मनोज बाजपेयी: कुछ पाने की ज़िद
आज मनोज बाजपेयी का जन्मदिन है । उन्होंने सिनेमा में अपनी विशिष्ठ पहचान अपने अथक परिश्रम से बनाई है। विरासत में उन्हें कुछ भी नहीं मिला था…एक – एक उपलब्धि के पीछे संघर्ष की एक लंबी दास्तान है । उन्होंने चंपारण से आकर दिल्ली में थिएटर किया और फिर मुंबई गए… यहां प्रस्तुत है पीयूष पांडे द्वारा उन पर लिखी गई किताब ‘मनोज बाजपेयी कुछ पाने की ज़िद’ से लिए उस अध्याय के संपादित अंश जिससे हम उनके मुंबई के शुरुआती संघर्ष से रुबरु हो सकते हैं…। पीयूष पांडे वरिष्ठ पत्रकार हैं और फिलहाल आजतक में बतौर एग्जीक्यूटिव एडिटर काम करते हैं। उन्होंने टाइम्स नाऊ नवभारत, एबीपी न्यूज़ और जी न्यूज समेत कई मीडिया संस्थानों में वरिष्ठ पदों पर काम किया है। इससे पहले उनकी तीन पुस्तकें ‘छिछोरेबाजी का रिजोल्यूशन’, ‘धंधे मातरम्’ और ‘कबीरा बैठा डिबेट में’ प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने स्टार प्लस के सीरियल ‘महाराज की जय हो’ के संवाद भी लिखे हैं और वह फिल्म ‘ब्लू माउंटेंस’ के एसोसिटएट डाइरेक्टर भी रह चुके हैं। साल 2008 में अभिनेता मनोज बाजपेयी ने पीयूष द्वारा निर्मित ब्लॉगिंग प्लेटफार्म पर अपना ब्लॉग आरंभ किया था और उन्हीं दिनों से लेखक का उनसे परिचय है। प्रस्तुत आलेख उनकी पुस्तक ‘मनोज बाजपेयी कुछ पाने की ज़िद’ के संपादित अंश हैं।
ये है मुंबई मेरी जान
‘बैंडिट क्वीन’ की शूटिंग खत्म होते-होते मनोज बाजपेयी और सौरभ शुक्ला ने तय कर लिया था कि अब उनकी कर्मस्थली मुंबई होगी। लेकिन, मायानगरी का बुलाया भी मायावादी होता है। मनोज मुंबई पहुँचते, उससे पहले मुंबई ने उन्हें बुला लिया। एक दिन शाम को अचानक मनोज के मकान मालिक के लैंडलाइन फोन की घंटी बजी। दूसरी तरफ से बात करने वाले शख्स अनुभव सिन्हा थे, जो मनोज के थिएटर के दिनों के साथी रहे थे। सिर्फ साथी नहीं बल्कि दंगा-83, नामक नाटक में अनुभव मनोज के सहायक रहे थे। मनोज ने बताया, ‘अनुभव ने कहा कि फटाफट मुंबई चले आओ। हमने फ्लाइट के टिकट का इंतजाम कर दिया है।’ अनुभव सिन्हा उन दिनों जाने-माने निर्देशक पंकज पाराशर के सहायक थे। पंकज पाराशर एक धारावाहिक बना रहे थे, ‘अब आएगा मज़ा’। वह इसी नाम से 1984 में एक फिल्म भी बना चुके थे, जिसमें फारुख शेख और अनीता राज ने मुख्य भूमिका निभाई थी। धारावाहिक के लिए पंकज को एक शानदार अभिनेता की तलाश थी। पंकज पाराशर ने ‘जीना इसी का नाम’ कार्यक्रम में इस वाकये को याद करते हुए कहा था, ‘मैंने अनुभव से पूछा कि कोई एक्टर बताओ तो वो बोला कि नसीरुद्दीन शाह की टक्कर का एक एक्टर है। मैंने कहा कि फौरन बुलाओ। अनुभव सिन्हा ने मुझसे कहा: ‘मनोज रात को मेरे घर आ गया था। मैंने उसे देखा तो मुश्किल में पड़ गया। उसे हीरो के रोल लिए बुलाया था और भाई हमारा बिलकुल हीरो नहीं लग रहा था। मैं रात में ही उसे स्पा ले गया। बाल कटवाए। फेशियल वगैरह कराया। मैं उस वक्त ठीक-ठाक पैसे कमाता था। फिर, मैं मनोज को पंकज के पास ले गया। पंकज ने दो मिनट तक देखा और ओके कह दिया।’
‘अब आएगा मज़ा’ में मनोज को काम तो मिल गया, लेकिन यह सीरियल मज़ा कम सज़ा ज़्यादा साबित हुआ। पंकज को मनोज का काम अच्छा नहीं लगा और पायलट एपिसोड के बाद ही उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। मनोज ने एक इंटरव्यू में कहा, ‘मैंने पूरे दिन शूटिंग की। हालाँकि, दो-तीन घंटे की शूटिंग के बाद ही मुझे समझ आ गया था कि पंकज को काम पसंद नहीं आ रहा। फिर भी काम ख़त्म किया और अपना सामान लेने दिल्ली चला गया।” मनोज के अलावा इस धारावाहिक में उनके ख़ास दोस्त विनीत कुमार भी अहम भूमिका में थे। विनीत कुमार ने मुझे बताया, ‘शूटिंग के तीन-चार घंटे ही बीते थे कि मनोज का मूड खराब होने लगा। वो मुझे नीचे ले गया और बोला- क्या करूँ यार, जो आदमी आ रहा है, वो मुझे एक्टिंग समझा रहा है। मैंने मनोज को समझाया, तुम अपने काम पर ध्यान दो, बाकी लोगों पर नहीं।’ अनुभव सिन्हा ने मनोज को धारावाहिक से बाहर किए जाने के पंकज के फैसले पर मुझसे कहा, ‘पंकज को मनोज की एक्टिंग पसंद नहीं आई। उन्होंने साफ कहा कि मनोज को एक्टिंग – वैक्टिंग नहीं आती। फिर संजय मिश्रा को लिया गया। लेकिन उसे भी निकाल दिया गया। चार-छह एपिसोड के बाद सीरियल भयंकर तरीके से फ्लॉप हो गया।’
अनुभव सिन्हा के मुताबिक सीरियल फ्लॉप होने के बाद पंकज पाराशर ने इसे छोड़ दिया, और आखिर के चार एपिसोड उन्होंने निर्देशित किए थे। इस लिहाज से बतौर निर्देशक अनुभव सिन्हा इस सीरियल से लॉन्च हुए। लेकिन, उनका दोस्त मनोज टेलीविजन की दुनिया में लॉन्च होकर भी लॉन्च नहीं हो पाया।
मनोज के लिए दूसरी मुंबई यात्रा कष्टकारक साबित हुई। इससे, कुछ दिन पहले जब वह सलाम बालक ट्रस्ट की एक वर्कशॉप के सिलसिले में मुंबई पहुंचे थे तो अचानक माहौल बिगड़ गया था। दंगे जैसे हालात के बीच मनोज जिजीमाता उद्यान के एक लॉज में फँस गए थे। मनोज के मित्र आशीष विद्यार्थी ने मुझे बताया, ‘मुझे जैसे ही सूचना मिली तो मैं अपनी हीरो होंडा लेकर निकल पड़ा। मैं उन दिनों जोगेश्वरी में रहता था। फिर, मनोज को लिया और हम गपियाते हुए लौटे। उस दिन सड़कें सारी खाली थीं। हालाँकि, इसमें कोई बहादुरी जैसी बात नहीं है। बस, इतनी-सी बात है कि दोस्त के फँसे होने की खबर मिली तो निकल पड़े।’
इस बीच, मनोज की जिंदगी में एक और घटना हुई थी, जिसने शायद किस्मत में उनका भरोसा पक्का किया। दरअसल, ‘बैंडिट क्वीन’ की शूटिंग के बाद अश्विनी चौधरी के कहने पर मनोज दिल्ली में प्रकाश झा से मिलने पहुँचे। मनोज कहते हैं, ‘प्रकाश झा ने ‘मृत्युदंड’ में मुझे बड़ा रोल ऑफर किया। मैंने सोचा कि मैं मुंबई शिफ्ट होने की सोच ही रहा था कि ऑफर मिल गया।
‘अब आएगा मज़ा’ से मनोज का पत्ता साफ हुआ तो मनोज प्रकाश झा से दोबारा मिलने पहुँचे लेकिन प्रकाश झा ने मनोज को टके-सा जवाब दे दिया। मनोज कहते हैं, ‘मैं प्रकाश झा से मिलने पहुँचा तो मुझे महसूस हुआ कि मैं वो रोल भी खो चुका हूँ।” मनोज अब इस वाकये को बहुत शालीनता से बताते हैं, लेकिन उस वक्त प्रकाश झा से उनकी जिस तरह बातचीत हुई, उसने मनोज को हिलाकर रख दिया था। मनोज के दोस्त अनीश रंजन कहते है, ‘मनोज जब प्रकाश झा से मिलकर आया तो उसने मुझे घटना बताई थी। मनोज उनके दफ्तर पहुँचा तो बिल्डिंग के नीचे प्रकाश झा खड़े थे। उनके साथ कुछ और लोग थे। मनोज ने उनसे कहा कि वो दो मिनट उनसे बातचीत करना चाहता है। प्रकाश झा ने बड़े रुखे से जवाब देते हुए कहा-क्या आपसे बातचीत करने के लिए मैं खंडाला चलूँ।’ इस कटाक्ष का दिल पर लगना लाज़िमी था। अनुराग कश्यप ने मुझे बताया, ‘जब मैं पहली बार मुंबई में मनोज बाजपेयी से मिला, तब वह अपने दो-तीन ख़ास दोस्तों को यही किस्सा सुना रहे थे।’ मनोज प्रकाश झा के रवैये से बहुत दुखी हुए थे। मैंने इस वाकये के विषय में प्रकाश झा से पूछा तो उन्होंने कहा, ‘मुझे याद नहीं है। लेकिन, निश्चित रूप से मुलाकात हुई होगी। आदर्श नगर में मेरा ऑफिस था तो सब लोग आते ही थे। उस वक्त किसी की प्रतिभा को नहीं पहचाना तो मैं क्या कह सकता हूँ। यही कह सकता हूँ कि भइया गलती हो गई, माफ करो।’ ये अलग बात है कि बाद में मनोज बाजपेयी और प्रकाश के बीच गहरे कामकाजी संबंध बने और दोनों ने राजनीति, चक्रव्यूह, आरक्षण और सत्याग्रह जैसी फिल्में साथ कीं।
बहरहाल, मनोज मुंबई पहुँचे और अंधेरी के पास डीएन नगर में एक घर किराए पर लिया। उन्हें और सौरभ शुक्ला को यहाँ रहना था। सौरभ मनोज के मुंबई पहुँचने के कुछ दिन बाद आए। सौरभ शुक्ला ने मुझे बताया, ‘दूसरी मंजिल पर बहुत हवादार कमरा था। लेकिन जब मैं पहुँचा तो बड़ा झटका लगा । आठ बाई आठ का एक कमरा और लगभग उतना ही बड़ा किचन। बस। किराया दो हजार रूपए । मैं दिल्ली के तिमारपुर में एक बड़े घर में रहता था, जिसका किराया सिर्फ 1200 रूपए था। मैंने मनोज से कहा कि यार ये बहुत महँगा है मनोज ने कहा कि मुंबई में ऐसे ही मिलता है। मैं पच्चीस हजार रूपए लेकर मुंबई गया था। मैंने बारह हजार रूपए मनोज को दे दिए। मनोज ने भी बारह हज़ार रूपए मिलाए और हमने पूरे साल का किराया एक साथ दे दिया।’
मुंबई में अपना ठिकाना भी एक उपलब्धि होती है। मनोज और सौरभ के मन में भी यही ख़्याल था कि उन्होंने एक बड़ा तीर मार लिया है। दोनों दोस्त ज़रूरी सामान लाने में जुट गए। डीएन नगर बाजार से गद्दे, चटाइयाँ और बर्तन वगैरह ख़रीदे गए।
मुंबई के शुरुआती दिनों में निर्देशकों से मिलने के लिए उन्हें फोन करना, यदा-कदा ऑडिशन देना और बड़े निर्देशकों के सहायकों को तस्वीरें देना, यही काम था। एक सस्ता पोर्टफोलिया भी मनोज ने बनवाया लेकिन अधिकांश बार सहायक निर्देशक ही तस्वीरें लेकर कूड़े के डिब्बे में फेंक देते थे। उस वक्त अव्वल तो काम मिलता नहीं था, और मिल भी जाए परवान नहीं चढ़ता था। एक बार हद हो गई, जब मनोज को एक ही दिन में तीन जगह से न सुनने को मिली। मनोज कहते हैं, ‘सारा दाँव उल्टा पड़ रहा था। उन दिनों कास्टिंग डायरेक्टर्स नहीं हुआ करते थे। हम कलाकार सैट पर जाकर सहायक निर्देशकों से दोस्ती गांठा करते थे ताकि कुछ काम मिल सके। इसी तरह मुझे एक सीरियल मिला। शूटिंग पर पहले दिन मैंने जैसे ही पहला शॉट दिया तो कैमरे के सामने खड़े सारे लोग अचानक लापता हो गए। मेरे हिसाब से शॉट अच्छा था, लेकिन कोई बताने वाला नहीं था। कमरे में मैं अकेला था। थोड़ी देर बाद एक सहायक निर्देशक आया और बोला कि आप कास्ट्यूम रूम में जाकर कपड़े बदल लीजिए। मैडम को आपका काम पसंद नहीं आया। मैं वहाँ गया तो कॉस्ट्यूम दादा ने मेरा दर्द समझा और बोले-अरे, अमिताभ बच्चन के साथ भी ऐसा ही हुआ था। निराश मत होना वगैरह-वगैरह। मैंने अपना बैग उठाया और निकल लिया। ये बहुत अजीब और शर्मसार करने वाला था क्योंकि ऐसा लग रहा था कि किसी एक्टर को पहले टेक के बाद ही निकाल दिया गया। वहाँ से मन बहलाने के लिए मैं दूसरी जगह गया, जहाँ दो दिन बाद मुझे एक डॉक्यू ड्रामा के शूट पर जाना था। वहाँ पहुँचा तो देखा कि मेरी जगह कोई और शूट कर रहा है। बताया गया कि दूसरा एक्टर पसंद आ गया तो उसे ले लिया। मजे की बात ये कि शूटिंग दो दिन बाद थी, लेकिन मुझे किसी ने बताना तक जरूरी नहीं समझा था। मैं लौटकर अपने कमरे में आया और फिर पैसे लेकर पीसीओ गया। मैंने उस बंदे को फोन किया, जिसने एक रोल देने का वादा किया था। वो फोन पर बोला- यार, क्या है कि हमें थोड़ा लंबा लड़का चाहिए था तो किसी दूसरे को ले लिया है। तुझे कोई रोल देते हैं जल्दी। इस तरह एक दिन में तीन जगह से मैं निकाला गया।”
मनोज को न केवल हर मोड़ पर उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा था बल्कि अपनी लंबाई, वजन, सेक्स अपील की कमी और व्यक्तित्व में करिश्मा न होने जैसे ताने भी सुनने पड़ रहे थे। मनोज कहते हैं, ‘मेरे थिएटर के अनुभव की यहाँ कोई कीमत ही नहीं थी। मैं हैरान था कि निर्माता-निर्देशकों को एक अनुभवी अभिनेता और एक नए-नवेले अभिनेता में फर्क की कोई ज़रुरत नहीं थी।’
एक संघर्षरत अभिनेता की जिंदगी जैसी होती है, मुंबई में मनोज की जिंदगी वैसी ही थी। हाँ, जेब का बिलकुल ख़ाली होना इस संघर्ष को हद दर्जे तक असहनीय बना रहा था। उत्तर भारतीयों को कुछ अवसरों पर मुंबई में जिस तरह दबंगों की दबंगई का सामना करना पड़ता है, मनोज उससे भी अछूते नहीं रहे।
निश्चित रूप से मनोज के लिए यह वक्त त्रासद था क्योंकि जिस व्यक्ति को मुंबई में छोटे-छोटे काम के लिए दर-दर भटकना पड़ रहा था, वो दिल्ली रंगमंच का सितारा रहा था। इसके अलावा, शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन का अनुभव भी मिल चुका था। हाँ, ‘बैंडिट क्वीन’ भारत में रिलीज़ नहीं हो पा रही थी, लिहाज़ा मनोज के काम से ज़्यादातर लोग वाकिफ नहीं थे। मनोज संघर्ष के उन दिनों को याद करते हुए एक इंटरव्यू में कहते हैं, ‘सुबह ब्रश करके निकले तो सोचना शुरू कर देते थे कि नाश्ता कहाँ करेंगे। अमूमन नाश्ता नहीं हो पाता था। कभी किसी फिल्म के सेट पर पहुँचा और वहाँ कोई स्पॉट बॉय या प्रोडक्शन का बंदा जान-पहचान का निकल आया तो ज़रूर कहता कि खाना खा के जाना। अशोक मेहता बहुत बड़े कैमरामैन हैं। वो ‘बैंडिट क्वीन’ में साथ रहे थे तो उनकी फिल्म के सेट पर अक्सर चला जाता था। वह जानते थे कि भूखा आया है तो खाना खिला देते थे। कितनी बार पैदल चलते-चलते ही घर से गोरेगांव पहुँच जाता था क्योंकि ऑटो या बस के पैसे नहीं होते थे जेब में।” इस बीच, कमरे पर विजय कृष्ण आचार्य (‘धूम’ के निर्देशक) और जितेन्द्र शास्त्री भी आ चुके थे। एक से भले दो लोग अब चार हो गए थे।
मनोज यार दोस्तों की मदद से जैसे-तैसे दिन काट रहे थे, लेकिन कोई भी ऐसा ब्रेक नहीं दिला पा रहा था कि ज़िंदगी में बड़ा बदलाव हो। छोटी-मोटी भूमिकाओं से कुछ हुआ नहीं। पंकज पाराशर के ‘अब आएगा मज़ा’ सीरियल के चलते मनोज और विनीत गोविंद निहलानी की नज़र में आए थे तो दोनों को ‘द्रोहकाल’ में काम मिला। ये अलग बात है कि विनीत कुमार को बहुत बड़ी भूमिका मिली और इस फिल्म से रूपहले पर्दे पर उनका शानदार पदार्पण हुआ, जबकि मनोज को सिर्फ दो मिनट की भूमिका मिली। ‘द्रोहकाल’ से मनोज को कुछ हासिल नहीं हुआ था। सिवाय इसके कि ‘द्रोहकाल’ के पहले ही दृश्य में मनोज अपने दो बेहद पसंदीदा अभिनेताओं के साथ एक फ्रेम में थे। ये अभिनेता थे ओम पुरी और नसीरुद्दीन शाह। मनोज कहते हैं, ‘अपनी थिएटर मंडली में हम केवल दो लोगों के बारे में बात करते थे। नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी। अपनी अभिनय कला को संवारने के लिए उनके पास भले कोई संदर्भ नहीं रहा हो, हमने अपनी अभिनय कला उनकी अदाकारी देखकर सीखी। हमारे तो वे ही डि नीरो और अल पचिनो थे, जिनकी हमें ज़रूरत थी।
इसी दौर में मनोज को दो सीरियल मिले, जो लंबे चल जाते तो उनके संघर्ष के दिन विदा हो सकते थे। एक था अनुभव सिन्हा निर्देशित ‘शिकस्त’ और दुसरा था तिग्मांशु धूलिया निर्देशित ‘हम बंबई नहीं जाएँगे’। अनुभव ने मुझे बताया, ‘मैंने जब ‘शिकस्त’ पूरा लिख लिया तब महसूस हुआ कि इसमें मनोज के लिए तो कोई रोल ही नहीं है। तब स्क्रिप्ट में बदलाव किया और गूंगे का एक रोल निर्मित किया। इस सीरियल में शम्मी कपूर, आशीष विद्यार्थी, विनीत कुमार जैसे कई कलाकार थे। शुरुआत के कुछ शो के बाद सीरियल का निर्माता बदल गया। एक दिन उस निर्माता का फोन आया कि मनोज ने सीरियल छोड़ दिया है। मैंने जैसे तैसे मनोज से संपर्क साधा तो वो बहुत गुस्सा था, रुँआसा भी। बोला- मैं सीरियल नहीं करूँगा। मैं पूछा क्या हुआ तो मालूम पड़ा कि मनोज प्रोड्यूसर से अपने किए किन्हीं दो एपिसोड के पैसे माँग रहा था और प्रोड्यूसर सिर्फ एक एपिसोड का मेहनताना दे रहा था। प्रोड्यूसर का तर्क था कि सीरियल में मनोज के पास कोई डायलॉग तो है नहीं, इसलिए पैसे कम होने चाहिए। मनोज ने बहुत गालियाँ दी प्रोड्यूसर को। मैंने बहुत मनाया लेकिन माना नहीं। मनोज ने शुरुआत के दस- ग्यारह एपिसोड ही किए। बाद में वो रोल आशुतोष राणा ने किया।’
आर्थिक अभावों में छोटी ज़रुरतें भी बड़ी लगती हैं, और छोटी-छोटी हसरतों का पूरा होना भी कितनी खुशी देता है, इससे जुड़ा एक किस्सा सौरभ शुक्ला ने सुनाया। सौरभ बताते हैं, ‘बैंडिट क्वीन के आर्ट डिपार्टमेंट में एक लड़का था। वो चार बंगला में अपने पायलट दोस्त के घर रहता था। शानदार घर था। हर कमरे में एसी था। हम हर दूसरे रोज उसके घर शाम को पार्टी करने के नाम पर पहुँचने लगे। खाना खाने का प्रोग्राम ग्यारह बारह बजे रात तक चलाते ताकि रात में एसी में सोने की जुगाड़ हो सके। उस वक्त यही बड़ा आकर्षण था।’ इसी तरह ‘हम बंबई नहीं जाएँगे’ को तिग्मांशु धूलिया ने बनाया तो उसमें मनोज बाजपेयी को जगह मिली। यह सीरियल चल जाता तो पूरा दिल्ली गैंग झटके में स्थापित हो सकता था। इस सीरियल में इरफ़ान खान, निर्मल पांडे, संजय मिश्रा, विनीत कुमार, मनोज पाहवा, बृजेन्द्र काला जैसे कई कलाकार थे। शो को बीआई टीवी ने प्रोड्यूस किया था, जिसके कर्ता-धर्ता उस वक्त शेखर कपूर थे। लेकिन, चंद दिनों में ही शेखर चैनल से विदा हो गए और सीरियल भी।
मनोज के लिए मुंबई में संघर्ष का शुरुआती दौर इतना परेशान करने वाला था कि उन्हें कई बार अपने लिए हर रास्ता बंद दिखाई देता है। पत्नी दिव्या दिल्ली में थी, तो दिल्ली आना-जाना भी लगा रहता था। इसी दौरान एक दिन दिव्या मुंबई रहने पहुँच गई। सौरभ उस वक्त घर पर मौजूद थे। उन्होंने बताया, ‘मुझे नहीं मालूम था कि मनोज की शादी में समस्याएं चल रही हैं। दिव्या आई तो उनका बहुत स्वागत हुआ। वो हम सबको जानती थी। रात में पार्टी हुई। लेकिन फिर हालात अजीब से हो गए। कमरा एक ही था। पहले दिन तो हम सब लोग “काम है-काम है” कहते हुए घर से निकल गए थे। लेकिन एक दो दिन बाद हमें लगा कि मनोज और दिव्या को स्पेस मिलनी चाहिए तो हम लोग गोरेगांव शिफ्ट हो गए।
मनोज और दिव्या कुछ दिन उसी घर में रहे और फिर चार बंगला के एक घर में शिफ्ट हो गए। ख़र्च बढ़ रहा लेकिन आमदनी नहीं। बहुत छोटे-छोटे रोल ज़िंदगी काटने के लिए काफी नहीं थे। इसी दौर में इम्यियाज़ अली के ज़रिए मनोज को ‘इम्तिहान’ सीरियल में काम मिला। इम्तियाज़ कॉलेज के वक्त मनोज के जूनियर थे और ‘एक्ट वन’ में मनोज के साथ रहे थे। लेकिन ‘इम्तिहान’ से भी मनोज की नैया पार नहीं हुई। इससे पहले, आशीष विद्यार्थी के ज़रिए मनोज हंसल मेहता से टकराए थे। हंसल मेहता ने एक सीरियल बनाया ‘कलाकार’। ‘कलाकार’ में मनोज के साथ नेटुआ नाटक में उनकी हीरोइन रहीं वर्षा अग्निहोत्री भी थीं। दुर्भाग्य से ये सीरियल भी चंद एपिसोड के बाद ठप हो गया।
इस बीच, वैवाहिक मोर्चे पर मनोज का जूझना जारी था। दिव्या मनभेद के बाद वापस दिल्ली लौट गई। ये वो वक्त था, जब मनोज बुरी तरह टूट गए थे। सौरभ शुक्ला मनोज के करीबी मित्र थे और एक दिन उन्होंने भी गौर किया कि मनोज न केवल उदास हैं, बल्कि भयंकर हताश हैं। वो मनोज को अपने गोरेगांव स्थित घर ले आए।
बड़ी बात है।’ मनोज बाजपेयी के लिए 1993 और 1994 के दो साल तो बहुत त्रासद गुज़रे। इस दौरान न उन्हें शोहरत मिल पाई, न पैसा अलबत्ता जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण रिश्ता दाँव पर लगा और आखिरकार ख़त्म हो ही गया। रिश्ता टूटने के बाद मनोज दिल्ली वापस आ गए। बेबस, बेचैन मनोज के लिए यह एक सदमा था, जिसे दिल से निकाल पाना उनके लिए असंभव हो रहा था। वे कभी खुद को दोषी मानते तो कभी उन्हें लगता कि उन्हें धोखा दिया गया है। मनोज को बार-बार यह महसूस होता था कि उन्होंने दिव्या से कुछ भी नहीं छिपाया फिर ये हालात क्यों पैदा हुए? मनोज ने अपने माँ-बाबूजी को बिना बताए शादी की थी, और तलाक के बाद वो ख़ुद को माँ-बाबूजी का भी दोषी मान रहे थे। उनके परिवार में तलाक का पहला मामला था, जिसे मनोज हज़म नहीं कर पा रहे थे। फिल्मी करियर, फिल्म के सपने कुछ दिनों के लिए धराशायी हो गए थे।
वक्त के साथ हर जख्म भर जाता है। ये मनोज बाजपेयी के साथ भी हुआ। लेकिन, ये भी सच है कि जख़्म भरने में बहुत वक्त लगा। मनोज मंडी हाऊस जाने लगे। पुराने दोस्तों ने जोश भरने की कोशिश की। कोशिश सफल हुई और मनोज फिर मुंबई जाने को तैयार हुए। दोस्तों ने गजराज राव को ज़िम्मेदारी सौंपी कि वो उन्हें ट्रेन में मुंबई छोड़ने जाएँ। गजराज राव कहते हैं ‘हम राजधानी एक्स्प्रेस में गए थे। और मुंबई में विनीत कुमार के यहाँ पहुँचे थे। मनोज मुंबई पहुँच ज़रूर गए , लेकिन कई बार ऐसा होता कि वो डिप्रेशन में दीवार पर सिर पटकने लगते। लेकिन, यह उनकी लड़ाई थी, जिसे उन्हें ख़ुद जीतना था मनोज लड़े और जीते।