

श्याम बेनेगल का सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि भारतीय समाज की हलचलों और संवैधानिक मूल्यों का एक जीवंत साक्ष्य है। यह लेख उस महान निर्देशक की सहजता, उनके सिनेमाई दर्शन और फ़िल्म निर्माण को एक ‘नैतिक चुनाव’ मानने की उनकी अटूट प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है। सत्यजीत रे की परंपरा से लेकर भारतीय संविधान की गहरी समझ तक, श्याम बाबू का विज़न तकनीक से ऊपर संवेदना को प्राथमिकता देता था। उनके जाने के साथ उस सिनेमाई युग का एक महत्वपूर्ण अध्याय समाप्त हुआ है जहाँ फ़िल्में शोर नहीं करती थीं, बल्कि गहरे अर्थ और लोकतांत्रिक गरिमा के साथ समाज से संवाद करती थीं। डॉ मनीष कुमार जैसल द्वारा श्याम बेनेगल की प्रथम पुण्यतिथि के मौके पर लिखा यह श्रद्धांजलि लेख उनके अंतिम संवादों के ज़रिए उनकी कालजयी विरासत को संजोने का एक प्रयास है।
डॉ. मनीष कुमार जैसल मीडिया, सिनेमा और संचार अध्ययन के अध्यापक, लेखक और प्रशिक्षक हैं। वर्तमान में वे आईटीएम विश्वविद्यालय, ग्वालियर में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के प्रमुख के रूप में कार्यरत हैं। उन्होंने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से फिल्म व नाट्य अध्ययन में पीएचडी और एमफिल की उपाधि प्राप्त की है, साथ ही जनसंचार एवं पत्रकारिता, समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर अध्ययन किया है। उनकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि में इलेक्ट्रॉनिक्स में स्नातक, भारतीय एवं पाश्चात्य कला-सौंदर्यशास्त्र, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया–फिल्म निर्माण और ग्रामीण विकास में पीजी डिप्लोमा भी शामिल है। मीडिया ट्रेनर के रूप में वे देशभर में 100 से अधिक FactShala सत्रों के माध्यम से छात्रों, महिलाओं, ट्रांसजेंडर समुदाय और ग्रामीण समूहों के साथ काम कर चुके हैं। विकास संवाद, भोपाल तथा मध्य प्रदेश सरकार के महिला–बाल विकास विभाग के साथ वे स्टोरीटेलिंग और संचार पर आधारित प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित करते रहे हैं। उनकी पुस्तकों में फ़िल्मों का अंजुमन: मुज़फ़्फ़र अली, फ़िल्म सेंसरशिप के सौ वर्ष (भाग 1–2), पूर्वोत्तर राज्यों की सिने संस्कृति और राजनीति तथा हाल में प्रकाशित हिंदी सिनेमा में संविधान के मूल्य शामिल हैं। अकादमिक कार्यों के साथ-साथ वे जनसत्ता, पत्रिका, अमर उजाला और सुबह सवेरे जैसे अखबार के लिए नियमित लेखन करते हैं।
फिल्मकार स्वर्गीय श्याम बेनेगल को याद करना उस दौर को याद करना है, जब सिनेमा अपने समय से आँख मिलाकर बात करता था। जब परदे पर दिखाई देने वाली कहानी सिर्फ़ मनोरंजन नहीं होती थी, बल्कि समाज के भीतर चल रही हलचलों का साक्ष्य भी होती थी। श्याम बेनेगल का जाना उस सिनेमा का जाना है, जो शोर नहीं करता था, लेकिन बहुत गहराई से असर छोड़ता था।
उनसे बातचीत करते हुए कभी ऐसा नहीं लगा कि सामने कोई ‘महान निर्देशक’ बैठा है। वे सहज थे, ठहरे हुए थे, और सबसे ज़्यादा ध्यान से सुनने वाले व्यक्ति थे। सिनेमा पर उनकी बातें किसी सिद्धांत की तरह नहीं आती थीं, बल्कि जीवन से उपजी हुई लगती थीं। वे बार-बार इस बात पर लौटते थे कि फ़िल्म बनाना तकनीक या व्यवसाय से पहले एक नैतिक चुनाव है।
पिछले वर्ष उनके कार्यालय में बातचीत का अवसर मिला था। उम्र और बीमारी की थकान उनके शरीर पर साफ़ दिखाई देती थी, लेकिन सिनेमा का ज़िक्र आते ही उनकी आँखों में एक अलग ही चमक उभर आती थी। शब्द बोलने से पहले वे पल भर रुकते, साँस सँभालते, लेकिन जैसे ही बात फ़िल्म, समाज या संविधान की ओर मुड़ती, उनकी आवाज़ में दृढ़ता लौट आती । उस बातचीत के दौरान बार-बार यह महसूस हुआ कि सामने बैठा व्यक्ति अपने जीवन की अंतिम पारी में नहीं, बल्कि अपने सबसे ईमानदार संवाद के दौर में है।

करीब से जानने पर यह और स्पष्ट हुआ कि श्याम बेनेगल के लिए सिनेमा कभी भी केवल पेशा नहीं रहा। वह उनके जीवन की बुनियादी भाषा थी, दुनिया को समझने और समझाने का जरुरी माध्यम। बीमारी के बावजूद उनकी स्मृति उतनी ही सजग थी, संदर्भ उतने ही सटीक और दृष्टि उतनी ही व्यापक। वे बीते समय को नोस्टेलजिकली नहीं देखते थे, बल्कि वर्तमान से जोड़कर परखते थे। ऐसा लग रहा था जैसे वे जानबूझकर हर बात को दर्ज करा देना चाहते हों, इस उम्मीद में कि सिनेमा आने वाले समय में भी समाज से संवाद करता रहे।
उस बातचीत में कोई जल्दबाज़ी नहीं थी। करीब ९० मिनट में आपने न अपने काम का बखान, न उपलब्धियों का प्रदर्शन किया था । वे बहुत साधारण ढंग से कह रहे थे “कोई भी व्यक्ति कुछ भी करे, उसमें मूल्य तो होंगे ही।” यह वाक्य एक सामान्य टिप्पणी की तरह आया, लेकिन उसमें उनका पूरा सिनेमा समाया हुआ था। वे मानते थे कि सवाल यह नहीं है कि फ़िल्म में मूल्य हैं या नहीं, सवाल यह है कि फ़िल्मकार उन्हें पहचानता है या उनसे मुँह मोड़ लेता है। सिनेमा, उनके लिए, इसी चुनाव का नाम था।
श्याम बेनेगल से बात करते हुए यह भी समझ में आता था कि वे सिनेमा को किसी ऊँचे आसन पर बैठकर नहीं देखते थे। वे उसे समाज के बीच खड़े होकर समझते थे उस समाज के साथ, जो लगातार बदल रहा है, संघर्ष कर रहा है, और कभी-कभी अपने ही मूल्यों से भटक भी जाता है। शायद यही कारण था कि उनकी फ़िल्में कभी ‘ट्रेंड’ के पीछे नहीं भागीं, बल्कि समय के भीतर टिककर खड़ी रहीं।
उनके सिनेमा में जो ठहराव दिखाई देता है, वह दरअसल जीवन को ध्यान से देखने की आदत से आता है। उन्होंने कभी दर्शक को बाँधने की कोशिश नहीं की, बल्कि उसे सोचने का अवसर दिया। यही वजह है कि उनसे हुई बातचीत भी किसी इंटरव्यू की तरह नहीं लगी, वह एक साझा चिंतन की प्रक्रिया थी। ऐसा लगा जैसे वे अपने अनुभव, अपनी चिंताएँ और अपने विश्वास अगली पीढ़ी को सौंप रहे हों।

श्याम बेनेगल के लिए फ़िल्म बनाना अपने जीवन-मूल्यों को सार्वजनिक करने का साहसिक काम था। हर फ़िल्म के पीछे कोई ‘वजह’ होती है और वह वजह फ़िल्मकार के भीतर से आती है उस समाज से, जिसे उसने देखा, जिया और महसूस किया है।
श्याम बेनेगल फ़िल्म निर्माण को कभी हल्के में नहीं लेते थे। उनके लिए यह एक गंभीर क्राफ़्ट था, सीखने, समझने और लगातार अभ्यास की माँग करने वाला। वे अक्सर कहते थे कि सिनेमा की भाषा और व्याकरण को समझे बिना फ़िल्म बनाना वैसा ही है जैसे भाषा जाने बिना कविता लिखने की कोशिश करना।
उनकी बातों में सिनेमा का इतिहास भी स्वाभाविक रूप से आ जाता था। मूक फ़िल्मों का ज़िक्र करते हुए वे उन्होंने बताया कि कि कैसे दर्शक बिना संवाद के केवल दृश्य देखकर कहानी समझ लेते थे। फिर जब सिनेमा में आवाज़ आई, तो यह सिर्फ़ तकनीकी बदलाव नहीं था यह अभिव्यक्ति की दुनिया का विस्तार था। लेकिन वे साथ ही यह चेतावनी भी देते थे कि आवाज़ की ताक़त तभी सार्थक है, जब उसका इस्तेमाल संवेदना के साथ किया जाए। इसी बातचीत में उन्होंने खिड़की के बाहर की व्यस्त सड़क का उदाहरण दिया, गाड़ियों का शोर, लगातार भागती ज़िंदगी। वे मुस्कराकर कहते थे कि एक फ़िल्मकार इसी शोर से या तो अराजकता रच सकता है, या फिर अर्थ। यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसका रचनात्मक मन क्या चुनता है। यहीं से सिनेमा तकनीक से आगे बढ़कर अनुभव बनता है।
आज़ादी के पहले और बाद के सिनेमा पर बात करते हुए श्याम बेनेगल किसी एक फ़ैसले पर नहीं पहुँचते थे। वे मानते थे कि तकनीक का विस्तार एक बड़ा कारण था, लेकिन उससे भी बड़ा कारण था समाज की बदलती चेतना। मूक और बोलती फ़िल्मों के बीच का अंतर केवल संवाद का नहीं था, वह दृष्टि का भी था।
उनके अनुसार, कुछ फ़िल्मकारों ने नई तकनीक को समाज से जुड़ने का माध्यम बनाया, तो कुछ ने उसे केवल प्रयोग का औज़ार। वे साफ़ कहते थे कि फ़िल्म सिर्फ़ कहानी नहीं कहती उसमें दृश्य, ध्वनि, मौन, सब कुछ शामिल होता है। एक फ़िल्म तब असर छोड़ती है, जब ये सभी तत्व मिलकर दर्शक से संवाद करते हैं।
जब बात सामाजिक सजगता की आती थी, तो सत्यजीत रे का नाम अपने-आप आ जाता था। पाथेर पांचाली उनके लिए केवल एक महान फ़िल्म नहीं थी, बल्कि सिनेमा को समझने की पाठशाला थी। वे बताते थे कि कैसे रे साहब फ़िल्म की रिकॉर्डिंग के लिए गाँवों में रहे, असली ध्वनियाँ रिकॉर्ड कीं, ताकि पर्दे पर दिखने वाला संसार नक़ली न लगे।
एक दृश्य का ज़िक्र करते हुए उन्होंने बताया कि बूढ़ी औरत के गिरने की आवाज़ के लिए नारियल का इस्तेमाल किया गया। यह उदाहरण वे तकनीक दिखाने के लिए नहीं, बल्कि यह समझाने के लिए देते थे कि सिनेमा में संवेदना कैसे पैदा की जाती है। उनके अनुसार, जब दर्शक उस दर्द को महसूस करता है, तभी फ़िल्म सफल होती है।

श्याम बेनेगल के सिनेमा को संविधान से अलग करके नहीं देखा जा सकता। वे मानते थे कि भारत को समझने के लिए गांधी, नेहरू और अंबेडकर तीनों को साथ पढ़ना ज़रूरी है। उनके अनुसार, गांधी नैतिक चेतना के प्रतिनिधि थे, नेहरू आधुनिक राज्य के और अंबेडकर संवैधानिक न्याय के।
वे बड़े विस्तार से बताते थे कि कैसे बी.एन. राव ने दुनिया भर के संविधानों का अध्ययन किया और भारतीय संदर्भ में उन्हें ढाला। जिस देश में हर कुछ किलोमीटर पर भाषा और संस्कृति बदल जाती हो, वहाँ एक साझा संविधान बनाना असाधारण कार्य था। इसी समझ ने उन्हें संविधान सीरीज़ बनाने के लिए प्रेरित किया—ताकि आम लोग जान सकें कि यह दस्तावेज़ केवल अदालतों तक सीमित नहीं है, बल्कि रोज़मर्रा के जीवन से जुड़ा हुआ है।
उनका मानना था कि एक फ़िल्मकार को सही और ग़लत के बीच का फ़र्क़ समझना ही होगा।
औरत को अपमानित करने वाली फ़िल्मों पर उनकी राय बेहद स्पष्ट थी, ऐसी फ़िल्में भले ही मनोरंजन कर दें, लेकिन समाज को कुछ बेहतर नहीं दे सकतीं। निशांत जैसी फ़िल्मों में उन्होंने स्त्री के सवाल को सत्ता और हिंसा के संदर्भ में रखा।
मंथन के समय सेंसर बोर्ड से उनका संघर्ष केवल एक फ़िल्म की लड़ाई नहीं थी। वह इस बात का प्रतीक था कि रचनात्मक स्वतंत्रता और संस्थागत जड़ता के बीच टकराव कितना पुराना है। दिल्ली जाकर इंदिरा गांधी से मिलना, अपनी बात रखना यह सब उनके आत्मविश्वास और नैतिक साहस को दिखाता है। उनका मानना था कि सेंसर बोर्ड अगर प्रमाणन संस्था की तरह काम करे, तो ठीक है, लेकिन जब वह नैतिकता तय करने लगे, तो लोकतंत्र को नुकसान पहुँचता है।
बाद के वर्षों में वे फ़िल्में कम देखते थे, लेकिन उनका आकलन तीखा था। वे कहते थे कि फ़ॉर्म्युला और संवादबाज़ी ने सिनेमा को सतही बना दिया है। ओटीटी को लेकर वे यथार्थवादी थे, व्यवसाय आएगा तो दबाव भी आएगा। लेकिन वे यह भी कहते थे कि अगर निर्माता अपने मूल्यों पर अडिग रहे, तो हर दौर में सार्थक सिनेमा संभव है।
श्याम बेनेगल का सिनेमा हमें यह सिखाता है कि लोकतंत्र केवल संसद में नहीं, बल्कि परदे पर भी जीता है। उनकी फ़िल्में आज भी हमें सोचने पर मजबूर करती हैं, अपने समाज, अपने मूल्य और अपनी ज़िम्मेदारी के बारे में। उन्हें याद करते हुए यही कहा जा सकता है कि उन्होंने सिनेमा को शोर से बचाया और अर्थ से जोड़ा। और शायद यही उनकी सबसे बड़ी विरासत है।
उनकी फ़िल्मों में संविधान कभी किताब बनकर नहीं आता, वह रिश्तों, संघर्षों, अन्याय और उम्मीद के बीच सांस लेता हुआ दिखाई देता है। बराबरी, न्याय, गरिमा और संवेदना, ये उनके लिए सैद्धांतिक शब्द नहीं थे, बल्कि रोज़मर्रा के जीवन के अनुभव थे, जिन्हें वे परदे पर उतारते थे। उन्होंने यह साबित किया कि सिनेमा लोकतंत्र का शोर नहीं, उसकी आत्मा हो सकता है। आज जब हम उन्हें याद करते हैं, तो दरअसल उस विश्वास को याद करते हैं कि फ़िल्म समाज को बेहतर देखने की दृष्टि दे सकती है। श्याम बाबू चले गए, लेकिन उनके सिनेमा में संविधान आज भी जीवित है चुपचाप, दृढ़ता से, और पूरे मानवीय सम्मान के साथ।

