200 हल्ला हो: दलित स्त्रियों के आक्रोश की आवाज़

Share this
Amitaabh Srivastava

हाल की फिल्मों में सामाजिक न्याय की थीमऔर एक्टिविज़्म का टोन मुख्य धारा और उससे अधिक क्षेत्रीय सिनेमा में काफी मुखर हुआ है। इन दिनों ZEE 5 पर रिलीज़ हुई नई हिंदी फिल्म 200 हल्ला हो उसी धारा की फिल्म है।  अमोल पालेकर और रिंकू राजगुरू की मुख्य भूमिकाओं वाली ये फिल्म क्यों देखी जाए और इसमें क्या खास है, बता रहे हैं अमिताभ श्रीवास्तव अपनी समीक्षा में। अमिताभ श्रीवास्तव वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजतक, इंडिया टीवी जैसे न्यूज़ चैनलों से बतौर वरिष्ठ कार्यकारी संपादक जुड़े रहे हैं। फिल्मों के गहरे जानकार और फिल्म समीक्षक के तौर पर ख्यात हैं।

दलितों के शोषण और उसके प्रतिकार पर बनी 200: हल्ला हो झकझोरने वाली फ़िल्म है । 2004 में नागपुर में दलित महिलाओं के एक समूह ने बलात्कार और यौन शोषण के एक आरोपी अक्कू यादव की भरी अदालत में हत्या कर दी थी। यह फ़िल्म उस सच्ची घटना से प्रेरित है। निर्देशक सार्थक दासगुप्ता ने 17 साल पहले हुई उस दिल दहला देने वाली घटना को वर्तमान संदर्भों में प्रासंगिक बनाते हुए अपनी फ़िल्म के ज़रिये यह बताने की कोशिश की है कि दलित-वंचित समूह की महिलाएँ हमारे सामाजिक ढाँचे में किस तरह सबसे निचली पायदान पर हैं और उन्हें हर मोर्चे पर शोषण का शिकार होना पड़ता है और सारी संवैधानिक व्यवस्थाओं के बावजूद हमारी समूची न्याय प्रणाली किस तरह दलितों-वंचितों के साथ अन्याय कर रही है। ऐसे में दलित-वंचित वर्ग का गुस्सा हिंसा में फूट पड़ता है। यह क़ानूनी तौर पर ग़लत है लेकिन क्या हमारी मौजूदा व्यवस्था कोई और रास्ता छोड़ रही है? फ़िल्म यह सवाल बड़े झन्नाटेदार तरीक़े से उठाती है।

कहानी नागपुर की एक दलित बस्ती राही नगर की महिलाओं की है। फ़िल्म अदालत में बल्ली चौधरी नाम के एक बदमाश की हत्या से शुरू होती है। शुरुआती दृश्यों में ही सनसनीख़ेज़ अंदाज़ में इस घटना को अंजाम देने की तैयारी दिखाई जाती है । हत्या के बाद पुलिस की पूर्वाग्रह ग्रस्त कार्रवाई और दमन का चक्र चलता है। पुलिस पाँच महिलाओं को पकड़ ले जाती है। मामला संवेदनशील होने के कारण मीडिया की नज़र में आ जाता है। चुनाव सिर पर हैं। महिला अधिकार आयोग केस के तथ्यों की जाँच के लिए एक कमेटी गठित कर देता है। कमेटी का मुखिया एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश को बनाया जाता है जो ख़ुद दलित हैं। उनके साथ एक महिला पत्रकार, एक वक़ील और एक प्रोफ़ेसर भी उस कमेटी में हैं। बस्ती वाले कमेटी के लोगों के प्रति संशय से भरे होते हैं और जाँच में कोई सहयोग नहीं करते । कमेटी की रिपोर्ट आने से पहले ही अदालत उन पाँचों महिलाओं को उम्र क़ैद की सज़ा सुना देती है। बस्ती की एक दलित युवती इनके लिए इंसाफ़ की लड़ाई का बीड़ा उठाती है । अगड़ी जाति वाला उसका पूर्व प्रेमी उसका साथ देता है लेकिन उसकी हत्या हो जाती है। वह लड़की और एक दलित महिला क़ैदी दलित जज को उसके खोखले सिद्धांतवादी रवैये के लिए धिक्कारते हैं। उसका ज़मीर जागता है और अंततः वह अदालत में इन दलित महिलाओं के वक़ील के तौर पर ज़िक्र करता है और उन्हें इंसाफ़ दिलाता है।

दलितों-वंचितों के मुद्दे पर हाल में क्षेत्रीय सिनेमा में कर्णन, असुरन जैसी शानदार फ़िल्में आई हैं। हिंदी में भी आयुष्मान खुराना की आर्टिकल 15 का कथानक भी जाति आधारित शोषण से जुड़ा था। गोविंद निहलानी की चर्चित फ़िल्म आक्रोश ने दलित-दमित समूहों के शोषण और उनको न्याय दिलाने की प्रक्रिया के झोलझाल को बहुत शानदार अंदाज़ में दिखाया था।

फ़िल्मों से दूर हो चुके अभिनेता-निर्देशक अमोल पालेकर ने लंबे समय बाद इस फ़िल्म से अभिनय में वापसी की है। अमोल पालेकर तजुर्बेकार अभिनेता हैं और मसाला सिनेमा से लेकर गंभीर फ़िल्मों में हर तरह की भूमिका में अपने अभिनय का लोहा मनवा चुके हैं। यहाँ भी वह फ़िल्म के केंद्रीय चरित्रों में से एक हैं जो दलित महिलाओं के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ते हैं और उन्हें इंसाफ़ दिलाते हैं।
अमोल पालेकर एक रिटायर्ड न्यायाधीश की भूमिका में हैं जो जाति से दलित है लेकिन उसकी आर्थिक-सामाजिक हैसियत अपने दलित समाज के सदस्यों से बहुत अलग हो चुकी है । वह दलित होते हुए समाज की क्रीमी लेयर का हिस्सा है। लेकिन दलित होने का अहसास उसे भी दिलाया जाता है जो उसे कचोटता रहता है। अकेले में अपनी पत्नी (नवनी परिहार) से वह कहता है- Celebrated Dalit Judge- ये tag मुझे हमेशा बहुत परेशान करता है। मुझे लगता है यह बोलकर मेरी achievements को बाकियों से कम आँका जा रहा है। A successful Dalit से successful professional बनने की कोशिश में बहुत कुछ छूट गया हाथ से। मैं भूल गया था कि दलित का कोई गाँव नहीं होता।

बाबा साहेब आंबेडकर की तस्वीर को देखते हुए अमोल पालेकर कहते हैं- I have no homeland- आप ही ने कहा था – गांधी जी से।
हालाँकि बाहरी समाज में उस जज ने एक अलग व्यक्तित्व ओढ़ रखा है। जब फ़िल्म की दलित नायिका आशा सुर्वे उसे भी उसकी जाति याद दिलाती है तो वह बड़े असंपृक्त भाव से कहता है- दलित होना किसी की नैतिकता का प्रमाणपत्र नहीं हो सकता। वह पलट कर जज विट्ठल से कहती है-जब हर पल हमें हमारी औक़ात याद दिलायी जाती है तो हम हर बार अपनी जाति का मुद्दा क्यों नहीं बनाएंगे।
दलित नायिका की भूमिका में रिंकू राजगुरु ने बहुत बढ़िया काम किया है। रिंकू मराठी फिल्म सैराट से चर्चा में आई थीं। निर्देशक ने रिंकू राजगुरु और अमोल पालेकर के बीच बातचीत में एक सुविधासंपन्न दलित पुरुष और शोषण से लड़ रही एक दलित युवती के वर्गचरित्र और तेवरों का अंतर संवादों के ज़रिये बहुत शानदार तरीक़े से उभारा है। एक दृश्य में अमोल पालेकर कहते हैं- न्यायदान करते समय मैं किसी जाति या धर्म को नहीं मानता। हमारे देश का संविधान ही मेरा धर्म है।

इसका करारा जवाब देते हुए नायिका कहती है- संविधान में लिखे शब्दों को सिर्फ़ याद रखना काफ़ी नहीं है। उनका इस्तेमाल होना ज़्यादा ज़रूरी है।
फ़िल्म की युवा नायिका आशा सुर्वे से भी ज़्यादा तीखे तरीक़े से ताराबाई नाम की प्रौढ़ दलित महिला रिटायर्ड दलित जज साहब के बदल चुके वर्ग चरित्र पर ताना मारती है। जेल में जज ताराबाई से पूछता है- हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि उस दिन बल्ली चौधरी को क्यों मारा गया?
दलित महिला ताराबाई जज को व्यंग्यात्मक लहजे में जवाब देती है- ख़ुशबू वाले साबुन से नहाते हो, साफ़ कपड़े पहनते हो, बड़ी-बड़ी गाड़ी में घूमते हो। आप नहीं समझोगे।
अपनी आँखों के सामने बेटी का बलात्कार ओर नृशंस हत्या देख चुकी दलित महिला ताराबाई कांबले की भूमिका में सुषमा देशपांडे का आक्रोशपूर्ण सशक्त अभिनय फ़िल्म को गरिमा प्रदान करता है।

कलाकारों का अभिनय अच्छा है। अमोल पालेकर, रिंकू राजगुरु के अलावा सुषमा देशपांडे, साहिर खट्टर, वरुन सोबती, सलोनी बत्रा, उपेन्द्र लिमये, फ्लोरा सैनी, इंद्रनील सेनगुप्ता ने अपने किरदार अच्छी तरह से निभाये हैं। अभिनय में मददगार संवाद अच्छे हैं । अदालत मे जिरह के दौरान अमोल पालेकर कहते हैं- An unjust law is no law at all. अगर हमारी न्याय व्यवस्था इन औरतों को सुरक्षा देने में सक्षम नहीं है तो उन्हें सज़ा देने का अधिकार भी उसे नहीं है। We should pray that they do not lose hope वर्ना आने वाले समय में इंसाफ़ अदालतों में नहीं, सड़कों पर भीड़ के हाथों किया जाएगा।

यह संवाद हमारे समय का चिंताजनक और डरावना यथार्थ प्रस्तुत करता है।
लेकिन संवादों में एकालाप , नारेबाज़ी और उपदेशात्मक शैली फ़िल्म में मूल विषय के प्रस्तुतिकरण को बहुत फार्मूलाबद्ध कर देता है- किसी आम मुंबइया मसाला फ़िल्म की तरह। खलनायक बल्ली चौधरी का किरदार काफ़ी लाउड , अतिरंजित बनाया गया है जो बाक़ी कलाकारों का ग्राफ़ देखते हुए काफी अजीब सा लगता है। नागपुर की दलित बस्ती का विलेन हैदराबादी लहजे में क्यों बोलता है यह भी समझ से परे है। फिल्म मेलोड्रामा से बच पाती तो हिंदी सिनेमा में दलित विमर्श का एक गंभीर प्रस्थानबिंदु बन सकती थी। फिर भी, यह विषय उठाने के लिए निर्देशक बधाई का हक़दार है। देखने लायक फ़िल्म है। फिल्म जी5 पर देखी जा सकती है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top