इसके बाद उसे इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ती है, कैसे उसके जीवन में आतंक का साया पड़ जाता है, इसी की कहानी है। अंतर्धान एक युवा लड़की की कहानी थी कि कैसे वो प्यार के जाल में फंस कर देह व्यापार में ढकेल  दी जाती है। विषय की विविधता के साथ साथ उसका संवेदनशील ट्रीटमेंट तपन सिन्हा के सिनेमा की सबसे बड़ी खूबी है और उससे भी खास आम दर्शकों को बांधे रखने की उसकी ताकत।

तपन सिन्हा की कई हिंदी और बंगाली फिल्में इंटरनेट और खासकर यूट्यूब पर उपलब्ध हैं, जिन्हे देखा जा सकता है और देखा जाना चाहिए। अमिताव आकाश नाग की किताब The Cinema of Tapan Sinha इस लिहाज़ से स्वागत योग्य है कि ये तपन सिन्हा के सिनेमा को फिर से चर्चा में लाने में और उसे मौजूदा पीढ़ी के बीच यथोचित पहचान और सम्मान दिलाने में सहायक होगी।

(विशेष आभार: लेखक अमिताव आकाश नाग के लेख और लेखक-डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर नीलेंदु सेन से हुई बातचीत के लिए)

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