वाणी जयराम : थम गईं पांच दशकों की एक प्यारी-सी आवाज़
दक्षिण भारत के सुरीले संगीत की मिठास को अपनी आवाज़ के ज़रिए हिंदी सिनेमा संगीत में पहुंचाने वाली संभवत: पहली गायिका थीं वाणी जयराम।
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दक्षिण भारत के सुरीले संगीत की मिठास को अपनी आवाज़ के ज़रिए हिंदी सिनेमा संगीत में पहुंचाने वाली संभवत: पहली गायिका थीं वाणी जयराम।
दरअसल, डबिंग और सबटाइटिल्स की सुविधा के साथ अब हिंदी का दर्शक न सिर्फ भारत की सभी भाषाओं के मनोरंजन का आनंद ले सकता है, बल्कि तमाम विदेशी कहानियाँ भी उसके लिए सहज हो गई हैं। निर्माताओं को भारत के विशाल बहुभाषी दर्शक वर्ग की निरंतर बढ़ती भूख में अपने मुनाफ़े का अहसास हो चुका है।
‘आनंद’ फ़िल्म का नायक आनंद(राजेश खन्ना) ‘भरपूर जीवन जीने’ का उदाहरण है। वह गंभीर बीमारी(कैंसर) से ग्रसित है और उसे मालूम है कि तीन माह से अधिक उसकी जिंदगी नहीं बची है,फिर भी वह जैसे मौत की हँसी उड़ाता है। मौत आएगी तब आएगी अभी से उसका ग़म क्या!
जैसा फ़िल्म में एक जगह कहा गया है हम बुख़ार को देखते हैं जो कि एक लक्षण है, बुखार के कारणों को नहीं देख पाते।
फ़िल्म ‘आवारा ‘ के जज ‘रघुनाथ’ समाज से विद्रोह करके एक ‘विधवा’ से शादी करते हैं मगर पत्नी के एक डाकू द्वारा अपहरण कर लेने के बाद वापिस आने पर उसे घर मे नहीं रख पाते। ‘लोकोपवाद’ का भय उन पर इस कदर हावी है उनकी प्रारम्भिक ‘प्रगतिशीलता’ हवा हो जाती है और अपनी गर्भवती पत्नी को घर से निकाल देते हैं।
फ़िल्म ‘सुबह’ की ‘सावित्री’ का द्वंद्व इसी अस्मिता और पारिवारिकता के बीच सामंजस्य का है। वह जितना अपनी अस्मिता के प्रति सचेत है उतना ही अपने परिवार से प्रेम भी करती है। मगर विडम्बना कि…
‘एक कलाकार के लिए कोई बाउंड्री नहीं होती। मैं पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्री को बधाई देता हूं कि उन्होंने ‘मौला जाट’ जैसी सुपरहिट फिल्म बनाई। पिछले कई सालों में ऐसी फिल्म हमने नहीं देखी।’ – रणबीर कपूर
प्रसून चटर्जी द्वारा लिखित और निर्देशित बांग्ला फिल्म ‘दोस्तजी’ हाल ही में रिलीज़ हुई है और खूब तारीफ बटोर रही है। बाबरी मस्जिद विध्वंस की पृष्ठभूमि में बनीं ये बांग्ला फिल्म बड़ों की कथा...
वह कहानी जिसको पूर्णता प्रदान करना सम्भव न हो उसे ‘एक ख़ूबसूरत मोड़’ देना बेहतर होता है। ज़ाहिर है जिस रिश्ते को किसी ‘नाम’ के अंजाम तक न पहुँचाया जा सके समाज मे उसकी कोई ‘मान्यता’ नहीं होती, इसलिये उस ‘रिश्ते’ को तोड़ देना ही अच्छा होता है।
शहर उतना दे नहीं पा रहा जितनी उम्मीद थी। यहाँ बेहतर भविष्य केवल सपना है। हक़ीकत चंद लोगों के लिए है। वह टैक्सी में इन ‘चंद लोगों’ की दुनिया देखता है,उनकी अट्टालिकाएं देखता है, और दूसरी तरफ सड़कों में बसर कर रहे लोगों को देखता है, मगर दिल है कि मानता नहीं! लगता है कुछ हो जाएगा।