मालिक: समाज-सियासत का अक्स दिखाती फ़हद फ़ासिल की ‘आंखें’
इसी साल रिलीज़ हुई मलयालम फिल्म जोजी से हिंदी सिनेमा के दर्शकों में अपनी मज़बूत पहचान बनाने वाले बेहतरीन एक्टर फ़हद फ़ासिल की नई फिल्म मालिक अमेज़न प्राइम पर रिलीज़ हुई है। फ़हद की अदाकारी और लेखक-निर्देशक के बेहतरीन काम की वजह से फिल्म की काफ़ी तारीफ हो रही है। प्रस्तुत है फिल्म की समीक्षा अमिताभ श्रीवास्तव की कलम से। अमिताभ श्रीवास्तव वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजतक, इंडिया टीवी जैसे न्यूज़ चैनलों से बतौर वरिष्ठ कार्यकारी संपादक जुड़े रहे हैं। फिल्मों के गहरे जानकार और फिल्म समीक्षक के तौर पर ख्यात हैं।
प्रख्यात मलयालम अभिनेता फ़हद फ़ासिल की नयी फिल्म मालिक बुनियादी तौर पर एक अंतरधार्मिक प्रेम कथा है जो हमारे दौर की सांप्रदायिक राजनीति का क्रूर, षड्यंत्रकारी, वीभत्स समाज विभाजक चेहरा दिखाती है। एक ऐसे समय में, जब देश में सब तरफ मज़हब और सियासत का घाल-मेल समाज में अशांति फैला रहा है और सहिष्णु, समावेशी लोकतांत्रिक तानेबाने को तार-तार कर रहा है, मालिक फिल्म न होकर एक तरह से मौजूदा समाज और सियासत का आईना हो जाती है।
मालिक की पृष्ठभूमि दक्षिण भारत की है। फिल्म केरल के तटीय इलाकों में बसे निम्नवर्गीय मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यक समूहों के बहाने प्रेम, अपराध, धर्म, राजनीति, विद्वेष और प्रतिशोध की कहानी कहती है।
कहानी का मुख्य किरदार सुलेमान अली है जिसे फ़हद फ़ासिल ने बहुत शानदार तरीक़े से निभाया है। 80 के दशक के विद्रोही युवा से लेकर नयी सहस्राब्दी के अधेड़ उम्र के किरदार में मासूमियत, मोहब्बत, महत्वाकांक्षा, जोश, आवेग, दबंगई, क्रोध, निडरता, अपराधबोध, दुख, पीड़ा और जीत-हार की भावनाओं की सूक्ष्म और जटिल अभिव्यक्तियों के माध्यम से फ़हद ने सुलेमान के किरदार को महाकाव्यात्मक ऊंचाई दी है। आंखों से बेहतरीन अभिनय कैसे किया जाता है, फ़हद लगातार उस कला में ख़ुद को फ़िल्म दर फ़िल्म मांजते हुए मालिक में महारथी की तरह उभरे हैं। इरफान की अनुपस्थिति से ख़ाली हुई जगह को भरने की क्षमता है उनमें।
फिल्म लंबी है- 160 मिनट की लेकिन लेखक-निर्देशक और फिल्म के संपादक महेश नारायणन ने कहीं पकड़ ढीली नहीं होने दी है। फ़हद और महेश की जोड़ी इससे पहले ‘टेक ऑफ’ और ‘सी यू सून’ बना चुकी है। ‘टेक ऑफ’ की कहानी सलमान ख़ान की फिल्म ‘टाइगर ज़िंदा है’ से मिलती जुलती है लेकिन दोनों फिल्में देखने के बाद एक संवेदनशील दर्शक को ठेठ मसाला सिनेमा और गंभीर सिनेमा का अंतर शायद समझ आ सके।
मालिक ‘गॉडफादर’ के साथ-साथ ‘नायकन’ की भी याद दिलाती है। फ़हद केंद्रीय भूमिका में हैं लेकिन मालिक अकेले उनकी फिल्म नहीं है। इसे असरदार बनाने में उनके साथी कलाकारों निमिशा सजायन, दिलीश पोथन, जोजू जॉर्ज, विनय फोर्ट ने अपनी भूमिकाओं में ग़ज़ब काम किया है। इसी साल प्रदर्शित मलयालम फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ में शानदार अभिनय के लिए निमिशा की बहुत तारीफ हो चुकी है। यहां वह रोज़ेलिन नाम की ईसाई महिला के किरदार में हैं जिसे सुलेमान से प्रेम हो जाता है। रोज़ेलिन का भाई डेविड सुलेमान की आपराधिक गतिविधियों का साथी भी है और दोस्त भी। सुलेमान आपराधिक गतिविधियों के दबदबे से कमायी गई आर्थिक और राजनैतिक पहुंच के बूते पर मुसलमानों का मसीहा बन जाता है। वह ईसाई समुदाय को लेकर भी उदार है। ईसाई दोस्त डेविड की बहन रोज़ेलिन से प्रेम और शादी करता है लेकिन अपने होने वाले बच्चे को इस्लामी रीतिरिवाज़ से पालने का इरादा रखता है। डेविड अपने भांजे का नाम रखता है एंटनी और चर्च में उसका बपतिस्मा कराता है। धूर्त और महत्वाकांक्षी मुस्लिम नेता अबू बक़र अपने सियासी फ़ायदे के लिए दोनों दोस्तों के बीच दरार डाल देता है। एक मुस्लिम कलेक्टर अनवर अली भी है जो चतुर प्रशासक है और सुलेमान को पकड़ने के लिए डेविड को मोहरा बनाता है। सियासी साज़िशें कैसे अच्छे-भले रिश्तों में शक पैदा करती हैं, मिलजुलकर रह रहे समुदायों की धार्मिक भावनाएं भड़का कर समाज में कैसे नफरत और अशांति फैलाती हैं, पुलिस-प्रशासन किस तरह इसे राजनीति का मकसद पूरा करने का हथियार बनता है, फिल्म यह सब किसी अतिनाटकीयता के बिना बख़ूबी दिखाती है। सुलेमान को मारने के लिए पुलिस डेविड के बेटे फ्रेडी को तैयार करती है। सुलेमान से बातचीत के बाद उसका मन बदल जाता है। अंत दिलचस्प है और उससे जुड़ा रहस्य आख़िरी हिस्से में ही खुलता है।
देखने लायक फिल्म है।
मलयालम, मराठी, बांग्ला, तेलुगु, तमिल और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में फिलहाल देश में सबसे अच्छी फिल्में बन रही हैं। हिंदी पट्टी के फिल्म प्रेमियों को कला सिनेमा की कमी महसूस होती हो, अच्छी फिल्में देखना चाहते हों तो इन भाषाओं की फिल्में देखें।
मालिक अमेज़न प्राइम पर देखी जा सकती है। ग़ैर मलयाली दर्शकों के लिए अंग्रेज़ी सबटाइटिल्स की सुविधा है।