अथॉरिटी के डंडे से कांप रही है फिल्म ‘भीड़’ , खुद के खींचे घेरे से आगे नहीं निकल पा रहे अनुभव सिन्हा

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‘मुल्क’ और ‘आर्टिकल-15’ जैसी फिल्में बनाने वाले अनुभव सिन्ही ‘भीड़’ के तौर पर अपनी नई फिल्म लेकर आए हैं, जो कोविड काल में हुए लॉकडाउन पर आधारित है। फिल्म 24 मार्च को रिलीज़ हुई है, पेश है फिल्म की समीक्षा वरिष्ठ पत्रकार आलोक नंदन  की कलम से। आलोकनंदन एक पत्रकार-लेखक-चिंतक हैं, जो अपने व्यापक अनुभवों और गहन अध्ययन के बूते समाज, इतिहास और जीवन-दर्शन को समग्रता के साथ-साथ व्यावहारिकता की सूक्ष्मता के स्तर पर भी आंकलन की क्षमता रखते हैं। फिल्मों को लेकर उनका बेहद खास और एक बिलकुल अलग नज़रिया रहा है

अनुभव सिन्हा ने अपनी फिल्म ‘भीड़’ को ब्लैक एंड वाइट में क्यों बनाया ? आज जब फिल्म टेक्नोलॉजी का व्यापक विकास हो चुका है और एक के बाद एक कई फिल्में अति आधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हुए बनाई जा रही है तो फिर ऐसे में अनुभव सिन्हा को ‘भीड़’ फिल्म को ब्लैक एंड वाइट में बनाने की जरूरत क्या थी ? प्रयोगवादी होना अच्छी बात है लेकिन प्रयोग के नाम पर पुरानी तकनीक का इस्तेमाल करते हुए फिल्म बनाकर के दर्शकों के समक्ष पेश करना निश्चित तौर पर दर्शकों के साथ अन्याय है और ऐसी फिल्मों को दर्शक निश्चित तौर पर ठुकरा देंगे। फिल्म ‘भीड़’ के साथ भी यही होता दिख रहा है।


यदि निर्देशक अनुभव सिन्हा मानते हैं कि फिल्म ‘भीड़’ को ब्लैक एंड वाइट में बनाकर उन्होंने एक युग का प्रतिनिधित्व किया है तो वह सरासर गलत है क्योंकि यह फिल्म लॉकडाउन पर बनाई गई है और लॉकडाउन का युग आणविक हथियारों का युग है मेडिकल साइंस का युग है, और इस युग को कम से कम ब्लैक एंड वाइट युग तो बिल्कुल नहीं कह सकते। और सबसे बड़ी बात है कि सिनेमा का आम दर्शक अपनी जेब से पैसा खर्च करके कम से कम एक ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म देखने के लिए थिएटर में जाने से बिल्कुल कतराएगा चाहे वह फिल्म कितना भी उम्दा क्यों ना हो।

फिल्म का प्रचार प्रसार इस लिहाज से किया गया था कि यह फिल्म लॉकडाउन की त्रासदी पर आधारित है। लेकिन लॉकडाउन से जुड़ी हुई वास्तविक स्थिति को भी दर्शाने में यह फिल्म पूरी तरह से नाकामयाब रही है। ऐसा लगता है कि फिल्म को लिखने और बनाने के पहले ना तो पूरी तरह से रिसर्च किया गया और ना ही इसकी जबरदस्त ढंग से तैयारी की गई, हालांकि लॉकडाउन से जुड़ी हुई घटनाओं से पूरा देश अच्छी तरह से अवगत था।


सबसे बड़ी बात तो यह है कि जिस तरह से लॉकडाउन की घोषणा अचानक की गई थी वही अपने आप में सबसे बड़ी त्रासदी थी, इसके बाद अस्पतालों में बेड की कमी, मरीजों तक ऑक्सीजन का नहीं पहुंच पाना, देश के विभिन्न शहरों में काम करने वाले कामगारों का पैदल चल कर के अपने गांव की तरफ रवाना होना, गांव में दाखिल होने से पहले ही उन्हें गांव की सरहद पर रोका जाना जैसी परिस्थितियों को इस फिल्म में पूरी मजबूती से उकेरने में निर्देशक अनुभव सिन्हा नाकामयाब रहे हैं। इस तथ्य को भी वह सामने लाने से बचते दिखे हैं कि कैसे लॉकडाउन के दौरान मरने वाले लोगों की लाशों के साथ सलूक किया जा रहा था और कैसे उनके परिजनों को अंतिम समय में उन्हें देखने भी नहीं दिया जा रहा था। नदियों में तैरती हुई लाशों को भी जगह नहीं दी गई है जबकि लॉकडाउन के दौरान इस तरह की खबरें लगातार समाचार पत्रों में प्रकाशित हो रहे थी कि नदियां किस तरह से लाशों से अटी पड़ी हैं। कहा जा सकता है कि अनुभव सिन्हा ने फिल्म तो बना दी लेकिन लॉकडाउन के दरमियान उत्पन्न परिस्थितियों से आंख मिलाने की साहस उनमें भी नहीं थी। अथॉरिटी के डंडे का असर इस फिल्म पर साफ तौर से दिखाई देता है।


जहां तक फिल्मों में अभिनय करने वाले कलाकारों की बात है तो हमेशा की तरह पंकज कपूर वाकई में अपने जबरदस्त फॉर्म में दिखे हैं। इस फिल्म को एक बार उनके शानदार अभिनय के लिए जरूर देखा जाना चाहिए। आशुतोष राणा भी अपने अभिनय से फिल्म को गति देते हुए दिख रहे हैं। अपनी डायलॉग डिलीवरी और हाव-भाव से वह दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
आयुष्मान खुराना भी अपने किरदार में अपना प्रभाव छोड़ते हुए दिख रहे हैं। फिल्म में मुख्य भूमिका निभाने वाले अन्य कलाकारों में राजकुमार राव, भूमि पेडनेकर, पंकज कपूर, दीया मिर्जा, आशुतोष राणा , वीरेंद्र सक्सेना, आदित्य श्रीवास्तव और कृतिका कामरा आदि प्रमुख हैं।

‘मुल्क’, ‘आर्टिकल 15’, ‘थप्पड़’ और ‘अनेक’ जैसी सामाजिक मुद्दों पर बेहतर फिल्म बनाने वाले अनुभव सिन्हा को अपने खुद के खींचें हुए घेरे से आगे निकलने की जरूरत है।

नोट : पंकज कपूर और आशुतोष राणा के अभिनय के लिए एक बार फिल्म देख सकते हैं।

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