‘वश’: अतृप्त आत्मा, वासना वाले ‘हॉरर फॉर्मूलों’ का रीप्ले


हॉरर और कॉमेडी जॉनरा को सदाबहार माना जाता है। चूंकि ऐसे कंटेंट के समर्पित दर्शकों का एक बड़ा वर्ग है, इसलिए इसमें क्वालिटी थोड़ी ऊपर नीचे हो तो भी लोग देखने पहुंच ही जाते हैं। हालांकि अब मल्टीप्लेक्स के दौर में जब टिकटों की कीमत आम आदमी की जेब पर थोड़ी भारी पड़ती हैं, तो ऐसी फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी तभी मिल पाती है, जब उनमें वाकई दम होता है। बहरहाल नई फिल्म ‘वश’ हॉरर जॉनरा की ही एक फिल्म है, जिसमें अतृप्त आत्मा की वासना जैसा तड़का है। इस फिल्म की समीक्षा के ज़रिए जान सकते हैं कि बॉलीवुड में हॉरर फिल्म के कंटेंट को लेकर फिलहाल क्या चलन है। इसकी समीक्षा पेश कर रहे हैं तेजस पूनिया, जो एक युवा लेखक और फिल्म समीक्षक हैं। मुम्बई विश्वविद्यालय से शोध कर रहे तेजस का एक कहानी संग्रह और एक सिनेमा पर पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। अखबारों में नियमित लेखन करते रहते हैं।
कुछ घटनाएं अपनी कहानी खुद लिखती हैं और कई बार ये कहानियां इतनी रोमांचक, इतनी असमान्य होती हैं कि उन पर तब तक यकीन नहीं होता जब तक इंसान उन्हें अपनी आँखों से ना देख ले। कभी-कभी हमारा ऐसी शक्तियों से वास्ता पड़ता है जो खुद की समझ से भी परे होती हैं कई बार ये शक्तियाँ बुरी जरूर होती हैं पर फिर भी इंसान अपनी हिम्मत और समझ से इन पर अक्सर जीत हासिल कर लेता है। इस दुनिया में रातों का वजूद इसी वजह से है कि उनका सफर अगली सुबह उजाले की बाहों में जाकर ही ख़त्म होता है।
शक्तियां इस संसार में सकारात्मक और नकारात्मक सदा से रही हैं। हम इंसानों पर जब भी नकारात्मक शक्तियां हावी होने लगती हैं तब अधिकांशत अध्यात्म की ओर चलते हैं। यदि वे भूत-प्रेत और वासनाओं से भरी हों तब हम सकारात्मक यानी ईश्वर की शरण में जाते हैं।
इस फिल्म का सार भी यही है। हिमाचल के एक गांव परागपुर में एक के बाद एक मर्डर हो रहे हैं। कौन मार रहा है इन्हें? क्यों मार रहा है? क्या कुछ साफ हो पाएगी स्थिति? इन सब सवालों से यह फिल्म ‘वश’ दो चार होती हुई आपको भी तकनीकी तथा अन्य कारणों से वश में करती जाती है।
हर कहानी की तरह फिल्म में भी मर्डर की वजह है। एक प्रेमी जोड़ा वहां शादी के बाद घने जंगलों में बने अपने घर में रह रहा है। बीवी को रात में अक्सर कुछ अवांछनीय चीजें दिखाई और अपने साथ होती हुई महसूस होती है। पति इन्हें उसका भ्रम बताता है। एक पत्रकार है जिसने इन भूतों की सच्ची घटनाओं पर किताब भी लिखी है। बाबा है जो भूत प्रेत भगाने का दावा करता है।
इधर फिल्म के नायक-नायिका रक्षित और आंचल अपनी बढ़िया प्रेम भरी जिंदगी जी रहे हैं। इनके बीच कोई तीसरा व्यक्ति आ गया है जो आंचल को हर कीमत पर अपनी दुनिया का हिस्सा नहीं बनाना चाहता। कौन है वह? और उसके इरादे क्या हैं? ऐसे ही कुछ रहस्यों को दर्शकों के लिए अनसुलझा रखा गया है। जिसमें ये अतृप्त आत्मा जो आम इंसानों की तरह वासनाओं से भरी है वो चाहती क्या है? यह आपको फिल्म देखने पर पता चलता है।
फिल्म की कहानी के लेखक, एडिटर, डायरेक्टर और डायलॉग लिखने वाले जगमीत समुंद्री अच्छे खासे अंतराल के बाद फ़िल्में बनाते रहे हैं। लेकिन इस बार उन्होंने दर्शकों को डराने तथा मंनोरंजन करने के कई मसाले इस फिल्म में रखे हैं। बतौर निर्देशक यह उनकी बढ़िया फिल्म कही जा सकती है। जिसमें उन्होंने अपनी पूरी टीम से कुल मिलाकर अच्छा काम करवाया है।
कैमरे के कई उम्दा शॉट्स, गाने, मेकअप, बैक ग्राउंड स्कोर जैसी तकनीकी चीजें भी निर्देशक ने जरूरत के हिसाब से मिलाई हैं। लेकिन बावजूद इसके दो चार सीन से ज्यादा इसमें उन्होंने डराने वाले शॉट्स नहीं रखे। कायदे से एक दो फिल्म को छोड़ भूतिया फिल्में हिंदी पट्टी में कोई बना ही नहीं पाया है। निर्देशक को चाहिए था कि यहां वे इसका भरपूर फायदा उठाते तो ‘तुम्बाड’ जैसी बढ़िया फिल्म के जैसे सीन बनाए जा सकते थे। जब तक पर्दे पर भय का माहौल निर्माता, निर्देशक बनाने में पूरी तरह कामयाब ना हों समझ लेना चाहिए कि यह वन टाइम वॉच ही है।
फिल्म में आंचल बनी ‘गंगा ममगाई’ इस फिल्म की निर्माता भी है। अभिनय के मामले में वे कहीं-कहीं फिसलती हैं। लेकिन इंटरवल के बाद और खास करके बाथटब में नहाने वाले सीन और घर में देर रात में हुक्के को देखने के बाद के सीन जरूर अच्छे रहे। वहीं रक्षित बने विवेक जेटली भी ठीक ठाक लगे। जगन्नाथ शास्त्री बने ऋतुराज सिंह हमेशा की तरह अपना सधा हुआ अभिनय करते हैं। कई फिल्मों और धारावाहिकों में नजर आ चुके ऋतुराज यहां भी प्रभावित करते है।

बहराम सिंह बने विशाल सुदर्शनवर ने सबसे बढ़िया काम किया है। वे इस फिल्म को मजबूती से थामे रखते हैं। जिस तरह का कैरेक्टर उन्हें मिला उसे उन्होंने भरपूर उसे जीने और निभाने में शिद्दत दिखाई है। पूजा बनी कावेरी प्रियम पत्रकार के रूप में तथा लुक वाइज भी प्यारी लगती हैं। अनुराग बने हार्दिक ठक्कर को भी आप कई फिल्मों तथा सीरीज में देख चुके हैं।
हार्दिक तथा विशाल सुदर्शनवर और ऋतुराज सिंह इस फिल्म की सबसे मजबूत कड़ी रहे। प्रीति कोचड़, राजवीर सूर्यवंशी, गुरिंदर मकणा, प्रोमिता वनिक, अपने किरदारों को बस आगे बढ़ाते नजर आए जितना उन्हें मिला उसे उन्होंने ठीक से निभाने की मिली जुली कोशिश की है।
मनोचिकित्सक के रूप में निर्देशक खुद (जगमीत समुंद्री) अभिनय की बारीकियों को जानते हुए भी शिद्दत से उन्हें जी नहीं सके हालांकि परदे पर अच्छे जरूर लगते हैं। किंतु उनमें अभिनय की वह प्यास नजर नही आती, जो एक कलाकार में दिखनी चाहिए।
साउंड टीम सौमित देशमुख ने फिल्म को मजबूती प्रदान करने वाले साउंड का निर्माण किया है। फिल्म में गानों की कोई कमी नहीं है। यही वजह है कि बीच-बीच में गाने आपका पूरा मंनोरंजन करते हैं। देसी मुंडे, जां नशीं, वो तुम्हीं हो, वश आदि गाने में ‘जां नशीं’ मोहम्मद इरफ़ान की आवाज में, ‘वो तुम्हीं हो’ पलक मुछाल की आवाज में, वश गाना ‘शाल्मली खोलगड़े’ की आवाज में तथा ‘देसी मुंडे’ पावनी पांडे की आवाज में लुभाते हैं। देसी मुंडे गाने की यूं आवश्कता भी फिल्म में नजर नहीं आती।
फिल्म की सिनेमैटोग्राफी और इसके वी एफ एक्स प्यारे हैं। साथ ही एडिटिंग के मामले में यह फिल्म कमाल है किंतु इसकी लंबाई कुछ कम करके इसमें और ज्यादा विकृत रूप, चेहरे-मोहरे दिखाते हुए भय पैदा किया जाता तो यकीनन यह फिल्म लम्बे समय बाद पर्दे पर भय और रोमांच दिखाने में कामयाब होती। लेकिन फिलहाल के लिए जिन्होंने काफी समय से भूतिया फिल्में ना देखी हों और ऐसी कहानियों को देखना चाहते हों तो यह इस हफ्ते 21 जुलाई को सिनेमाघरों में इसे वन टाइम वॉच कर अपना मंनोरंजन कर सकते हैं।