सिनेमा में ‘आवारा’ और उसकी दुनिया का विमर्श
1951 बनाई राजकपूर की फिल्म ‘आवारा’ अपने विषय, अदाकारी, रोमांस और गीत-संगीत सभी के लिहाज़ से मील का पत्थर मानी जाती है। इस फिल्म ने अपने प्रगतिशील कथ्य के चलते न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया के कई देशों में भारी लोकप्रियता हासिल की। ‘आवारा’ के मुख्य किरदार को गढ़ने के पीछे जो सोच और विमर्श की गहराई थी वो एक प्रमुख तत्व था, जो आने वाले दौर में कई समान किरदारों वाली फिल्मों में नहीं दिखा। ‘सिनेमा के साहित्य की समीक्षा’ के तहत अजय चंद्रवंशी की कलम से प्रस्तुत है आवारा की एक बेहद सुलझी हुई समीक्षा। इस समीक्षा में कई भावनाओं, विचारों और वृत्तियों को जिस तरह शब्द देकर विषय को समझाया गया है वो किसी समीक्षा में पढ़ने के लिहाज़ से वाकई दुर्लभ है। ‘सिनेमा के साहित्य की समीक्षा’ सीरीज़ में हम किसी फिल्म के कथानक के साहित्यिक-सामाजिक पक्ष पर एक समीक्षा देते हैं, क्योंकि सिनेमा साहित्य से ही बनता है। लेखक-समीक्षक अजय चंद्रवंशी बतौर शिक्षा अधिकारी कवर्धा, छत्तीसगढ़ में कार्यरत हैं।
सामंती जीवन मूल्य और पितृसत्ता में घनिष्ठ सम्बन्ध है।समाज मे जिस अनुपात में सामंती जीवन मूल्य रहेंगे उसी अनुपात में पितृसत्ता भी। पुरूष केंद्रित इस व्यवस्था में स्त्री को द्वितीयक समझा जाता रहा है, उसके साथ बराबरी का व्यवहार नहीं किया जाता। वहां स्त्रियों से तो ‘पति अनुकूल’ आचरण की अपेक्षा की जाती है, मगर पुरुषों से ‘पत्नी अनुकूल’ आचरण पर जोर नहीं दिया जाता। इस ‘मूल्य’ में स्त्री देह के प्रति विचित्र ढंग से ‘रहस्यमयता’ का आरोपण किया जाता है और उसे अपनी ‘प्रतिष्ठा’ का ‘साधन’ के रूप में देखा जाता है। ज़ाहिर है इस रूप में स्त्री जैविक इकाई न रहकर एक ‘वस्तु’ का रूप ले लेती है, भले ही वह ‘मूल्यवान वस्तु’ हो। स्त्री को उसकी जैविकता से काटकर देखने का एक दुष्परिणाम यह भी होता रहा कि उसकी यौनिकता को भी सहज नही लिया जाता रहा और उसके साथ ‘पवित्रता/अपवित्रता/ शुचिता/अशुचिता’ जैसी भ्रान्त अवधारणाएँ जुड़ती रहीं। इस तरह स्त्री को अपने अहं का प्रतीक बना लेने से उसके साथ अमानवीय व्यवहार और अन्याय किया जाता रहा। किसी ‘पर पुरुष’ द्वारा बलात अपहरण/बालात्कार कर लिए जाने से उसका समाजिक बहिष्कार किया जाता रहा, जिसमे उसका कोई दोष नहीं था।
फ़िल्म ‘आवारा ‘ के जज ‘रघुनाथ’ समाज से विद्रोह करके एक ‘विधवा’ से शादी करते हैं मगर पत्नी के एक डाकू द्वारा अपहरण कर लेने के बाद वापिस आने पर उसे घर मे नहीं रख पाते। ‘लोकोपवाद’ का भय उन पर इस कदर हावी है उनकी प्रारम्भिक ‘प्रगतिशीलता’ हवा हो जाती है और अपनी गर्भवती पत्नी को घर से निकाल देते हैं। आगे उनके चरित्र के ‘विकास’ को देखकर आश्चर्य भी होता है कि कभी उन्होंने विद्रोह करके एक ‘विधवा’ से शादी की थी, क्योंकि उनके अंदर सामंती नैतिकतावाद और अभिजनवाद कूट-कूट कर भरा है। फ़िल्म के अंत मे उनके ‘हृदय परिवर्तन’ और ‘पितृत्व’ के जागृत होने को फिल्मकार के आशावादी सन्देश के रूप में ही देखा जाना चाहिए।
‘राज’ के माध्यम से फुटपाथ पर बसर करने वालों की जिंदगियों की विडम्बना का मार्मिक चित्रण है। सुविधाविहीन, अस्वस्थकर, तिरस्कृत परिवेश व्यापक विचलन पैदा करते हैं। ज़ाहिर है जहां रहने और खाने के लाले हों बच्चे ‘अपराध ‘ की तरफ उन्मुख होते हैं और युवावस्था तक आते-आते ‘आवारा’ हो जाते हैं। इन परिस्थितियों के लिए बहुत हद तक असमानतावादी समाजिक व्यवस्था जिम्मेदार है। नागरिकों के लिए न्यूनतम आवास, शिक्षा, सम्मानपूर्वक जीवन की गारंटी सरकारों की होनी चाहिए। पचास के दशक में यह समस्या थी, बहुत हद तक आज भी है।
‘राज’ का विचलन उसकी मानवीयता को खत्म नहीं कर देता। अनुकूल अपरिस्थितियों में वह बेहतर जीवन जीने का आकांक्षी हो जाता है। तिरस्कृत जीवन मे ‘रीता’ का प्रेम उसे नयी जिंदगी की तरफ खींचता है।
फ़िल्म में नाटकीय परिस्थितियां आती हैं। राज की माँ का निधन हो जाता है। जज साहब को अपनी गलतियों का अहसास होता है और फ़िल्म का एक तरह से सुखद अंत होता है। फ़िल्म की कहानी अपने लिए नयी भले रही हो बाद के दौर में इस तरह की कहानियों का काफी दोहराव हुआ। बचपन मे नायक-नायिका का प्रेम, नायक का गरीबी में उपेक्षित जीवन मगर खुद्दार इस तरह की फार्मूलाबद्ध फिल्में बनने लगीं, जिनमे समस्या का कोई वस्तुगत निराकरण न होकर केवल ‘लम्पट सर्वहारा’ वाला दृष्टिकोण अधिक दिखाई देता है।
बहरहाल यह फ़िल्म राजकपूर-नरगिस के रोमांस और अदाकारी, पृथ्वीराज कपूर की अदाकारी तथा गीत-संगीत के लिहाज़ से मील का पत्थर मानी जाती रही है और अपने विषयवस्तु और संगीत के चलते ये रूस समेत कई देशों में बेहद लोकप्रिय हुई।