द शेमलेस: दो त्रासद ‘स्त्रीत्व’ के बीच जीवन की तलाश



बुल्गेरियाई निर्देशक कॉन्स्टेंटिन बोजानोव Konstantin Bojanov की बनाई हिंदी फिल्म ‘द शेमलेस’ The Shameless की पिछले साल 77वें कान फिल्म फेस्टिवल में बहुत चर्चा हुई, क्योंकि इसकी मुख्य अभिनेत्री Anasuya Sengupta अनसूया सेनगुप्ता, को फेस्टिवल के अनसर्टेन रिगार्ड #uncertainregard में इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का अवॉर्ड मिला। इस फिल्म को देखने के बाद कई लोगों ने डैनी बॉएल की ऑस्कर विजेता फिल्म ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ को भी याद किया… संभवत: इसकी मुख्य वजह भारतीय समाज के सबक्लास के स्ट्रगल के नुआंसेज़ का संवेदनशील चित्रण और उस समाज को एक विदेशी फिल्मकार के नज़रिए से (Western Gaze) दिखाया जाना हो। फिलहाल इस फिल्म के बारे में विस्तार से विस्तार से बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार और सिने-समीक्षक-लेखक अजित राय। अजित राय दुनियाभर में हो रहे प्रतिष्ठित फिल्म फेस्टिवल्स को कवर करते रहे हैं और समसामयिक विश्व सिनेमा पर निरंतर लिखते रहे हैं।
मुंबई फिल्म फेस्टिवल मामी में जिन फिल्मों की सबसे ज्यादा चर्चा रहीं उनमें बुल्गेरियाई निर्देशक कोंस्तानतिन बोजानोव की हिंदी फिल्म ‘द शेमलेस’ भी थी। इसे कोंस्तानतिन बोजानोव ने खुद लिखा भी है। मामी फिल्म समारोह के फोकस साउथ एशिया खंड में यह फिल्म दिखाई गई थी और दर्शक टूट पड़े थे। इस फिल्म के भारतीय निर्माता मोहन नाडार की कंपनी का नाम TPHQ (द प्रोडक्शन्स हेडक्वार्टर्स लिमिटेड) है। एडल्ट और संवेदनशील कंटेंट के कारण इस फिल्म के कुछ दृश्यों की शूटिंग नेपाल में करनी पड़ी थी। ‘द शेमलेस’ इसी साल 17 मई 2024 को 77 वें कान फिल्म समारोह के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण खंड अन सर्टेन रिगार्ड में दिखाई गई थी और इसमें मुख्य भूमिका निभाने वाली अनसूया सेनगुप्ता को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला था।
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इस तरह अनसूया सेनगुप्ता कान फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार पाने वाली पहली भारतीय कलाकार बन गई है। यह भी संयोग है कि पंद्रह साल पहले अनसूया सेनगुप्ता अभिनेत्री बनने मुंबई आई थी और अवसर न मिलने पर प्रोडक्शन असिस्टेंट का काम कर रही थी। अचानक उन्हें यह फिल्म मिली और उन्होंने कान फिल्म समारोह में यह प्रतिष्ठित अवार्ड जीतकर इतिहास रच दिया। कान फिल्म समारोह में पुरस्कृत होने के बाद यह फिल्म दुनियाभर के फिल्म समारोहों में सुर्खियां बटोरती रही। फिल्म में अन्य भूमिकाएं मीता वशिष्ठ, ओमरा शेट्टी, रोहित कोकाटे, औरोशिखा डे आदि ने निभाई है। मीता वशिष्ठ ने भी बेजोड़ अभिनय किया है और ओमरा शेट्टी तो लाजवाब हैं हीं। यह भी सुखद आश्चर्य की बात है कि एक बार फिर से विदेशी निर्देशक भारत में और खासकर हिंदी में फिल्में बनाने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं।
‘द शेमलेस’ अनसूया सेनगुप्ता के चमत्कृत कर देने वाले बेजोड़ अभिनय से तो चौंकाती ही है, गाब्रिएल लोबोस की विलक्षण सिनेमैटोग्राफी भी बेहद प्रभावशाली है जिसमें दृश्य और संवाद एक गहरा तालमेल बनाते हैं। चाहे दिल्ली के जी बी रोड के कोठे पर आधी रात को पुलिस ऑफिसर की हत्या कर भागने का फिल्म का पहला दृश्य हो या ट्रेन की पटरियों के साथ-साथ मुक्ति की तलाश में चलते जाने का अंतिम दृश्य। फिल्म भारत में मुस्लिम समाज की खंडित पहचान और बढ़ते दक्षिणपंथी राजनैतिक वर्चस्व और धार्मिक असहिष्णुता के बीच मजबूरी में सेक्स वर्कर का काम करने वाली दो लड़कियों की आपसी कोमल और असामान्य दोस्ती से बने भारतीय स्त्रीत्व को भी फोकस करती है।

एक मुस्लिम लड़की अपना नाम बदलकर हिंदू लड़की रेणुका (अनसूया सेनगुप्ता) के रूप में दिल्ली के जीबी रोड के कोठे पर सेक्स वर्कर का काम करती है। आधी रात को वह अपने एक ग्राहक की हत्या कर देती है जो पुलिस ऑफिसर है। वहां से भागकर वह मध्यप्रदेश के छतरपुर जैसे छोटे कस्बे के रेड लाइट एरिया में शरण लेती है। रेणुका ड्रग एडिक्ट है और लेस्बियन भी पर पैसा कमाने के लिए सेक्स वर्कर का काम करती हैं। ज्यादा पैसे मिले तो वह अप्राकृतिक मैथुन के लिए भी राजी हो जाती है। वह एक चेन स्मोकर भी है और बिंदास जीवन जीती है। वह निडर और आज़ाद ख्याल है। दिल्ली के अपने एक दलाल के माध्यम से बेहतर जीवन की तलाश में फिलीपींस भाग जाने के लिए वह दिन रात पैसा जमा कर रही है। उसे पता है कि यदि वह पकड़ी गई तो पुलिस ऑफिसर की हत्या के जुर्म में उसे या तो फांसी होगी या आजीवन कारावास या पुलिस उसे एनकाउंटर में मार देगी। यहां उसका सबसे बड़ा ग्राहक एक राजनीतिक पार्टी का स्थानीय दबंग नेता हैं जो विधायक का चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा है।

यहां उसकी मुलाकात पड़ोस में रहनेवाली सत्रह साल की देविका (ओमरा शेट्टी) से होती है। देविका का परिवार खानदानी रुप से वेश्यावृत्ति करता है। उसके घर में तीन पीढियां है। उसकी मां जो उस वेश्यालय की मालकिन है, उसकी दादी जो कभी देवदासी थी और इस समय आध्यात्मिक औरत बन गई है और वह और उसके भाई बहन। देविका इस नरक से मुक्ति चाहती है। उसकी मां ने उसकी बड़ी बहन को दिल्ली के रेड लाइट एरिया के दलालों को धोखे से बेच दिया था। अब वह देविका की वर्जिनिटी का सौदा करने की फिराक में है। घर में तीनों पीढ़ियों की औरतों में लगातार कलह होता रहता है। संक्षेप में कहें तो देविका की मां अंततः इलाके के दबंग राजनेता से भारी कीमत लेकर उसकी वर्जिनिटी का सौदा करती है। वह देविका का एक तरह से बलात्कार करता है। उधर रेणुका के शरीर बेचकर कमाए गए लाखों रुपए चोरी हो जाते हैं। दबंग नेता विधायक का चुनाव जीत चुका है। उसकी जीत का जश्न चल रहा है। उसी रात हमेशा के लिए भाग जाने के वास्ते उस अधबनी इमारत के खंडहर में रेणुका और देविका मिलते हैं, देविका की आपबीती सुनकर रेणुका सन्न रह जाती है। वह उससे कहती हैं कि उसका इंतजार करे। रेणुका गुस्से में जाकर विजय जुलूस में दबंग नेता की हत्या कर देती है और पकड़ी जाती है। नेता के समर्थक उसे पीट-पीट कर मार देते है। इधर देविका रात भर रेणुका का इंतजार करती है। जब वह नहीं लौटती तो अंतिम दृश्य में हम देखते हैं कि देविका अपने सामान गठरी लिए रेलवे लाइन के साथ-साथ चली जा रही है और पूरब में सूर्योदय हो रहा है।


रेणुका (अनसूया सेनगुप्ता) और देविका (ओमरा शेट्टी) ऐसे नारकीय माहौल में एक अधबनी इमारत के एकांत में अपने लिए प्रेम, बहनापे और दोस्ती के क्षण निकाल लेती हैं और कहीं दूर भाग कर नया जीवन शुरू करने का सपना देखती हैं। दोनों के बीच लेस्बियन रिश्ता भी बन जाता है पर फिल्म का कैमरा उनके उत्तेजक शारीरिक विवरण में न जाकर उनके दुःखों का वृत्तांत पेश करता है। दो लड़कियों के बीच दुःख और यातना के अनुभवों की साझेदारी को फोकस करता है। यह देखना दिलचस्प है कि कैसे कैमरा रेणुका के चेहरे पर आनेवाले खुशी और यातना के भावों को एक साथ फोकस करता है। उसकी एक-एक गतिविधि, गति, और संवाद अदायगी की अदा को दिखाता है। हर दृश्य की एक पृष्ठभूमि है जिसके सामाजिक और राजनीतिक मायने बनते हैं। फिल्म कहीं से भी अलग से कोई नैतिक उपदेश देने की कोशिश नहीं करती और न ही किसी पर कोई आरोप लगाती है। परिस्थितियों और मानवीय संवेदनाओं के जरिए पटकथा का ताना-बाना बुना गया है। एक तरफ दादी (मीता वशिष्ठ) की निष्क्रिय आध्यात्मिकता है तो दूसरी तरफ मां की खानदानी जिम्मेदारी निभाने की क्रूरता तो इन सबसे ऊपर बेटी की मुक्ति-लालसाएं है। इन तीनों पीढ़ियों की औरतों को नियंत्रित करने और अपना गुलाम बनाने की मर्दवादी कोशिशें भी कम नहीं है। कुछ लोगों को लग सकता है कि फिल्म के अंतिम दृश्यों में एक खास राजनीतिक पार्टी को कटघरे में खड़ा करने से फिल्म कमजोर हो गई है और इसी वजह से इस फिल्म का भारत में प्रदर्शित होना मुश्किल जान पड़ता है। हालांकि यह निर्देशक का अपना चुनाव है।