बिमल रॉय की ‘सुजाता’ और ’50 के दशक का भारत
फिल्म एक ऐसी विधा है, ऐसा आर्टफॉर्म है जिसमें कहानी… किसी फिल्म का सबसे अधिक और सबसे कम महत्वपूर्ण तत्व होता है। सबसे कम इसलिए कि पर्दे पर जो दुनिया रची जाती है उसमें दृश्य-ध्वनि-प्रकाश-अभिनय जैसी तमाम चीज़ों का बहुत बड़ा योगदान होता है और सबसे अधिक इसलिए कि इस पूरी दुनिया के मूल में वो कहानी ही होती है जिसमें अपनी अनुभूतियां जोड़कर एक दर्शक उसके इर्दगिर्द एक नया संसार बुनता है। फिल्मों की समीक्षा जब होती है, तो फिल्ममेकिंग के सभी पक्षों पर बात होती है… और इसमें अक्सर कथानक पर विस्तृत चर्चा की जगह नहीं निकल पाती… । हमने सिनेमा के साहित्य की समीक्षा के नाम से चुनिंदा फिल्मों की कुछ अलग किस्म की समीक्षाओं की सीरीज़ शुरु की है, जो उनके कथानक और उनमें अंतर्निहित साहित्य को लेकर लिखी गई हैं… जीवन और समाज के दर्शन और विश्लेषण के आधार पर लिखी गई ये समीक्षाएं प्रस्तुत कर रहे हैं लेखक-समीक्षक अजय चंद्रवंशी। महेश भट्ट की सारांश , बासु भट्टाचार्य की तीसरी कसम और गोविंद निहलानी की अर्धसत्य के बाद पेश है बिमल रॉय द्वारा निर्देशित 1959 की क्लासिक फिल्म सुजाता के साहित्य की समीक्षा। 8 जनवरी बिमल रॉय की पुण्यतिथि होती है और इसी मौके पर उनकी याद को समर्पित अजय चंद्रवंशी की ये समीक्षा।
अजय चंद्रवंशी एक लेखक और आलोचक हैं। उनकी अनेकों रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। कविता, ग़ज़ल और फ़िल्म समीक्षा के अतिरिक्त इतिहास और आलोचनात्मक आलेख भी प्रकाशित हो चुके हैं। वो छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के राजनारायण मिश्र पुनर्नवा पुरस्कार (2019) से सम्मानित हो चुके हैं। फिलहाल सहायक विकासखण्ड शिक्षा अधिकारी के पद पर कवर्धा में कार्यरत हैं।
अश्पृश्यता मानव समाज के लिए कलंक रही है। किसी व्यक्ति को जन्म के आधार पर हीन अथवा कमतर समझना जितना अमानवीय है, ऐसी व्यवस्था के औचित्य के लिए तर्क गढ़ना उतना ही कुत्सित। सामंती समाजों के दौर में इसका चेहरा अत्यंत घिनौना था; औद्योगिक पूंजीवादी दौर में इसमें उल्लेखनीय कमी अवश्य आई, मगर इसमे संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार एवं शिक्षा की भी अहम भूमिका रही है। बावजूद इसके यह पूरी तरह खत्म नही हो सकी है। आज भी इसके अवशेष और कुप्रभाव समय-समय पर दिखाई पड़ते हैं। इधर इसके स्वरूप में बदलाव आया है और यह महीन हो चली है। जो इस कुप्रथा से प्रभावित हैं वे इसे भौतिक रूप से भले न प्रदर्शित करते हों, मगर मानसिक रूप से दूरी बनाने का प्रयास करते हैं, इसलिए वे कुछ जातिगत अथवा धार्मिक समुदाय के पड़ोसी बनने से बचते दिखाई देते हैं। इसमें हाल के जातिवादी, साम्प्रदायिक राजनीति के उभार की भी महत्वपूर्ण भूमिका है, जो विभिन्न समूहों के बीच अविश्वास पैदा करने में काफ़ी हद तक सफल रही है।
फ़िल्म सुजाता’ की नायिका सुजाता (नूतन) को उसकी तमाम अच्छाइयों के बाद भी कई बार सिर्फ इसलिए उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है क्योंकि वह ‘अछूत कुल’ में जन्मी है। बचपन से अनाथ होने पर उसका पालन पोषण करने वाले दंपति सहृदय हैं, मगर सामाजिक जीवन के ‘मूल्यों’ के आगे असहाय। कुछ हद तक उससे प्रभावित भी। उनके सहृदयता और सामाजिक मूल्यों का द्वंद्व फ़िल्म की शुरुआत से अंत तक है। वे सुजाता को बचपन में किसी को देने अथवा अनाथालय भेजने की बेमन से कोशिश करते हैं मगर अपने वात्सल्य के आगे अंततः हार जाते हैं। इस तरह सुजाता उनके घर मे ही रहती है, लगभग उनकी बेटी की तरह ही उसका पालन-पोषण होता है। अवश्य कई घटनाएं उसके बालमन और युवामन को अहसास दिलाते रहती हैं की सबकुछ सामान्य नहीं है। मसलन ‘रमा’ (बेटी) की तरह वह स्कूल-कालेज नहीं गई। रमा की तरह उसका जन्मदिन नहीं मनाया जाता। सुजाता के दिल में यह बात चुभती रहती है जब उसका परिचय बेटी नहीं ‘बेटी जैसे’ के रूप में कराया जाता है। एक तरह से उसमें अलगाव आने लगता है और वह महफिलों से दूर रहने लगती है।
इसी बीच उनके घर रमा के पिता के बुआ के नाती ‘अधीर’ (सुनील दत्त) का आना होता है। परिवार की चाह है कि रमा और अधीर एक दूसरे के करीब आएं और उनका विवाह हो, मगर अधीर सुजाता के प्रेम में पड़ जाता है। अधीर पढ़ा लिखा शोधार्थी युवक है जो जाति बंधन और छुआछूत को नहीं मानता। उसके प्रेम निवेदन और दृष्टिकोण से सुजाता भी उससे प्रेम करने लगती है, मगर जब उसे पता चलता है कि परिवार के लोग रमा और अधीर का विवाह चाहते हैं तो वह द्वंद्वग्रस्त हो जाती है। वह अधीर को समझाने की कोशिश करती है, उससे दूर जाने का प्रयास करती है।
नाटकीय घटनाक्रम में रमा की माँ को जब मालूम होता है कि अधीर सुजाता से विवाह करना चाहता है तो वह आवेश में आकर सुजाता को भला-बुरा कहती है और इसी बीच सीढ़ी से गिरकर घायल हो जाती है। उसकी जान बचाने के लिए खून की आवश्यकता पड़ती है, मगर घर के किसी सदस्य का खून उनसे मेल नही खाता। अंततः सुजाता का खून मेल खाता है, जिससे उनकी जान बचती है।
इस तरह उसको अपनी भूल का अहसास होता है और उसे गले लगा लेती है। रमा की भूमिका बहुत सहज है वह अधीर के प्रति उस तरह आकर्षित ही नहीं थी, उसे शुरुआत से ही अहसास था कि अधीर का आकर्षण सुजाता की तरफ है। इस तरह फ़िल्म का सुखद अंत होता है और सुजाता-अधीर का विवाह हो जाता है।
फ़िल्म का परिवेश पचास के दशक का सम्पन्न बंगाली परिवार है। स्त्री दृष्टि से देखें तो वे पढ़ी-लिखीं तो हैं, मगर परम्परागत मूल्यों से प्रभावित है जिसमे अभी ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है, मगर अधीर के माध्यम से जागरूक युवाओं का चित्रण हैं। सुजाता कथित अछूत कुल की लड़की है, दूसरों के घर पली, उनके प्रति प्रेम जनित कर्तव्यबोध से संपृक्त, आधुनिक शिक्षा से वंचित, इसलिए तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप उसका चरित्र गढ़ा गया है। उससे अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती थी। बहरहाल एक सामान्य कथानक में भी यह फ़िल्म सामाजिक विडम्बना को रेखाँकित करती है, जो सार्थक है।