‘हक़ीक़त’ जैसे माहौल में चेतन आनंद की याद…
भारत-चीन सीमा पर चल रहे तनाव के बीच लगातार 1962 के भारत-चीन युद्ध का लगातार ज़िक्र हो रहा है। युद्ध और खासतौर पर इसकी विभीषिका और दर्द को लोगों ने इस पर 1964 में बनी फ़िल्म ‘हक़ीक़त’ के ज़रिए समझा था। इस फिल्म को चेतन आनंद ने लिखा और निर्देशित किया था। देव आनंद के बड़े भाई चेतन आनंद एक बेहतरीन फ़िल्मकार होने के साथ साथ बेहद ज़हीन और नफ़ीस इनसान थे। 1946 में उनकी बनाई पहली ही फ़िल्म ‘नीचा नगर’ को फ्रांस के पहले कान फ़िल्म फेस्टिवल में ‘पाम डी ओर’ सम्मान से नवाज़ा गया था। आज चेतन आनंद की बरसी पर उनकी शख्सियत और उनके काम को याद कर रहे हैं NDFF के अध्यक्ष अमिताभ श्रीवास्तव।
देव आनंद ने गाइड के निर्देशन के लिए पहले चेतन आनंद को ही चुना था लेकिन जब दो भाषाओँ में फिल्म बनना शुरू हुई तो तालमेल की कमी दिखने लगी। चेतन आनंद अलग हो गए और गोल्डी यानी विजय आनंद को निर्देशन की कमान मिली। चेतन ने उसी दरम्यान बनायी हक़ीक़त, जो गाइड की ही तरह हिंदी सिनेमा में मील का एक पत्थर है।
कॉस्ट्यूम ड्रामा, पीरियड फिल्म या इतिहास से जुड़े किरदारों पर बनी फिल्मों में जो रुतबा के. आसिफ की फिल्म ‘मुग़ले आज़म’ को हासिल है, युद्ध पर बनी फिल्मों में वही दर्जा और इज़्ज़त चेतन आनंद की फिल्म ‘हक़ीक़त’ के खाते में है।
होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा- जे पी दत्ता की फिल्म ‘बॉर्डर’ के मर्मस्पर्शी गाने ‘संदेसे आते हैं’ से 33 साल पहले चेतन आनंद की फिल्म हक़ीक़त के इस गाने ने युद्ध की विभीषिका के बीच फंसे फौजियों और उनके परिवार वालों की भावनाओं की मार्मिक तस्वीर खींची थी।
फिल्म स्टार देवानंद और विजय आनंद के बड़े भाई थे चेतन आनंद। सत्यजीत रे और मृणाल सेन से बहुत पहले उन्होंने हिंदी सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सम्मान दिलाया था 1946 में अपनी फिल्म नीचा नगर के ज़रिये।
देव आनंद उन्हें ही अपना रोल मॉडल मानते थे। अपनी आत्मकथा में देवानंद ने लिखा है कि चेतन आनद उनके पहले गुरु थे जिनके नक़्शे कदम पर चलते हुए उन्होंने बातचीत के सलीके, अंग्रेजी बोलने की अदा और खाने पीने के तौर तरीकों से लेकर एक्टिंग के शुरुआती सबक तक सीखे। देव आनंद की आत्मकथा से ही चेतन आनंद के बहुआयामी व्यक्तित्व का भी पता चलता है। देव आनंद ने लिखा है कि चेतन आनंद टेनिस बहुत अच्छा खेलते थे, विम्बलडन तक पहुंचे थे लेकिन हार गए। आई सी एस के इम्तिहान में भी बैठे लेकिन पास नहीं हो पाए। फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते थे। बीबीसी से जुड़े रहे थे, फिर देहरादून आकर मशहूर दून स्कूल में इंग्लिश और इतिहास के शिक्षक हो गए।
देव आनंद की आत्मकथा में चेतन बिलकुल बड़े भाई साहब वाली छवि में नज़र आते हैं। उन्होंने चेतन आनंद के तब के पड़ोसियों और दोस्तों में मशहूर अंग्रेजी लेखक राजा राव और अभिनेता मोतीलाल का भी उल्लेख किया है।
जब दून स्कूल की नौकरी छोड़कर फिल्मों का रुख किया तो मैक्सिम गोर्की के नाटक ‘लोअर डेप्थ्स’ पर ‘नीचा नगर’ फिल्म बनायीं। ये अभिनेत्री कामिनी कौशल और पंडित रवि शंकर की भी पहली फिल्म थी।
बलराज साहनी ‘नीचा नगर’ में काम की उम्मीद में आये थे लेकिन फिल्म के लिए पैसा नहीं जुट पा रहा था तो तब तक सब लोग मिलकर नाटक वगैरह में लग गए। बलराज साहनी के भाई और मशहूर हिंदी साहित्यकार भीष्म साहनी ने उन दिनों का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि बलराज साहनी जब अपनी पत्नी और बच्चे समेत मुंबई (तब बम्बई) आ गए तो घर वालों ने उनका हाल चाल पता करने के लिए उन्हें यानी भीष्म साहनी को उनके पीछे-पीछे भेजा। स्टेशन पर बलराज साहनी की पत्नी दमयंती साहनी उन्हें लेने आई तो भीष्म साहनी ने फिल्म के बारे में पूछा। मुस्कुराकर दमयंती साहनी ने कहा- कैसी फिल्म, घर चल कर अपनी आँखों से सब देख लेना।
देव आनंद की आत्मकथा के अलावा ज़ोहरा सहगल, भीष्म साहनी और उनकी बेटी कल्पना साहनी की संस्मरणात्मक किताबों में भी इस बात का ज़िक्र है कि पाली हिल पर जब चेतन आनंद रहा करते थे तो उनके कुनबे में सिर्फ वो, उनकी पत्नी और बाकी दो भाई देव और विजय आनंद ही नहीं बल्कि बलराज साहनी, उनकी पत्नी दमयंती साहनी, उनके दो बच्चे, ज़ोहरा सहगल, उनकी बहन उजरा बट और उनके पति हामिद बट भी थे। भीष्म साहनी ने लिखा है- कुल जमा दस बड़े और दो बच्चे।
कौन बदलना चाहता था साहब, बीबी और गुलाम का अंत...?
बलराज साहनी से चेतन आनंद की दोस्ती इतनी पक्की थी कि वे जब तक जिंदा रहे उनकी यूनिट का स्थायी हिस्सा बने रहे।
बाद में देव आनंद की फिल्म निर्माण शैली से उनके मतभेद हुए और उन्होंने अपनी अलग कंपनी हिमालय फिल्म्स बनायी। इस बैनर के तले कैफ़ी आज़मी, मदन मोहन के साथ मिलकर चेतन आनंद ने अपनी फिल्मों के ज़रिये हिंदी सिनेमा में कुछ दिलचस्प प्रयोग किये। कैफ़ी आज़मी ने ‘हीर राँझा’ के सारे संवाद तुकबंदी की शैली में लिखे और मदनमोहन ने यादगार संगीत दिया।
शायद बहुत कम लोगों को यह बात मालूम हो चेतन आनंद की फिल्म ‘हिंदुस्तान की कसम’ में ‘गब्बर’ अमजद खान और ‘मोगैम्बो’ अमरीश पुरी ने भी छोटी सी भूमिकाएं की थीं।
चेतन आनंद रिश्ते निभाने के मामले में इतने पक्के थे कि ज़माने की तमाम बदनामियाँ झेल कर भी उन्होंने अभिनेत्री प्रिया राजवंश से अपना लगाव कभी नहीं छुपाया। हालाँकि रॉयल अकादमी ऑफ़ ड्रामेटिक आर्ट्स की ट्रेनिंग के बावजूद प्रिया राजवंश के अभिनय में कभी कोई खास बात नहीं दिखी लेकिन प्रिया न सिर्फ उनकी फिल्मों की नायिका रहीं, बल्कि उन्होंने अपनी वसीयत में भी उनको हिस्सेदार बनाया जिसके चलते चेतन आनंद की मौत के बाद प्रिया राजवंश की हत्या भी हुई और कसूरवार निकले उनके ही बेटे केतन और विवेक।
विडम्बना ये है कि उनके हिस्से में अपने दोनों भाइयों जैसी शोहरत और कामयाबी नहीं आयी
23 साल पहले 6 जुलाई 1997 को चेतन आनंद का 76 साल की उम्र में निधन हो गया था।