अरब डायरी 2024 (4): बांग्लादेश के मकसूद हुसैन की फिल्म ‘सबा’ की विकलांग सच्चाई

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सऊदी अरब के जेद्दा में आयोजित चौथे रेड सी अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के प्रतियोगिता खंड में बांग्लादेश के मकसूद हुसैन की फिल्म ‘सबा’ की बड़ी चर्चा है। इसी साल बांग्लादेश में हुए सांप्रदायिक दंगों की छाया में यह फिल्म देश की अंतहीन गरीबी और जीवन संघर्षों की कई अनकही कहानियां सामने लाती है।  पूरी फिल्म यूरोपीय नव यथार्थवादी ढांचे में बनी है। जमाने के बाद विश्व सिनेमा में किसी ऐसी बांग्लादेशी फिल्म ने दस्तक दी है जो दूर तलक जाएगी।

           बांग्लादेश की राजधानी ढाका की एक निम्नवर्गीय बस्ती के जनता फ्लैट में रहनेवाली पच्चीस साल की अनव्याही लड़की सबा करीमी (महजबीन चौधरी)  के दुःखों का कोई अंत नहीं है। पैसे की कमी के कारण उसकी पढ़ाई छूट चुकी है। उसका पिता सबको भगवान भरोसे छोड़ कर नॉर्वे भाग चुका है। वह उस छोटे से जनता फ्लैट में अपनी बीमार मां शीरीन (रुकैया प्राची) के साथ रहती है। दिल की मरीज उसकी मां को कमर के नीचे लकवा मार गया है।  यह एक अजीबोगरीब स्थिति है कि एक ही फ्लैट में दो औरतें कैद हैं। शीरीन शारीरिक रूप से कैद हैं क्योंकि वह अपने से हिल डुल भी नहीं सकती जबकि उसकी बेटी सबा भावनात्मक रूप से कैद हैं क्योंकि वह अपनी मां को अकेले मरता हुआ नहीं छोड़ सकती। कई बार दोनों औरतों की ऊब और निराशा एक दूसरे पर भारी पड़ती है। बिस्तर पर पड़ने के बाद से शीरीन ने बाहर की दुनिया नहीं देखी हैं। दोनों के लिए यह कैद जानलेवा है।

सबा को घर चलाने के लिए ढाका के एक हुक्का बार में नौकरी करनी पड़ती है। पहले तो मैनेजर अंकुर उसे नौकरी देने से इंकार कर देता है क्योंकि एक तो उस बार में लड़कियां काम नहीं करतीं, दूसरे बार में देर रात तक कोई लड़की कैसे काम कर सकती है। धीरे-धीरे सबा बार मैनेजर अंकुर से दोस्ती कर लेती है ताकि वह उसे काम के बीच एक घंटे के लिए घर जाकर मां की देखभाल के लिए छुट्टी दे दे। वह बीच में भागती-दौड़ती घर आती हैं और अपनी मां का डायपर बदलती है। दवा और खाना देती है और दरवाजा बंद करके ड्यूटी पर आ जाती है। उदासी, ऊब और लाचारी में उसकी आखिरी उम्मीद अंकुर है जो किसी तरह पैसा जमा कर फ्रांस भाग जाना चाहता है। वह अक्सर बार से कुछ चीजें चुरा लेता है। वह सबा मे दिलचस्पी लेने लगता है क्योंकि उसकी पत्नी कैंसर से मर चुकी है और वह अकेला है। पर साबा के जीवन में इन सबके लिए कोई जगह नहीं है।

Mehazabien Chowdhury at an event for ‘Saba

एक दिन शीरीन की सांस रूकने लगती है। अस्पताल में डॉक्टर आपरेशन की सलाह देते हैं। ऑपरेशन के लिए एक लाख रुपए एडवांस जमा कराना है। सबा की मुश्किल है कि इतने रुपए कहां से लाए। वह अपने एक रिश्तेदार के यहां अपना फ्लैट गिरवी रखने की कोशिश करती है। पता चलता है कि उसके पिता ने किसी को पहले ही वह फ्लैट बेच दिया है। एक नाटकीय घटनाक्रम में सबा चोरी की बात बार के मालिक को बता देती हैं जिसके बदले में वह उसे एक लाख रुपए एडवांस दे देता है। यह एक त्रासद स्थिति है कि सबा को अपनी मां की जान बचाने के लिए अपने प्रेमी को पकड़वाना पड़ता है। उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है।  उसका तीन महीने का वेतन रोक लिया जाता है और इस तरह फ्रांस जाने का सपना अधूरा रह जाता है।

Maksud Hossain Director of the film Saba

              मकसूद हुसैन ने ढाका के निम्नमध्यवर्गीय जीवन का चित्रण बहुत गहराई से किया है। एक दृश्य में साबा और अंकुर घर और दफ्तर की दमघोंटू दुनिया से भागकर ढाका के फ्लाईओवर पर खुली हवा में बीयर पी रहे होते हैं कि तभी पुलिस आ जाती है। अंकुर जैसे तैसे पुलिस को रिश्वत देकर मामला सुलझाता है। दूसरे दृश्य में सबा अंकुर की मदद से अपनी मां को उठाकर एक पार्क में लाती है। उसकी मां पहली बार घर से बाहर की खुली हवा में सांस लेती है। पर वह अंकुर को पसंद नहीं करती। उसे लगता है कि वह सबा का फायदा उठाकर एक दिन भाग जाएगा। इसी वजह से जब सबा अंकुर को खाने पर घर बुलाती है तो उसकी मां उसे बेइज्जत कर देती है।  फिल्म बताती है कि गरीबी सबसे बड़ा अभिशाप है।
           मकसूद हुसैन ने फिल्म में प्रकट हिंसा कहीं नहीं दिखायी है लेकिन वातावरण में हर पल हिंसा की आहट सुनाई देती है। एक एक दृश्य को यथार्थवादी ढांचे में फिल्माया गया है। सबा की भूमिका में महज़बीन चौधरी ने बेमिसाल काम किया है। अंतिम दृश्य में सारे झंझावातों के बाद जब सबा की मां शीरीन अस्पताल जाने से मना कर देती है, क्योंकि वह अपने घर में आखिरी सांस लेना चाहती है तो सबा दोबारा अंकुर के घर जाती है। दोनों का सामना होता है और एक अंतहीन मौन सब-कुछ कह देता है।

    सबा फिल्म में कोई राजनीतिक टिप्पणी नहीं है, पर देश की गरीबी और लाचारी की विकलांग सच्चाई है। शीरीन की विकलांगता जैसे पूरे समाज के विकलांग होने का प्रतीक बन गई है। सबा की उम्मीद में भी नियति का ग्रहण लग चुका है। इसके बावजूद वह अपनी मेहनत और ईमानदारी के बल बूते जिंदगी की जंग लड़ रही है।