New Film Pengalila: केरल के इस अद्भुत कालचित्रण में हर समाज का अक्स है…
भारत में क्षेत्रीय सिनेमा में लगातार बेहतरीन काम हो रहा है, जो मुख्यधारा के दर्शकों और सिनेप्रेमियों की जानकारी और पहुंच से पूरी तरह दूर है। NDFF इस दिशा में लगातार प्रयास कर रहा है ताकि ऐसी फिल्में और उनसे जुड़ी जानकारी सिनेप्रेमियोें तक पहुंचे और वो भी ऐसा सिनेमा देखें जिसके वो हकदार हैं। निर्देशक T V Chandran की नई मलयालम फिल्म Pengalila (Sister Leaf) का इस हफ्ते राजधानी नई दिल्ली में प्रीमियर हुआ। प्रस्तुत है वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म समीक्षक अमिताभ श्रीवास्तव द्वारा फिल्म का विस्तृत विश्लेषण।
केरल के एक छोटे से इलाक़े में मुंबई से एक मलयाली परिवार आकर रहने लगता है । परिवार का मुखिया रहेजा कंसट्रक्शन्स में एक छोटा-मोटा अधिकारी है। कंपनी ने केरल के उस इलाक़े में भवन निर्माण के अपने कारोबार के विस्तार की संभावनाएँ तलाशने और अपने प्रोजेक्ट्स की निगरानी के लिए उसे वहाँ भेजा है। परिवार में पत्नी के अलावा दो बच्चे हैं- एक लड़का और एक लड़की। इस परिवार के बड़े से आरामदेह निवास की चौहद्दी से बाहर एक बूढ़ा निस्संतान दलित, भूमिहीन मज़दूर अपनी पत्नी के साथ एक टूटे-फूटे से झोंपड़े में रहता है। वह मज़दूर इस परिवार के लिए सफाईकर्मी का काम भी करता है। साठ साल से ऊपर के इस बूढ़े और सात-आठ साल की बच्ची के बीच जो निर्मल-निश्छल स्नेह संबंध बनता है वही कहानी है मलयाली फ़िल्मकार टी वी चंद्रन की फिल्म Pengalila की। नन्हीं बच्ची और उसके बूढ़े अड़गन अंकल की इस कहानी में मलयाली समाज की जातिव्यवस्था, दलित-सवर्ण, अमीर-गरीब, सर्वहारा-बुर्जुआ, की छवियाँ भी हैं जो मूल कथा की मार्मिकता को और उभारती हैं।
बूढ़े अड़गन का पूरा जीवन एक तरह से अतृप्ति और अभावों की कहानी है। वह अपनी जिस छोटी बहन से प्रेम करता था और उसे कंधे पर उठाए घूमता था, वह सवर्णों के एक तालाब में पैर धो लेती है, उसका तिरस्कार करके उसे खदेड़ दिया जाता है, वह बीमार पड़ जाती है और उसकी बचपन में ही मृत्यु हो जाती है। अड़गन स्थायी तौर पर बेघर, बेठिकाना , वामपंथी विचार वाला व्यक्ति है और जवानी में इमरजेंसी के दौरान जेल भी जा चुका है। सत्ता और सरकार के ख़िलाफ़ हमेशा उसकी मुट्ठियाँ तनी ही रहती हैं। जिस महिला से उसे जवानी में प्रेम होता है, वह भी उसी की तरह ग़रीब मज़दूर है और एक प्रदर्शन के दौरान हिंसा में मारी जाती है। प्रेम का वह अधूरापन और टीस बूढ़े अड़गन के एकांत में गाये जाने वाले गानों में रह रह कर प्रकट होता रहता है। जिस महिला से प्रेम न होने के बावजूद उसकी शादी होती है, उससे उत्पन्न पुत्र भी घर बदलने के एक सफ़र के दौरान लापता हो जाता है और फिर नहीं मिलता। रहेजा कंपनी के कर्मचारी की बच्ची में अड़गन को अपनी मृत बहन की छवि दिखती है और वह उसे उसी तरह लाड़ में कंधे पर उठाए घूमता है।
लेकिन परिवार का सवर्ण मुखिया यह बर्दाश्त नहीं कर पाता कि कोई नीची जाति का मज़दूर उसकी बेटी के आसपास रहे। अड़गन सड़क पर नंगे पैर घूमता है। बच्ची पूछती है तो वह फीकी सी मुस्कुराहट के साथ यह बताता है कि उस जैसों को इन सड़कों पर चलने का हक़ नहीं है। कहानी में 19वीं शताब्दी में त्रावणकोर के समाजसुधारक रहे अयंकली का ज़िक्र भी आता है जिन्होंने अछूत उद्धार के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किया। अड़गन के झोंपड़े में नारायण गुरू की तस्वीर भी दिखती है।
अड़गन जवानी में जिस वामपंथी नेता के साथ जेल गया था, वह अब एक बिल्डर बन चुका है और मुंबई से केरल के उसी इलाक़े में ज़मीन पर क़ब्ज़े के लिए लौटा है।
अड़गन अपने कोशी मैथ्यू सर को देखकर ख़ुश होता है लेकिन जब उसे पता चलता है कि उसका पुराना कामरेड, उसका वामपंथी साथी उसकी ही बस्ती को उजाड़ने आया है तो वह निराश और दुखी होता है और आदतन मुट्ठियाँ तान कर इंक़लाब ज़िंदाबाद करते हुए धरने पर बैठ जाता है। केरल में फ़िलहाल वामपंथी दल शासन में हैं और इस प्रसंग के बहाने फ़िल्म वामपंथी नेताओं के भटकाव और उनके चरित्र में आए बदलाव पर भी एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करती है।
उधर अड़गन की नन्ही दोस्त अपनी माँ और भाई के साथ वापस मुंबई लौट रही है क्योंकि माँ का अपने दंभी, जातिवादी और पुरुष प्रधान सोच वाले पति से झगड़ा हो जाता है और वह उसका घर छोड़ कर मुंबई लौटने का फ़ैसला करती है जहाँ वह कभी एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करती थी। जाती हुई बच्ची को प्यार से विदा करते हुए अड़गन उसे ख़ूब पढ़ लिख कर डाक्टर बनने की सलाह देता है ताकि वह ग़रीबों का इलाज कर सके।
फ़िल्म के अंतिम हिस्से में हम देखते हैं कि वह बच्ची बड़ी हो गई है और डाक्टर बन चुकी है। केरल के किसी चाय बाग़ान में आंदोलन पर बैठे एक बीमार मज़दूर को देखने जाती है और पाती है कि वह तो उसका अड़गन अंकल ही है जो बहुत बूढ़ा, बीमार और मरणासन्न है। उसे अस्पताल लाकर उसका इलाज करने की कोशिश करती है लेकिन वह नीमबेहोशी में बड़बड़ाते हुए उसकी गोद को अपनी छोटी बहन की गोद समझते हुए वहीं सिर रखकर दम तोड़ देता है। अंतिम क्षणों में अड़गन को सिर्फ़ अपनी मर चुकी बहन याद आती है। फ़िल्म के अंतिम दृश्य में अड़गन की क़ब्र के पास दो बच्चियाँ दिखती हैं जिनमें से एक उसकी बहन है और दूसरी वह बच्ची जो अब डाक्टर बन चुकी है।
चंद्रन की इस फिल्म में गोविंद निहलानी की फिल्म आक्रोश और अर्द्ध सत्य, ओमपुरी के अभिनय का ज़िक्र भी आता है।
निर्देशक की सफलता इस बात में है कि उन्होंने बिना किसी आडंबर के, बहुत सीधे-सादे ढंग से एक कहानी कही है जो अपने समग्र रूप में प्रभावित करती है। टी वी चंद्रन मलयालम के बहुत ही सम्मानित फिल्मकार माने जाते हैं। उनकी 6 फिल्में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित हो चुकी हैं।
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