‘चंपारण मटन’: ‘मटन’ की ख्वाहिश, ‘चंपारण’ का प्रतिरोध

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चंपारण मटन‘ फिल्म एंड टेलीविज़न इस्टीट्यूट के छात्रों द्वारा बनाई एक डिप्लोमा फिल्म है, जो ऑस्कर का नाम जुड़नेसे चर्चा में आ गई है, लेकिन इस बहाने लोगों को ये भी जानने को मिला ये आज की महत्वपूर्ण स्थितियों-परिस्थितियों बहुत यथार्थवादी ढंग से सिनेमा माध्यम के सभी कला-पक्षों का बहुत बढ़िया इस्तेमाल करते हुए कितने प्रभावशाली ढंग से बनाई गई एक सहज-सरल फिल्म है। इसके लेखक-निर्देशक रंजन कुमार हैं, जिनका ऑब्जर्वेशन और अंतर्दृष्टि दोनों काबिले तारीफ है। फिल्म के सभी प्रमुख तकनीशियन FTII पुणे के ही छात्र हैं। फिल्म की समीक्षा आशीष के सिंह के द्वारा, जो एक पत्रकार और फिल्म समीक्षक हैं। वो गैरलाभकारी संस्था न्यू डेल्ही फिल्म फाउंडेशन के फाउंडर-जनरल सेक्रेटरी भी हैं।

FTII के छात्रों की बनाई फिल्म चंपारण मटन एक ऐसी फिल्म है जो हमें ऐसे समाज की रोज़मर्रा की ज़िंदगी और उसकी जद्दोजहद के करीब ले जाती है, जिससे हम अपरिचित तो नहीं हैं, लेकिन वो क्या और कैसा होता है, उसे महसूस करने का मौका देती है।

तकनीक और कला के स्तर पर बेहद प्रोफेशनल ढंग से बनाई गई इस फिल्म के कई स्तर हैं। फिल्म गांव के एक युवक रमेश की कहानी है, जो कॉन्ट्रैक्ट वाली कोई नौकरी करता था, जो लॉकडाउन के बाद की परिस्थितियों में फिलहाल चली गई है… उसे उम्मीद है कि हालात बेहतर होंगे तो फिर शुरु हो जाएगी, पर फिलहाल संघर्ष और किल्लत के दिन हैं। ऐसे मुश्किल कि पास में मोटरसाइकिल भी थी, जो अब कोने में पड़ी धूल खा रही है और कपड़े और टोकरी रखने के काम आ रही है…, ज़ाहिर है कि इस कड़की में पेट्रोल से उसका पेट कौन भरे.., गांव में चलने-घूमने के लिए तो साइकिल ही काफी है।

रमेश की पत्नी है सुनीता जिसे वो बेहद प्यार करता है। फिल्म में रमेश और उसकी पत्नी के प्रेम, प्रणय और उसकी अभिव्यक्ति के पलों को बहुत सहज, खूबसूरत और यथार्थपरक ढंग से दिखाया गया है। इन्ही मुश्किल दिनों में सुनीता मचल उठी है मटन खाने के लिए। चूंकि वो गर्भवती है और ऐसे में चटपटा खाने की इच्छा उठना स्वाभाविक है और हमारे समाज में गर्भवती महिला की खाने-पीने की इच्छा को पूरा करने को प्रधानता दिए जाने का परिवारों में चलन रहा है, सो पत्नी की ख्वाहिश को पूरा करने के लिए रमेश सारी जुगत भिड़ा देता है..। लेकिन फिल्म का सबसे बड़ा क्लाईमैक्स या कन्फ्लिक्ट महज़ ये नहीं है कि वो कामयाब हो पाता है या नहीं…। फिल्म का मूल कंटेंट इसके सबटेक्स्ट के माध्यम से सामने आता है… जो बहुत ही रचनात्मक ढंग से क्रिएट किए दृश्यों और बहुत ही क्रिस्प डायलॉग्स के ज़रिए सामने आता है।

दरअसल ये फिल्म सिर्फ लॉकडाउन के दौर में गांवों में एक आर्थिक और सामाजिक रुप से गैरसुविधासंपन्न वर्ग के किसी किरदार के जीवन के संघर्ष को करीब से समझने-समझाने या देखने-दिखाने की कहानी भर नहीं है। इसके छोटे-छोटे बेहद कुशलता से रचे गए सीन और संवाद इसके मूल स्वर को  मुखर करते हैं। इनके ज़रिए हम रमेश के बारे में थोड़ा और जान पाते हैं कि वो समाज के उस वर्ग से आता है, जो पारंपरिक रुप से (उत्तर)भारतीय गांवों में आमतौर पर ‘दक्खिन टोला’ में रहता आया है… और शिक्षा, संस्कृति, उत्सव, रोज़गार जैसे मामलों में समाज की मुख्यधारा से कटा ही रहता है या रखा जाता रहा है।

लेकिन रमेश नए ज़माने का स्वाभिमानी युवक है और उसने हिस्ट्री ऑनर्स की पढ़ाई की है. वो खुद को और अपने समाज को भी उसकी पारंपरिक पहचान और स्टेटस की जकड़न से मुक्त कराना चाहता है। वो पहचान जो शहरों में तो छिप जाती है या कोई मायने नहीं रखती.. लेकिन गांवों में आज भी बहुत विज़िबल है और प्रभावी है… भले ही आपने हिस्ट्री ऑनर्स किया हो, खाते-पीते नौकरी करने वाले हो गए हों, मोटर साइकिल से चलते हों और अपने ‘टोला’ से अलग गांव में मकान बनवा लिया हो।

फिल्म कुछ बहुत अच्छे पल और नुआंसेज़ देखने का मौका देती है..। चाहे वो रमेश और पत्नी सुनीता के प्रणय दृश्य हो, या बातचीत के दौरान तराजू के कांटे पर अटकी छेदी लाला की जान हो कि तौल में एक दाना अनाज भी फालतू न चला जाए या फिर मुखिया की चौखट पर हुई बातचीत और उसके चंगू का रमेश को धिक्कारना और रमेश का जवाब देना।

रमेश को एक ‘स्वीट गाय’ (सौम्य नौजवान) के तौर पर दिखाया गया है, जो स्वभाव से विनम्र और मददगार है… जो अपनी सामाजिक पहचान की कुंठा को अपनी शिक्षा और रोज़ी के बूते स्वाभिमान में बदलना चाहता है… जो प्रतिरोध के तौर पर चिल्ला पड़ता है- ‘जरुरी नहीं कि जे काम बाप करल ते काम बेटो करताई…’, और जिसे सुविधासंपन्न वर्ग ‘तैश दिखाना’ समझता है।

‘चंपारण मटन’ एक डिश के तौर पर इन दिनों काफी चर्चित है, जिसमें मिट्टी की हांडी में, खड़े मसालों के साथ बिहारी ढंग से मटन पकाया जाता है। ये कोई पारंपरिक डिश नहीं और माना जाता है कि इसका नामकरण और उद्गम सोशल मीडिया पर ही हुआ है। जिसे हांडी मटन कहा जाता था, वही बिहारी मटन या चंपारण मटन के तौर पर भी अब लोकप्रिय हो रहा है। फिल्म में ‘चंपारण मटन’ नाम का सीधे-सीधे कहीं ज़िक्र नहीं आता है। ‘मटन’ फिल्म में एक ख्वाहिश का रूपक है, जिसके इर्द गिर्द पूरी फिल्म की कहानी घूमती है। यहां ‘चंपारण’ नाम भी इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि चंपारण नाम की पहली पहचान महात्मा गांधी के ‘चंपारण आंदोलन’ से जुड़ती है, जो गांधी जी के नेतृत्व में 1917 में किया गया पहला सत्याग्रह आंदोलन था।  तो इस फिल्म में नायिका का मायका चंपारण दिखा के चंपारण नाम का इस्तेमाल सिर्फ इसलिए नहीं है कि ये ट्रेंडी है या न्यू जेनेरेशन के लिए कैची है, बल्कि कहीं न कहीं ये नायक रमेश के अपने या अपने समाज के प्रति बर्ताव को लेकर प्रतिरोध और स्वाभिमान से जीने के हठ को लेकर गांधी के सत्याग्रह से भी जुड़ता है। तो चंपारण मटन शीर्षक में मटन जहां डिज़ायर (ख्वाहिश) का रूपक है, वहीं चंपारण प्रतिरोध का रूपक है।

चंदन रॉय ने रमेश के किरदार को जिस तरह से निभाया है, वो लगता ही नहीं कि कोई एक्टर एक्टिंग कर रहा है। इससे पहले अमेज़ॉन की वेबसीरीज़ पंचायत में भी उन्होने पंचायत सचिव अभिषेक के सहायक विकास के रोल में इसी स्तर का काम किया था। उनकी भावभंगिमा और डायलॉग डिलीवरी लाजवाब है।

रमेश की पत्नी सुनीता का रोल फ़लक खान ने निभाया है और बहुत ही बढ़िया अभिनय किया है। इससे पहले भी वो निर्देशक रंजन कुमार की एक शॉर्ट फिल्म सराय में दिख चुकी हैं। ये भी एक बेहतरीन फिल्म है, जिस पर जल्द ही अलग से चर्चा पोस्ट की जाएगी। इसके अलावा भी वो कुछ फिल्मों में नज़र आई हैँ।

नानी के रोल में मीरा झा ने बहुत वास्तविक अभिनय किया है, उन्हे पहले भी अचल मिश्रा चर्चित और बहुप्रशंसित मैथिल फिल्म ‘गमकघर’ में देखा गया था।

रमेश के (दोस्त के) छोटे भाई के रोल में अरहत भी अभिनेता नहीं बल्कि गांव-कस्बे के सीधे-सादे पढ़ने-लिखने वाले वास्तविक पात्र लगते हैं, जो जब कहते है कि ‘इस बार निकालना है…’ तो यूपी-बिहार में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे हज़ारों-लाखों ऐसे छात्रों की नुमाइंदगी करते दिखते हैं।

फिल्म की भाषा उत्तरी बिहार और नेपाल के तराई में प्रमुखता से बोली जाने वाली बज्जिका है। ये मुख्यत: सीतामढ़ी, शिवहर, समस्तीपुर, वैशाली और पूर्वी चंपारण के साथ-साथ दरभंगा, मधुबनी जिलों  में बोली जाती है। भारत के 16 प्राचीन महानजपदों में से ये वज्जी या वैशाली महाजनपद में बोली जाती थी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में करीब सवा करोड़ लोग बज्जिका बोलते हैं। फिल्म में मुख्य किरदार निभाने वाले चंदन समेत सभी पात्र धाराप्रवाह बज्जिका बोलते दिखाई देते हैं, जिसकी बड़ी वजह लगभग सभी कलाकारों का मूलत: बिहार से होना है।

फिल्म की सबसे बड़ी खूबी ये है कि इसकी कहानी, पटकथा और निर्देशन के ज़रिए इसके कथ्य में कुछ बहुत ही गंभीर बातें शामिल हैं, लेकिन उन्हे इतनी सहज और वास्तविक ढंग से पेश किया गया है फिल्म का ज़ायका कहीं से भी बनावटी नहीं लगता। एक भी दृश्य या संवाद देखते-सुनते ये नहीं लगता कि आप कोई फिल्म देख रहे हैं… और इसमें एक बड़ा अहम रोल अदा किया है फिल्म की सिनेमैटोग्राफी, एडिटिंग, साउंड डिज़ाइन (साउंड विशेष रुप से) और प्रोडक्शन डिज़ाइन ने।

आदित वी साथ्विन की सिनैमाटोग्राफी, वैष्णवी कृष्णन की एडिटिंग, शुभम घाटगे का साउंड डिज़ाइन और मीनाक्षी श्रीवास्तव का प्रोडक्शन डिज़ाइन फिल्म में वज़न पैदा करते हैं। फिल्म में एक छोटा सा गीत भी है- ‘घड़े में पानी तली तलक, कौआ भया पियासा’- जिसे शुभम घाटगे ने कंपोज़ किया है। सुनने में बढ़िया लगता है, गीत और संगीत दोनों ही फिल्म की थीम और इमोशन से मैच करता है। इस गाने के बोल भी रंजन कुमार ने ही लिखे हैं, जिसमें शुभम घाटगे ने भी सहयोग किया है और जो बहुत सारगर्भित हैं।

रंजन कुमार की कहानी, पटकथा और निर्देशन बहुत ही परिपक्व है। सबसे अधिक सराहना उनकी संवेदनशीलता और अंतर्दृष्टि की सूक्ष्मता की करनी चाहिए जो फिल्म के हर फ्रेम में दिखती है। रंजन फिल्म में भी मुखिया की छोटी सी भूमिका निभाते दिखते हैं और उन्होने अभिनय भी बढ़िया किया है। यहां उनका सहायक भी बहुत बढ़िया ढंग से फिल्म का महत्वपूर्ण संवाद बोलता दिखता है।

लेखक-निर्देशक रंजन कुमार और उनके सभी तकनीशियन FTII, पुणे के छात्र हैं। इनकी इस फिल्म को दुनियाभर की करीब 2500 फिल्मों में चुनकर स्टूडेंट एकैडमी अवॉर्ड के लिए आखिरी 16 फिल्मों में चुना गया था जो एक बड़ी बात है। हर साल दुनिया भर के कॉलेज और विश्वविद्यालय के फिल्म स्टूडेंट पुरस्कार और नकद अनुदान के लिए एनीमेशन, डॉक्यूमेंट्री, लाइव एक्शन नैरेटिव, ऑल्टरनेटिव/एक्सपेरिमेंटल जैसी श्रेणियों में प्रतिस्पर्धा करते हैं और उनकी फिल्मों का मूल्यांकन होता है। खास बात ये है कि स्टूडेंट एकेडमी अवॉर्ड्स के विजेता रह चुके फिल्ममेकर्स ने आगे चलकर 12 ऑस्कर जीते और 63 ऑस्कर नामांकन हासिल किए।

फिल्म ‘चंपारण मटन’ की सफलता की सार्थकता सिर्फ ऑस्कर नाम से जुड़ी चकाचौंध या उससे जुड़े तमाम आंकड़ों भर में नहीं है.. न ही ऑस्कर या हॉलीवुड अच्छे सिनेमा की गारंटी हो सकता है। चंपारण मटन की सफलता इस फिल्म को देखकर ही समझा जा सकता है। ये वो सिनेमा है जो हमें आज चाहिए। ये वो कलात्मक और सामाजिक संवेदनशीलता है जो हमें हमारे सिनेमा में चाहिए… और इसीलिए देश के सबसे बड़े फिल्म प्रशिक्षण संस्थान से निकली ये फिल्म खास बन जाती है, क्योंकि ये भारत में सिनेमा जैसे कला माध्यम के भविष्य को लेकर आश्वस्त करती है। न्यू डेल्ही फिल्म फाउंडेशन जल्द ही इस फिल्म की पब्लिक स्क्रीनिंग का आयोजन करेगा।

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