सिनेमा की समझ बेहतर करने वाली हिंदी किताब का लोकार्पण

1913 में दादा साहब फालके की बनाई पहली फुल लेंथ फीचर (मूक) फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ से गिनें तो भारतीय सिनेमा को 112 साल होने जा रहे हैं और इन सौ सालों में सिनेमा और उसकी तकनीक बहुत आगे बढ़ चुके हैं। लेकिन सिनेमा को मनोरंजन के साथ-साथ एक कला माध्यम के तौर पर ट्रीट करने को लेकर दर्शकों में वो परिपक्वता नहीं आ पाई जो अपेक्षित थी। कुछ जिम्मेदार सिने स्कॉलर्स ने अपने लेखों, पुस्तकों के माध्यम से इस दिशा में कोशिशें की हैं, लेकिन हिंदी में ऐसी कोशिशें गिनी चुनी ही हैं। जबकि हिंदी में ही इनकी सबसे ज़्यादा ज़रुरत है, क्योंकि भारतीय सिने उद्योग की सबसे बड़ी पहचान हिंदी सिनेमा से ही है और हिंदी सिनेमा का दर्शक पसंद के मामले में सबसे पिछड़ा माना जाता है। हिंदी दर्शकों-पाठकों में सिनेमा की समझ बढ़ाने के मकसद से एक बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिसका लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला 2025 में 9 फरवरी को हुआ। इस पुस्तक को लिखा है प्रसिद्ध फिल्म पत्रिका माधुरी के संपादक रहे विनोद तिवारी ने। एक रिपोर्ट।
नई दिल्ली, 10 फरवरी 2025। नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले के अंतिम दिन (9 फरवरी 2025) प्रख्यात और अनुभवी मीडिया कर्मी तथा फिल्म पत्रिका माधुरी के संपादक रहे विनोद तिवारी की पुस्तक, “कला, सिने समीक्षा एवं फिल्म रसास्वादन की ” का भव्य लोकार्पण किया गया। लोकार्पण समारोह में प्रख्यात कथाकार पंकज बिष्ट,प्रख्यात पटकथा लेखक अशोक मिश्र , कवि एवं फिल्म निर्देशक दिनेश लखनपाल , सीएसडीएस के प्रोफ़ेसर रविकांत, न्यू डेल्ही फिल्म फाउंडेशन के संस्थापक-महासचिव आशीष के सिंह, वरिष्ठ पत्रकार प्रताप सिंह, सिने रचनाकार अजय कुमार शर्मा और पुस्तक के प्रकाशक हरिकृष्ण यादव उपस्थित रहे।

सर्वप्रथम अजय कुमार शर्मा ने सभी का स्वागत करने के बाद किताब की पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि यह पुस्तक हर सिनेमा प्रेमी, विशेष तौर पर युवा पत्रकारों, समीक्षकों और दर्शकों को सिनेमा देखने की नई समझ और दृष्टि विकसित करने का अवसर देती है। वरिष्ठ कथाकार और ‘समयांतर’ पत्रिका के संपादक पंकज बिष्ट ने सिनेमा के सुनहरे दौर और उसमें ‘माधुरी’ तथा उसके संपादकों श्रद्धेय अरविंद कुमार तथा विनोद तिवारी के योगदान की चर्चा करते हुए कहा कि व्यावसायिक सिनेमा की पत्रिका होते हुए भी माधुरी ने अच्छे सिनेमा का पक्ष लेते हुए सजग दर्शक तैयार किए। ऐसा ही उनकी इस किताब को देखकर महसूस हुआ।

एनएसडी के पूर्व छात्र और श्याम बेनेगल की कई फिल्मों की पटकथा लिख चुके प्रतिष्ठित पटकथा लेखक अशोक मिश्र ने कहा कि इस पुस्तक के आने से उनका यह विश्वास और गहरा हुआ है कि अभी भी सिनेमा को गंभीरता से देखने – परखने वाले लोग हैं। उन्होंने समग्र कलाओं के रूप में सिनेमा देखने की प्रक्रिया की वकालत करते हुए इस पुस्तक को ‘मील का पत्थर’ कहा।
सीएसडीएस में असिस्टेंट प्रोफेसर रविकांत ने कहा कि पुस्तक बहुत रोचक शैली में अच्छे उदाहरण देकर लिखी गई है। इसे पढ़कर युवा पत्रकार सिनेमा को नए ढंग से समझेंगे और इससे उनका सिनेमा देखने का नजरिया भी बदलेगा। पुस्तक जानकारी के तौर पर ‘गागर में सागर’ का काम करती है। वरिष्ठ फिल्म निर्देशक दिनेश लखनपाल ने विनोद जी के साथ अपने संस्मरण साझा करते हुए कहा कि वह आरंभ से ही अच्छे सिनेमा के पैरोकार रहे हैं और सिनेमा की पारंपरिक सोच से हटकर उसे नई दृष्टि से देखते रहे हैं । यह पुस्तक भी उनकी इस सोच का उत्कृष्ट नमूना है।
न्यू डेल्ही फिल्म फाउंडेशन के फाउंडर आशीष के सिंह ने कहा कि यह पुस्तक सिनेमा को नए ढंग से समझने -परखने की दृष्टि देती है। उन्होने बताया कि एनडीएफएफ का उद्देश्य भी हिंदी सिनेमा समाज को जागरूक करने का है अतः हमें अपने प्लेटफार्म पर इस किताब का प्रचार-प्रसार करना अच्छा लगेगा। वरिष्ठ पत्रकार एवं फिल्म अध्येता प्रताप सिंह ने कहा कि विनोद तिवारी जी के ‘माधुरी’ और बाद के अनुभव-आकाश भी इस कृति में समा गए हैं। श्रेष्ठ समीक्षा की पूर्ण व्याख्या, विविध गुणवत्ता और रूढ़िबद्ध- लेखनी की दिशामूलक आलोचना के मार्फत पाठक-जगत को सहज-सरल नाटकीय भाषा में हासिल हुई नवीन और अनूठी पूँजी के बरक्स इसे विवेकसम्मत खजाना कहा जा सकता है। अंत में संधीस प्रकाशन के प्रमुख हरिकृष्ण यादव ने कहा कि विनोद तिवारी जी जैसे वरिष्ठ और बहुआयामी पत्रकार की पुस्तक छाप कर हम बेहद गर्वित महसूस कर रहे हैं।
आज के दौर में ऐसी पुस्तक की ज़रूरत और बढ़ गई है, जब फिल्म पत्रकारिता लगभग खत्म हो चुकी है या कह लें पीआर एक्सरसाइज़ में बदल चुकी है। किसी फिल्म की ईमानदार और निष्पक्ष समीक्षा देख-पढ़ पाना बेहद दुरूह हो चुका है। ऐसे में ज़रूरी है कि दर्शक सिनेमा को देखने समझने के अपने नज़रिए को समृद्ध करें, ताकि उन्हे बरगलाया न जा सके। स्टोरी, एक्टिंग और सिनेमैटोग्राफी से आगे जाकर सिनेमा के वो कौन से पहलू हैं जिन पर ध्यान देने से उसी सिनेमा का मज़ा कई गुना बढ़ जाता है, ऐसी बुनियादी जानकारियां इस किताब में उपलब्ध हैं। माधुरी अपने समय की बेहद प्रतिष्ठित और सार्थक फिल्म पत्रिका रही है। विनोद तिवारी ने इससे पहले फिल्म पत्रकारिता पर एक पुस्तक भी लिखी थी, जो बेहद सराही गई। फिल्म पत्रकारिता और उससे जुड़े संस्थानों के दशकों के अनुभव के बाद उनकी लिकी ये पुस्तक निश्चित तौर पर स्वागत योग्य है और हिंदी सिनेमा में दिलचस्पी रखने वालों को पढ़नी चाहिए।