‘एकमात्र सत्यजित राय…’ – ऋत्विक कुमार घटक
सत्यजित राय की जयंती पर वरिष्ठ पत्रकार और लेखक जयनारायण प्रसाद एक दुर्लभ लेख लेकर आए हैं। ये भारतीय सिनेमा का एक अनोखा दस्तावेज है.. दरअसल ये एक महान फिल्मकार द्वारा एक समकालीन महान फिल्मकार के बारे में लिखा गया आलोचनात्मक, विश्लेषणात्मक और सकारात्मक आलेख है। ये ऋत्विक घटक ने सत्यजित राय और उनकी फिल्मों के बारे में लिखा था और इसमें वो राय की फिल्मों का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए अपने आप को सत्यजित बाबू का परम भक्त भी बताते हैं। ऋत्विक घटक के उस लेख का जयनारायण प्रसाद ने न्यू डेल्ही फिल्म फाउंडेशन के लिए बांग्ला से हिंदी में अनुवाद किया है। उन्होने सत्यजित राय पर ‘एक जीनियस फिल्मकार सत्यजित राय ‘नाम से पुस्तक भी लिखी है। कला-संस्कृति-सिनेमा में विशेष रुचि रखने वाले जयनारायण प्रसाद इंडियन एक्सप्रेस समूह के अखबार जनसत्ता कलकत्ता से लगभग तीन दशकों तक जुड़े रहे हैं। सिनेमा पर उन्होने व्यापक रुप से गंभीर और तथ्यपरक लेखन किया है। गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी, गायक मन्ना डे, फिल्मकार श्याम बेनेगल, अभिनेता शम्मी कपूर से लेकर अमोल पालेकर, नसीरुद्दीन शाह और शबाना आज़मी तक से बातचीत उल्लेखनीय। जयनारायण प्रसाद ने जाने माने फिल्मकार गौतम घोष की राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त बांग्ला फिल्म ‘शंखचिल’ में अभिनय भी किया है।
पंद्रह-सोलह साल पहले, ‘पथेर पांचाली’ जब रिलीज हुई, तब बंबई में एक अति निम्न स्तरीय प्रतिष्ठान के साथ जुड़कर अति निम्न श्रेणी काम में संलग्न था। उससे पहले प्राण-मन और आर्थिक जद्दोजहद के बीच मैंने अपनी पहली फिल्म पूरी की। फिर, सेंसर का प्रमाणपत्र मिल जाने के बाद उसे रिलीज ना करा सकने की गहरी हताशा के बीच बंबई में एक अहंकार में जी रहा था।
ऐसे समय में कानाफूसी के जरिए खबर मिली कलकत्ता में ‘पथेर पांचाली’ फिल्म रिलीज हो गई है और जिनके विचारों की मैं श्रद्धा करता हूं उनसे पता चला यह फिल्म नहीं जैसे कोई बड़ी घटना हो।
‘पथेर पांचाली’ फिल्म जब सत्यजित बाबू बना रहे थे, तब मैं भी अपनी पहली फिल्म पूरी कर लेबोरोटरी में काम कर रहा था। मेरा और उनका यानी हम दोनों का काम एक ही लेबोरोटरी में चल रहा था। काम करते हुए छोटी-मोटी खबर उड़ती हुई मेरे कानों में भी पड़ती। दरअसल, उनकी टीम भी बाहर से काम कराने की कोशिश कर रही थी, इसलिए मुझमें भी उनके प्रति थोड़ी जिज्ञासा थी।
उसके बाद मेरी फिल्म पूरी हुई, सेंसर भी हुआ। फिर, विपर्यय ! एक गहरी हताशा के बीच बंबई में नौकरी पाना और फिर उसे छोड़कर चले आना।
इसके बावजूद वह नेक इंसान काफी तकलीफ और लांछन के मध्य अपनी फिल्म पूरी करने में जुटा था। यह खबर भी मुझे मिलती रहती। काम करते हुए एक रोज पता चला उनकी फिल्म रिलीज हो गई है और एक विप्लव-सा हो गया है। इस सूचना से मैं काफी आनंदित हुआ और बहुत आश्चर्यचकित भी !
आनंदित इसलिए कि अगर परस्पर के काम को समझते हुए और सटीक संपर्क-पथ को लांघते हुए मनुष्य के सामने गंभीर कोशिश को दिखलाया जाए, तो चीजें बदल सकती हैं।
और आश्चर्य इसलिए कि उस नेक इंसान को, जिससे परिचय न रहते हुए भी उसे जितना सुना, देखा और समझा था उससे ऐसा नहीं लगा था विभूति भूषण बंद्योपाध्याय की एक अनूठी ग्रामीण रूपकथा को बेहद मर्म के साथ वह सही-सही सिनेमा में उतार पाएगा। कारण उसका संसार जितना मैं जानता था, अपू के जगत से एकदम भिन्न था।
उसके बाद ही किसी घटनाक्रम के चलते मेरा कलकत्ता आना हुआ और फिल्म देखी। एक दफा नहीं, लगातार सात बार। चकित रह गया ! मेरा संदेह एकदम से काल्पनिक था। जहां-तहां विभिन्न तरह की आपत्तियों के बावजूद कुल-मिलाकर मेरी आंखों के सामने अपू और दुर्गा जीवंत हो उठा – दोनों जैसे खिल उठे।
याद है, तब दोस्तों के साथ बहस करते हुए बार-बार एक ही बात दोहराता। हर बार कहता कि ‘पथेर पांचाली’ में ऐसा कुछ नहीं है जिसे हमने हजार दफा सोचा ना हो या ऐसा सपना देखा ना हो, लेकिन उन्होंने काफी मेहनत से ऐसा काम कर दिया, जो एक विप्लव की तरह है। यह ऐसा विप्लव है, जिसने उसे इस नवयुग के सृष्टा-आसन पर बिठा दिया। इस आसन से उसे कोई भी – कभी भी हटा नहीं सकता !
फिल्म ‘पथेर पांचाली’ की एक-दो छोटी छोटी बातें बताना यहां अप्रासंगिक नहीं होगा। जैसे फिल्म में बूढ़ी इंदिर ठाकुरन का अध्याय। इस फिल्म में मृत अवस्था में इंदिर ठाकुरन के बैठे रहने वाले दृश्य को अगर छोड़ दिया जाए, तो खंडित रूप से कह सकता हूं भारतीय चलचित्र इतिहास में इससे बेहतर सिनेमा आज तक किसी ने नहीं बनाया।
बूढ़ी इंदिर ठाकुरन असल में संपूर्ण ग्राम्य बांग्ला की आत्मा है। वह ग्राम्य बांग्ला की प्रतीक है। ‘पथेर पांचाली’ फिल्म का एक-एक दृश्य मेरा पीछा करते हुए प्रतीत होता है। इस फिल्म के एक दृश्य में जहां वह बूढ़ी इंदिर ठाकुरन धरती पर गिरे हुए सूखे नारियल के डाल को टानते-टानते घर की तरफ आती है, तभी सर्वजया का कर्कश स्वर सुनकर सबसे वह पूछती है – ‘हुआ क्या है ?’
कोई उस बुढ़िया को इसका जवाब नहीं देता।
‘धत् तेरे की’ कहकर बुढ़िया आगे बढ़ जाती है। यह दृश्य बार-बार मुझे झकझोरता है – एक सपना की तरह आता है मेरी चेतना में और प्रहार करता है। फिल्म के इस दृश्य ने जीवन की एक गहरी सच्चाई जैसे उद्घाटित कर दिया है। पता नहीं कैसे ! ‘पथेर पांचाली’ का यह दृश्य मुझे एक ‘बड़ी उपल्ब्धि’ जान पड़ता है। याद आता है इस फिल्म में ऐसे और भी अनेक दृश्य है।
लेकिन, ‘पथेर पांचाली’ में उस बुढ़िया (इंदिर ठाकुरन) की मृत्यु का दृश्य मुझे अच्छा नहीं लगता। सच कहूं तो बुढ़िया का जब देहांत होता है और उसकी मृत्यु का ‘आविष्कार’ जब अपू-दुर्गा करते हैं, तब लगता है यह ‘पथेर पांचाली’ का बेहतरीन दृश्य है। इस दृश्य को देखने पर ऐसा जान पड़ता है जैसे ‘किसी महान विदेशी फिल्म की छाया’ से हमारा सामना हो रहा हो।
याददाश्त को थोड़ा और पीछे ले जाता हूं, तो काश फूलों के वन के पास जब अपू और दुर्गा ट्रेन देखने जाते हैं, यह एक मार्मिक दृश्य है। फिल्म ‘पथेर पांचाली’ का यह दृश्य अद्भुत है और मन को स्पर्श करता है। इस फिल्म का एक और खूबसूरत सीन है जब मिठाई वाला अपने कंधे पर बंहगी रखकर मिठाई बेचने जाता है। यह दृश्य भी हमारे मन को छूता है।
‘पथेर पांचाली’ का वह दृश्य भी अपूर्व लगता है, जब पाठशाला में परचून की दुकान चलाने वाला शिक्षक बेंत दिखाता है। यह दृश्य स्निग्ध भी है और मधुर भी ! ये चंद ऐसे सीन हैं, जो ‘परम सत्य’ जैसे लगते हैं।
इसी तरह, फिल्म में दुर्गा की मृत्यु का दृश्य या कानू बनर्जी जब अपनी बेटी की मृत्यु की खबर पाकर विह्वल-सा हो जाता है या करुणा बनर्जी के रुदन वाले दृश्य में शहनाई बजने का इस्तेमाल ‘पथेर पांचाली’ को खास बनाता है। ये सब फिल्म के बेहतरीन शाट्स हैं।
उसी तरह मंत्र-मुग्ध करने वाली बांसुरी और ‘पथेर पांचाली’ का थीम म्यूजिक बहुत चाक्षुष-सा लगता है। इसकी अनुगूंज हमारे कानों को झंकृत करती है। देखा जाए तो ‘पथेर पांचाली’ का थीम म्यूजिक इस फिल्म का प्राण है।
प्रसंगवश, यहां कहना जरूरी है कि यह ट्यून (स्वर) उनकी ‘अपराजितो’ फिल्म में मात्र एक बार तब बजता है, जब सर्वजया ट्रेन में बेटा अपू को लेकर काशी से अपने घर बंगाल लौट रही हैं। खिड़की से झांकने पर जब ट्रेन बंगाल में प्रवेश करती होती है, ठीक तभी यह ट्यून बज उठता है। लगता है अणु बम विस्फोट हुआ है।
मानो बंगाल की समूची हरीतिमा हठात् हृदय में प्रवेश कर गई हो। इसका कारण है ‘पथेर पांचाली’ में इस ट्यून का सही जगह पर इस्तेमाल होना। लगता है निश्चिंदीपुर और बंगाल आंगिक रूप से एक-दूसरे में प्रवेश कर गया है। इस दृश्य को देखने पर मेरी दोनों आंखों से आंसू टपक पड़ते हैं।
पर, एक बात कहना चाहता हूं। ‘पथेर पांचाली’ का अंत मुझे अच्छा नहीं लगा। बेहद नासमझी पूर्ण ढंग से, लगता है इसका अंत किया गया है। मूल उपन्यास में जो स्वर उभरता है, वह फिल्म में नहीं है। मेरी धारणा है सत्यजित बाबू को इस पर दूसरे ढंग से सोचना चाहिए था।
जो भी हो, सत्यजित बाबू के शिल्पकर्म को लेकर यह आलोचना नहीं है। उनकी ‘पथेर पांचाली’ हम लोगों को या मेरी ज्ञान-पिपासा को कैसे संतुष्ट करती है, इसका लाक्षणिक बखान भर है यह ! ज्यादा रोशनी डालना इस पर उपयुक्त नहीं है।
‘अपराजितो’ फिल्म जब बन रही थी, तब मैं कलकत्ता वापस आ गया था और फिल्म निर्माण में जुट गया था। इस बीच, सत्यजित बाबू से मेरा ठीक-ठाक परिचय भी हो गया था। मेरे हिसाब से ‘अपराजितो’ उनकी श्रेष्ठ कृति है। इसमें उनकी उत्कृष्टता की छाप झलकती है। ‘पथेर पांचाली’ या फिर उनकी दूसरी फिल्मों से ‘अपराजितो’ में वे ऊंचे दिखते हैं। उनकी ‘कंचनजंघा’ फिल्म को ध्यान में रखकर ही बोल रहा हूं। मेरे हिसाब से ‘कंचनजंघा’ सत्यजित बाबू की दूसरी श्रेष्ठ फिल्म है।
उसके बाद सत्यजित बाबू की अनेक फिल्में मैंने देखीं। यद्यपि उनकी सभी फिल्में मैंने नहीं देखी हैं। ‘अपूर संसार’ भी देखा, पर मुझे अच्छी नहीं लगी। इसमें बहू की मृत्यु की खबर सुनकर साला को घूसा मारने वाले दृश्य को छोड़ ही देता हूं।
‘अपूर संसार’ में एकदम आखिर का दृश्य मुझे लगता है, यह अत्यंत भयावह है। विभूति भूषण बंद्योपाध्याय के ‘अपराजितो’ पुस्तक के अंतिम आठ-दस पेज पढ़ने से बहुत लोग इसकी भयावहता का अंदाजा लगा सकते हैं। ऐसा लगता है, इसमें बहुत सारे दृश्य अवश्यंभावी और जरूरी थे। और इसका अंतिम वाक्य – ‘अपू निश्चिंदीपुर छोड़कर गया नहीं। वह फिर लौटकर आएगा।’ इस पुस्तक का प्राण-मर्म लगता है यहीं था।
सत्यजित बाबू की कुछ फिल्में जो मैंने देखी हैं, उनमें कुछ जगह मुझे बेजुबां हो जाना पड़ा था। यद्यपि मैं खुद भिन्न किस्म के जीवन-दर्शन में विश्वास रखता हूं। और फिल्म बनाने का मेरा तरीका भी थोड़ा अलग प्रकृति का है। फिर भी सत्यजित बाबू की कृतियों को देखने पर वे विराट प्रतिभा के इंसान लगे। उनकी फिल्में मुझे अनेक जगहों पर अचंभित कर देती हैं।
उनके बारे में सबसे ज्यादा जो कुछ मुझे महसूस होता है वह है सत्यजित बाबू में प्रचंड ऊर्जा-शक्ति के साथ दुर्बलता का होना। ऐसे में यह उम्मीद करना बेमानी है कि सभी कार्य समान रूप से बेहतर होगा। फिर भी, मुझे जाने क्यों लगता है वे अपनी चिंतन- धारा को बहुमुखी बनाने से बच सकते थे। यह सब उनके एक परम भक्त की तरह ही बोल रहा हूं। मुझे लगता है इससे उनकी ऊर्जा का अपचय ही हुआ है। मेरी यह धारणा गलत भी हो सकती है।
एक फिल्मकार या फिल्म बनाने वाले की हैसियत से यह मैं नहीं बोल रहा हूं। एक शिल्प-प्रेमी के नाते यह कह रहा हूं। मैं फिल्म बनाऊं या नहीं, लेकिन फिल्म-कला के बारे में प्राणपण से सोचता हूं और सोचने की कोशिश भी करता हूं।
मैं जो इतना कुछ बोल रहा हूं, उसकी वजह है। कारण हिंदुस्तान में सिनेमा-माध्यम को अगर कोई समझता है, तो वह एकमात्र सत्यजित राय है। मुझे लगता है घिस-घिसा एक, पढ़ा-लिखा कर, रगड़-रगड़ कर एक स्तर तक पहुंचा जा सकता है। यह भी हो सकता है निबंधकार या स्कूल मास्टर तक के स्तर को पार कर एक शिल्पी के तौर पर भी उसे रूपांतरित किया जा सकता है। लेकिन, श्रेष्ठ शिल्पी होने के लिए दूसरी तरह के इल्म की जरूरत पड़ती है।
देश-विदेश में नई धारा की फिल्म देखकर, पढ़-लिख कर उसकी आलोचना करते हुए पांडित्य हासिल की जा सकती है, लेकिन उस्ताद नहीं बना जा सकता। समय-समय पर हो सकता है लोगों की हाथताली भी मिल जाएं, किंतु किसी खांटी समझदार व्यक्ति को चोरी पकड़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। पढ़ाई कर, सिनेमा देखकर, उस पर बहस कर, परिश्रम कर, सभी तरह की तैयारी के साथ एकाग्रता अपरिहार्य है। लेकिन, सच्चा शिल्पी बनना असंभव है।
इसके ऊपर जाना तो एकदम से दूसरा मामला है। जैसे क्लास करके रवींद्रनाथ ठाकुर नहीं बना जा सकता – स्कूल मास्टर बना जा सकता है। जैसे आर्ट स्कूल में रगड़-रगड़ कर किसी को पिकासो नहीं बना सकते। जैसे उस्ताद करीम खां की सभी शिष्याएं हीराबाई बडोदकर नहीं बन सकतीं। कुछ ऐसा है, जो यह जन्म-लग्न से चलता आया है। वह क्या है इस पर भविष्य में कभी लिखने की इच्छा है। इस समय उस पर लिखना ठीक नहीं, कारण यह गंभीर चिंतन और ध्यान-योग का मामला है !
सत्यजित बाबू में ऐसा विशेष कुछ है, जो उनके शुरुआती काम-काज में अच्छी तरह देखा जा सकता है।
(पहली बार प्रकाशित : सिने टेक्निक, सत्यजित राय अंक, जून 1972; पुनर्मुद्रण : नंदन, जुलाई 1992)