‘सुपर ब्वाएज़ ऑफ मालेगांव’: हिंदी सिनेमा के लिए कस्बाई दीवानगी की कहानी
सऊदी अरब के जेद्दा में 5 से 14 दिसंबर तक चौथे ‘रेड सी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ का आयोजन हुआ है। ईजिप्ट के एल गुना फेस्टिवल की तरह रेड सी फिल्म फेस्टिवल भी अरब वर्ल्ड की बेहतरीन फिल्मों को देखने -जानने का एक बड़ा मंच बन चुका है। जेद्दाह से इस फेस्टिवल पर लगातार रिपोर्ट भेजते रहे फिल्म समीक्षक-लेखक अजित राय की भेजी ये रिपोर्ट उसी की नई कड़ी है, जिसमें उन्होने रीमा कागती की चर्चित फिल्म ‘सुपरब्वाएज़ ऑफ मालेगांव’ के बारे में लिखा है। 2000 के दशक की शुरुआत में मीडिया के ज़रिए आम लोगों और विशेषकर फिल्म में दिलचस्पी रखने वालों को मालेगांव में बनने वाली स्पूफ फिल्मों के बारे में पता लगा था, जो बहुत दिलचस्प था। इनके नाम भी अक्सर मुंबई की सुपरहिट फिल्मों के नाम की शुरुआत में ‘मालेगांव के/का/की…. ’ की तर्ज़ पर रखे जाते थे। उसी दौर में मालेगांव में ‘मालेगांव के शोले’ बनी थी जो बहुत चर्चित हुई थी। साल 2002/3 में उसी पर आधारित पत्रकार-फिल्मकार नितिन सुखीजा द्वारा बनाई एक स्पेशल रिपोर्ट आजतक चैनल पर भी प्रसारित हुई थी। बाद में नितिन सुखीजा ने PSBT के लिए ‘मालेगांव की शोले’ के नाम से ही एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई, जो यूट्यूब पर भी उपलब्ध है।
महाराष्ट्र में मुंबई से दो सौ किलोमीटर दूर एक मुस्लिम बहुल कस्बा है मालेगांव। यह कस्बा अखबारों की सुर्खियों में तब आया जब 29 सितंबर 2008 को यहां की एक मस्जिद के पास मोटरसाइकिल में रखे बम धमाके में छह लोगों की मौत हो गई और सैकड़ों लोग घायल हो गए। इस घटना ने भारतीय राजनीति में एक नया शब्द दिया ‘हिंदू आतंकवाद’। इसी केस में भोपाल की पूर्व सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को जेल भी जाना पड़ा था। यह कस्बा हमेशा भयानक गरीबी और सांप्रदायिक तनाव का शिकार रहा। इसके बावजूद मालेगांव एक और बात के लिए दुनिया भर में जाना जाता है, वह है – बॉलीवुड की फिल्मों का ‘स्पूफ सिनेमा’। पहली बार इसकी ओर दुनिया भर का ध्यान तब गया जब 2008 में मालेगांव के हीं एक उत्साही और हिंदी सिनेमा को लेकर पागलपन की हद तक उन्मादी नौजवान फैज अहमद खान एक हिंदी डाक्यूमेंट्री बनाई ‘मालेगांव का सुपरमैन’ जिसमें बॉलीवुड की फिल्मों के स्पूफ सिनेमा यानी नकली सिनेमा की प्रक्रिया को विषय बनाया गया था। इस फिल्म को दुनिया भर में काफी शोहरत और अवार्ड मिले। हालांकि भारत में यह फिल्म 29 जून 2012 में प्रदर्शित हो सकी। मालेगांव ब्लास्ट को तो अब लोग भूल गए पर मालेगांव के स्पूफ सिनेमा की चर्चा आज भी दुनिया भर में होती है। इसी फिल्म में एक किरदार थे नासिर शेख।
रीमा कागती ने ‘मालेगांव का सुपरमैन’ डॉक्यूमेंट्री के आधार पर उसके एक प्रमुख किरदार नासिर शेख की हिंदी में बायोपिक बनाई है- ‘सुपर ब्वायज आफ मालेगांव’। फरहान अख्तर, जोया अख्तर और ऋतेष सिधवानी के साथ रीमा कागती भी फिल्म की एक प्रोड्यूसर है। यह फिल्म टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में शोहरत बटोरने के बाद सऊदी अरब के जेद्दा में आयोजित चौथे रेड सी अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में प्रतियोगिता खंड में दिखाई गई और काफी सराही गई। इस साल इस फिल्म समारोह में भारत से यह इकलौती फिल्म है। इसमें नासिर शेख की भूमिका शाहरुख खान के साथ करण जौहर की फिल्म ‘माय नेम इज खान'(2010) से अपना करियर शुरू करने वाले आदर्श गौरव ने निभाई है। आदर्श गौरव को अंतरराष्ट्रीय ख्याति 2021 में अरविंद अडिगा के उपन्यास ‘द ह्वाइट टाइगर’ पर इसी नाम से बनी रामिन बहरानी की फिल्म में मुख्य भूमिका निभाने पर मिली। आदर्श गौरव के अलावा फिल्म में अधिकांश कलाकार नये है जिन्हें आमतौर पर कोई खास पहचान नहीं मिल पाई है। केवल अनुराग कश्यप की फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ से चर्चा में आए विनीत कुमार सिंह को लोग जानते हैं जिन्होंने इस फिल्म में एक स्वाभिमानी स्क्रिप्ट राइटर का किरदार निभाया है और बहुत उम्दा अभिनय किया है। आदर्श गौरव की अदाकारी तो अद्भुत है ही। फिल्म के नए कलाकारों ने भी बहुत उम्दा काम किया है। फिल्मांकन स्टाइलाइज्ड होने के बावजूद यथार्थवादी लगता है। मेलोड्रामा बस जरूरत भर है और फिल्म अंत तक बांधे रखती है। यहां यह भी बताना जरूरी है कि इसे वरुण ग्रोवर ने लिखा है और सिनेमैटोग्राफी है स्वप्निल एस सोनावणे की जो बहुत ही उम्दा और नेचुरल है। मालेगांव के स्पूफ सिनेमा के पूरे दौर को फिर से सिनेमा के पर्दे पर रचना एक चुनौती भरा काम था जिसे वरुण ग्रोवर और रीमा कागती ने सफलतापूर्वक अंजाम दिया है। इस फिल्म में हिंदी सिनेमा के लिए कस्बाई दीवानगी की अनेक कहानियां हैं। नासिर शेख और उनके दोस्तों की कहानियां जो हिंदुस्तान के गांवों कस्बों में बिखरी पड़ी हैं और जिनके भीतर बॉलीवुड के प्रति जबरदस्त दीवानगी है।
मालेगांव में यह 1997 का समय है जब छोटे-छोटे गांवों कस्बों में नया नया टेलीविजन और फिल्मों के वीडियो कैसेट आए थे। देखते ही देखते छोटे छोटे वीडियो पार्लर खुल गए थे। चूंकि हॉलीवुड और बॉलीवुड के ये वीडियो कैसेट पाइरेटेड (नकली) होते थे, इसलिए इनका प्रदर्शन गैरकानूनी था। मालेगांव में नासिर का बड़ा भाई ऐसा ही एक वीडियो पार्लर चलाता था। वह कहता था कि दो तरह के वीडियो होते हैं – हलाल और हराम। वह पुरानी फिल्मों के वीडियो को हलाल और नई फिल्मों के पाइरेटेड वीडियो को हराम वीडियो कहता था, हालांकि दोनों गैरकानूनी होते थे। एक दिन उस वीडियो पार्लर पर पुलिस छापा मारकर उसे बंद करवा देती है। नासिर शेख को इस घटना से बहुत अपमान का अनुभव होता है। यहीं से मालेगांव में बॉलीवुड का स्पूफ सिनेमा जन्म लेता है। नासिर शेख तय करता है कि वह मालेगांव के लड़कों को लेकर अपना सिनेमा बनाएगा।
नासिर शेख के जीवन की अपनी मुश्किलें हैं। वह अपने गांव की ही एक लड़की मल्लिका से प्रेम करता है जबकि एक दूसरी लड़की शबीना उससे प्रेम करती हैं। मल्लिका पढ़ने लिखने में तेज हैं और नासिर शेख पढ़ाई-लिखाई छोड़कर शादी ब्याह में वीडियो रिकॉर्डिंग का काम करने वाला साधारण मजदूर। जब उसके परिवार वाले मल्लिका के यहां रिश्ता लेकर जाते हैं तो उसके पिता इनकार कर देते हैं और बताते हैं कि अपनी बेटी का रिश्ता उन्होंने मुंबई में रहने वाले एक अच्छे परिवार में तय कर दिया है। विडंबना यह कि मल्लिका की शादी की वीडियो रिकॉर्डिंग का ठेका भी नासिर शेख को मिलता है। उधर उसका बड़ा भाई उसकी शादी शबीना से तय कर देता। शबीना इस शर्त पर नासिर शेख से शादी करती है कि वह उसकी कानून की पढ़ाई बीच में नहीं छुड़वाएगा। इन घटनाओं से आहत नासिर शेख तय करता है कि चाहे जो हो, वह अपनी फिल्म बनाएगा- ‘मालेगांंव का शोले।’ जहां-तहां से पैसों का जुगाड कर वह ऑडिशन लेना शुरू करता है। वह शोले के असली किरदारों के नाम बदल देता है। मसलन मालेगांव का शोले में बसंती बासमती और गब्बरसिंह रब्बर हो जाते हैं। समस्या है कि अब बासमती के रोल के लिए लड़की कहां से ले आएं। मालेगांव की कोई लड़की तो फिल्म में काम करेगी नहीं। एक शादी की वीडियो रिकॉर्डिंग के दौरान वह स्टेज पर नाच-गा रही तृप्ति से मिलता है। बड़ी मुश्किल से कुछ ज्यादा पैसों पर वह राजी हो जाती है। अब वे लोकेशन ढूंढने में लग जाते हैं। और अंततः किसी तरह फिल्म पूरी हो जाती है। नासिर शेख के भाई के वीडियो पार्लर में भव्य प्रीमियर रखा जाता है। फिल्म सुपरहिट हो जाती है। इसी तरह नासिर शेख बालीवुड की कई फिल्मों का स्पूफ बनाता है और खूब पैसे कमाता है। मालेगांव से मुंबई तक वह मशहूर हो जाता है।
यहीं से उसके जीवन में संकट की शुरुआत होती है। उसके दोस्तों को लगता है कि फिल्म तो सभी मिलकर बनाते हैं, लेकिन पैसा और शोहरत केवल नासिर शेख को ही मिल रहीा है। उसके सारे दोस्त एक-एक कर उससे अलग हो जाते हैं।
एक कहानी लेखक कवि फारुख (विनीत कुमार सिंह) की है जो मुंबई जाकर बड़ा स्क्रिप्ट राइटर बनना चाहता है। वह स्थानीय अखबार में साहित्य पर साप्ताहिक कालम लिखता है। उसने एक स्क्रिप्ट नासिर शेख को भी दी है पर नासिर उसके बदले दूसरी तरह की कमर्शियल फिल्में बनाता चला जाता है। फारुख का दिल टूट जाता है जब एक दिन घर आने पर उसे पता चलता है कि उसकी सौतेली मां ने वे सारे अखबार रद्दी के भाव बेच दिया जिनमें उसके कॉलम छपे थे और बड़ी मुश्किल से उसने उन्हें अपनी पूंजी समझकर जमा कर रखा था। वह मुंबई चला जाता है। वहां भी उसे असफलता हीं हाथ लगती है और एक दिन पिता की मृत्यु पर थका हारा वही वापस मालेगांव पहुंचता है। उधर तृप्ति की भी अलग कहानी है। वह हीरोइन बनने का सपना देखती है और अपनी तुलना श्रीदेवी से करती रहती। हकीकत में वह अपने पति से प्रताड़ित है और रोज मार खाती है। फिल्म की शूटिंग के दौरान उसे नासिर शेख के एक दोस्त शफीक से इश्क हो जाता है। तभी पता चलता है कि शफीक को कैंसर है। उधर मुंबई में थोड़ी बहुत सफलता हासिल करने वाले मालेगांव के एक अभिनेता आसिफ अलबेला की पटकथा पर फिल्म बनाना नासिर शेख को भारी पड़ जाता है । फिल्म बुरी तरह फ्लॉप हो जाती है और नासिर शेख का सारा पैसा डूब जाता है। नासिर शेख को अब अपनी गलती का अहसास होता है।
मालेगांव में यह 2004 का समय है। बहुत कुछ बदल चुका है। शफीक के कैंसर के इलाज के बहाने एक-एक दोस्त फिर मिलते हैं। लेखक फारूख की माली हालत बहुत खराब है। एक मार्मिक दृश्य में वह नासिर शेख से शराब के लिए 70 रुपए मांगता है। नासिर कहता है कि वह शराब के लिए पैसे नहीं दे सकता। फिर दया करके दे देता है। सारे दोस्त परेशान हैं कि इस हालत से कैसे उबरें। एक दिन लेखक फारूख नासिर से बड़ी महत्वपूर्ण बात कहता है – ” हिंदुस्तानी सिनेमा की किताब में तूने एक पन्ना जोड़ दिया है नासिर। वह मिटेगा नहीं। एक दिन जाना तो सबको है तो डरने का क्या है। बस दुःख तो यही है कि बिना कुछ किए ही चले जाएंगे।” वह आगे कहता है-” हममें से बहुत सारे दोस्त ऐक्टर बनना चाहते थे पर नहीं बन पाए। मेरे पास स्क्रिप्ट है। चलो हम अपनी फिल्म बनाते हैं -“मालेगांव का सुपरमैन।”
नासिर शेख को एक नया रास्ता मिलता है। वह इस फिल्म की तैयारियों में जुट जाता है। एक रूठे हुए दोस्त को मनाता है कि वह विलेन का रोल करे। उसकी पत्नी अपनी सारी बचत के पैसे उसे सौंप देती है जो उसने वकालत से कमाई है। वह तृप्ति को भी कोर्ट से तलाक दिलाकर मुक्त कराती है। सुपरमैन के रोल के लिए नासिर अपने कैंसर से जूझ रहे दोस्त शफीक को चुनता है जो नासिक के अस्पताल में भर्ती हैं। समस्या यह है कि डॉक्टर के बिना उसे लोकेशन पर कैसे ले चला जाए। पहले तो डॉक्टर साथ चलने को मना करता है। नासिर उसे सुपरमैन के बाप का रोल ऑफर कर देता है। सिनेमा में रोल करने का लालच इतना बड़ा है कि डॉक्टर राजी हो जाता है। मालेगांव के ये नौजवान अब स्थानीय साधन और उपकरणों से फिल्म की शूटिंग करते हैं और इतिहास बन जाता है। फिल्म के अंत में स्टीवन स्पीलबर्ग की महान फिल्म’ शिंडलर्स लिस्ट’ की तरह इस कहानी के असली किरदारों के साथ उनकी भूमिका निभाने वाले कलाकारों का परिचय करवाया गया है।
2003 में PSBT के लिए नितिन सुखीजा की बनाई डॉक्यूमेंट्री फिल्म का लिंक मालेगांव के शोले् (डॉक्यूमेंट्री)