हर बच्चा खास होता है: ‘तारे ज़मीन पर’ के 15 साल
भारतीय समाज और भारतीय सिनेमा जिन अर्थों में दूसरे देशों के सिनेमा से अलग है उनमें एक अहम पहलू समाज और सिनेमा का रिश्ता भी है। यही वजह है कि शुरु से ही सिनेमा भारतीय समाज के लिए सबसे असरदार माध्यम रहा है और समय समय पर इसने समाज को सोच की नई राह भी दिखाई है। 2007 में आई आमिर खान-अमोल गुप्ते की फिल्म ‘तारे ज़मीन पर’ ऐसी ही एक फिल्म थी, जिसने एक एक अभिभावक के दिमाग में ये बात बिठा दी कि हर बच्चा खास होता है। इसी साल 21 दिसंबर को इस फिल्म को रिलीज़ हुए 15 साल पूरे हुए हैं। ‘सिनेमा के साहित्य की समीक्षा’ के तहत अजय चंद्रवंशी की कलम से प्रस्तुत है ‘तारे ज़मीन पर’ की साहित्यिक कथावस्तु के नज़रिए से की गयी एक बेहद अलग सी समीक्षा, जो कहीं और पढ़ने को नहीं मिलेगी। ‘सिनेमा के साहित्य की समीक्षा’ सीरीज़ में हम किसी फिल्म के कथानक के साहित्यिक-सामाजिक पक्ष पर एक समीक्षा देते हैं, क्योंकि सिनेमा साहित्य से ही बनता है। लेखक-समीक्षक अजय चंद्रवंशी बतौर शिक्षा अधिकारी कवर्धा, छत्तीसगढ़ में कार्यरत हैं।
बचपन जीवन का आधार है। व्यक्तित्व के निर्माण में उसके बचपन की अहम भूमिका होती है।यह मानी हुई बात है कि व्यक्तित्व के निर्माण में अनुवांशिकी की भूमिका सीमित होती है,मुख्य भूमिका उसके परिवेश और सामाजिक वातावरण की होती है।और उसमे भी माता-पिता, परिवार सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं फिर परिवेश और स्कूल की बारी आती है।कुल मिलाकर यह कि प्राथमिक शिक्षा के स्तर के बच्चे कच्ची मिट्टी के समान कोमल होते हैं,इसलिए उनको आकार नाजुकता से ही दिया जा सकता है। ‘चोट’ से वे बिखर जाते हैं।मगर हम सब कहाँ यह ध्यान रख पाते हैं?
बच्चों को आजकल औपचारिक प्राथमिक शिक्षा अमूमन स्कूल में ही मिलती है।यूं तो कक्षा एक की उम्र लगभग छः वर्ष है मगर अधिकतर निजी शालाओं में प्रि प्रायमरी के रूप में तीन साढ़े तीन साल की उम्र से बच्चे स्कूल जाना शुरू कर देते हैं।नाम जरूर ‘प्ले स्कूल’ दिया जाता है मगर अधिकतर ‘स्कूल’ ही रहता है ‘प्ले’ नदारद!
एक तो कम उम्र में अधिक सिखाने का दबाव,दूसरा फार्मूलाबद्ध अध्यापन पद्धति, इनके कारण सामान्य से ‘कम क्षमता’ वाले बच्चे पिछड़ते चले जाते हैं।हालांकि समस्या का कोई सरलीकृत हल नहीं है न ही किसी एक पक्ष पर सारी जिम्मेदारी डाली जा सकती है।
फ़िल्म में उठायी समस्या पर ही ध्यान केंद्रित करें तो आज भी सारे बच्चों को एक समान मानकर ट्रीट किया जाता है। ‘विशेष आवश्यकता’ वाले बच्चों की समस्याओं की अमूमन पहचान ही नहीं हो पाती,केवल कमजोर बच्चे मानकर लगभग उन्हें नजरअंदाज करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है।स्वयं माता-पिता उनकी समस्या को नहीं समझ पाते और खीझते-लताड़ते रहते हैं।
स्कूलों में तमाम बाल मनोविज्ञान से ‘प्रशिक्षित’ अध्यापक भी ऐसे बच्चों के लिए कोई अलग से प्रयास करते नहीं दिखाई पड़ते। सब के साथ सीख जाये तो ठीक नहीं तो किसी को कोई चिंता नहीं! कई तो खुले तौर पर ऐसे बच्चों के लिए कहते हैं कि यह सीख ही नहीं सकता।अब यदि बड़ी संख्या में ऐसी मानसिकता के शिक्षक रहें तो क्या किया जा सकता है!
शिक्षकों पर अनुशासनात्मक कार्यवाही या दंड समस्या का समाधान नहीं है। इसका प्रभाव बहुत सीमित होता है।फिर महंगे निजी विद्यालयों में भी जहां काफी हद तक अनुशासन के नाम पर शिक्षकों पर कड़ा नियन्त्र रखने की प्रवृत्ति दिखाई देती है,वहां भी स्थिति में कुछ खास अंतर दिखाई नहीं पड़ता।फिर समस्या का हल क्या है?
जैसा कि फ़िल्म में भी प्रस्तुत किया गया है, जागरूक और संवेदनशील शिक्षक होना पहली शर्त है। एक संवेदनशील शिक्षक समस्याओं का हल ढूंढ लेता है,क्योंकि वह बच्चों से प्यार करता है।यदि प्रेम है तो हजार रास्ते हैं।इसलिए शिक्षक होना केवल आजीविका का एक साधन होना नहीं होना चाहिए। यदि शिक्षक होना आपका जुनून नहीं है तो बहुत सम्भव है आपके अध्यापन की इकाई पूरी कक्षा रहेगी,एक-एक विद्यार्थी नहीं। फिर आपका ध्यान एक न्यूनतम लक्ष्य(सेफ ज़ोन) होते जाता है पूर्ण उपलब्धि(लक्ष्य) नहीं। ऐसे में ज़ाहिर है आपकी नौकरी तो सुरक्षित रहेगी मगर बच्चों के साथ न्याय नहीं होगा।
सभी माता-पिता अपने बच्चों से प्रेम करते है और उनका बेहतर भविष्य चाहते हैं।इस उम्मीद में अपनी क्षमता से अधिक महंगे निजी शालाओं में उनका एडमिशन भी कराते हैं। मगर महंगे शालाओं में भी सभी समस्याओं का हल नहीं हैं,फिर वहां भी व्यावसायिकता और बाज़ारवाद हावी है।
इन तमाम सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में इस तरफ लगभग किसी का ध्यान ही नहीं जाता कि बच्चे की कोई निजी समस्या हो सकती है, वह शारीरिक अथवा मानसिक स्तर पर किसी समस्या से ग्रस्त भी हो सकता है। और फिर अपेक्षित परिणाम न मिलने पर खीझता, झुंझलाहट,गुस्सा, बेबसी आदि। इस स्थिति में हम अक्सर भूल जाते हैं कि बच्चे के कोमल मन पर इसका क्या प्रभाव पड़ रहा होगा।
फ़िल्म में आठ साल के ‘ईशान अवस्थी’ भी एक शारीरिक समस्या ‘डिस्लेक्सिया'(dyslexia) से ग्रसित है जिसके कारण अक्षरों पर उसका ध्यान केंद्रित नहीं हो पाता और अक्षर उसे नाचते हुए दिखाई पड़ते हैं। ज़ाहिर है ऐसे में उसका सीखना सम्भव नहीं हो पाता। वह बालक है अपनी समस्या समझा नहीं सकता,और जो समझ सकते हैं, माता-पिता और शिक्षक, वे समझना नहीं चाहतें। उनके पास जैसे समय ही नहीं है। सब जल्दी में हैं। कोई यह सोचने की जहमत नही उठाता कि उसको कोई समस्या भी हो सकती है। बल्कि बहुत बार उसे अपमानित ही किया जाता है। ज़ाहिर है उसका बालमन इसका प्रतिकार नकारात्मक ढंग से करता है।
ऐसा नहीं कि उसमे प्रतिभा नहीं है,वह बहुत बढ़िया चित्र बनाता है मगर उसके अक्षर ज्ञान की असफलता के आगे कोई इस पर ध्यान ही नहीं देता। इससे यह भी समझा जा सकता है कि यहां पढ़ाई की सफलता को ही सबकुछ समझा जाता है।
फ़िल्म में तो ईशान के माता-पिता काफी हद तक सक्षम हैं मगर उन बच्चों के भविष्य के बारे में कल्पना की जा सकती है जिनके पैरेंट निम्न आय वर्ग, मजदूर वर्ग के होते हैं। वे स्वयं जीवन के जद्दो-जहद से जूझते रहते हैं, कुछ कमियां, बुराइयां भी होती हैं, वे बच्चों पर कितना ध्यान देंगे! इनका सहारा तो तो शासकीय स्कूल और शिक्षक ही हैं।
ऐसा नहीं कि शिक्षकों की कोई समस्या नहीं होती। वे भी एक सामाजिक व्यक्तित्व होने के नाते कई प्रकार के सामाजिक,आर्थिक,मनोवैज्ञानिक द्वंद्वों से घिरे हो सकते हैं, उनकी अपनी निजी समस्याएं हो सकती है, जो उनकी दक्षता को प्रभावित करती हैं। फिर स्कूल स्तर पर संसाधन की कमी, स्टॉफ की कमी, गैर शैक्षिक कार्य, अनावश्यक हस्ताक्षेप आदि कई समस्याएं रहती हैं उनका भी उचित निवारण आवश्यक है।
अलग-अलग जगह कम-ज्यादा समस्याएं हो सकती हैं, कहीं-कहीं समस्याएं न के बराबर भी हैं फिर भी अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पता तो यह चिंता का विषय है। फ़िल्म से ही बात करें तो ‘रामशंकर निकुंभ’ जैसे शिक्षकों की जरूरत है, जो और कुछ भले न हो बच्चों के प्रति संवेदनशील है,जिसे बच्चों की उदासी बेचैन करती है, जिसकी दृष्टि कैरियरवादी न होकर रचनात्मक है। जो मानता है कि हर बच्चा खास होता है और उसमे सुधार किया जा सकता है।
बहरहाल समस्या के बहुत से पहलू हैं, फ़िल्म में एक खास पहलू को लिया गया है, मगर यह सार्थक है। और जैसा फ़िल्म में एक जगह कहा गया है हम बुख़ार को देखते हैं जो कि एक लक्षण है, बुखार के कारणों को नहीं देख पाते। हमारी शिक्षा व्यवस्था की लचरता के कारण भी कहीं गहरे हैं, जो अंततः व्यवस्था की विडम्बना तक चली जाती है,इसलिए समस्या का हल जितना वैयक्तिक और सामाजिक है उतना ही राजनीतिक भी।
फ़िल्म निर्देशक- आमिर ख़ान, अमोल गुप्ते