कान 2025 (2): सिनेमा के ज़रिए रूस पर वार… ‘टू प्रॉसीक्यूटर्स’



फ्रांस में 78वां कान फिल्म समारोह शुरू हो चुका है। भारत के वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजित राय इस साल भी कान पहुंचे हुए हैं। कान फिल्म फेस्टिवल में प्रीमियर हो रही है ‘टू प्रोसीक्यूटर्स’, जो एक सोवियत काल की ड्रामा फिल्म है। इसे प्रसिद्ध यूक्रेनी निर्देशक सर्गेई लोज़नित्सा ने बनाया है। यह फिल्म सोवियत शासन में न्याय और नैतिकता जैसे मुद्दों की पड़ताल करती है और पाम डी’ओर के लिए एक मजबूत दावेदार है। यह लगातार तीसरा साल है जब कान फिल्म फेस्टिवल रूस से चल रहे युद्ध के बीच यूक्रेन के साथ एकजुटता दिखा रहा है। फिल्म के प्रीमियर पर अजित राय की खास रिपोर्ट। अजित राय वरिष्ठ पत्रकार-फिल्म समीक्षकहैं जो दुनिया भर में घूमकर अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल कवर करते रहे हैं। उद्योगपति हिंदुजा बंधुओं के बॉलीवुड कनेक्शन और डिस्ट्रीब्यूशन के ज़रिए भारतीय फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय फलक तक ले जाने के उनके योगदान पर अजित राय ने पिछले साल एक पुस्तक Hindujas And Bollywood लिखी थी, जो खासी चर्चित रही है। प्रस्तुत है कान से भेजी उनकी दूसरी रिपोर्ट।

विश्व प्रसिद्ध यूक्रेनी फिल्मकार सर्गेई लोज़नित्सा ने अपनी नई फिल्म ‘टू प्रोसीक्यूटर्स’ में 88 साल पहले के रुस में घटित राजनीतिक घटनाओं के माध्यम से आज के रुस की छवियां दिखाने की कोशिश की है। तब स्टालिन थे आज पुतिन हैं। हालांकि कान फिल्म समारोह में दिखाई गई उनकी पिछली फिल्में अ जेंटल क्रीचर (2017) और ‘डोनबास (2018) भी इसी विषय पर थी।
यह फिल्म एक राजनैतिक थ्रिलर है जो हमें 1937-38 के रुस में स्तालिन युग के उस खौफनाक दौर में ले जाती है जब झूठे आरोप लगाकर और महान सोवियत क्रांति का गद्दार होने के संदेह में करीब दस लाख निर्दोष नागरिकों को यातना देकर मार डाला गया था। सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी यानि कोमिटेट गोसुदार्स्तवेन्वाय बेजोपास्नोस्ती (13 मार्च 1954 से 3 दिसंबर 1991) की स्थापना से पहले एनकेवीडी (10 जुलाई 1934 से 15 मार्च 1946) नामक एजेंसी होती थी जिसने दस लाख निर्दोष लोगों को मारा था। केजीबी के खत्म होने के बाद अब जो सरकारी खुफिया एजेंसी 3 अप्रैल 1995 से रूस में कार्यरत हैं और वही सब कारनामे करती है जो कभी केजीबी करती थी, उसे एफएसबी (फेडेरल सिक्योरिटी सर्विस) कहा जाता है।

लोज़नित्सा का कहना है कि यह फिल्म रुस के एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक और राजनीतिक कैदी जॉर्जी डेमिडोव के एक उपन्यास पर आधारित है जिन्होंने करीब चौदह साल जेल में बिताए और भयानक यातनाएं झेलीं है। उन्होंने रुस की जेलों में राजनैतिक कैदियों की भयानक प्रताड़ना का रोज़नामा लिखा है। यह उपन्यास 1969 में लिखा गया था जब रुसी शासन की तानाशाही के खिलाफ कोई भी आवाज उठाने की हिम्मत नहीं करता था। इस उपन्यास की पांडुलिपि को तब रुसी खुफिया एजेंसी के जी बी ने ज़ब्त कर लिया था। लेखक की मृत्यु के बाद 1980 में लेखक की बेटी के अनुरोध पर यह पांडुलिपि लौटाई गई। पर यह पांडुलिपि 2009 तक छप नहीं सकी। लोज़नित्सा का कहना है कि इस कहानी को दुनिया के सामने आने के लिए 40 साल इंतजार करना पड़ा।
जब से रुस ने यूक्रेन पर हमला किया है तब से कान फिल्म फेस्टिवल एकतरफा यूक्रेन का समर्थन कर रहा है और इसीलिए यहां रुसी फिल्में और फिल्मकार लगभग प्रतिबंधित है। दो साल पहले कान फिल्म समारोह के उद्घाटन समारोह में यूक्रेन के राष्ट्रपति ब्लादिमीर जेलेंस्की का संदेश सुनाया गया था। इस बार न सिर्फ सर्गेई लोज़नित्सा की यह फिल्म मुख्य प्रतियोगिता खंड में दिखाई गई है बल्कि उद्घाटन के दिन यूक्रेन की तीन फिल्मों का विशेष प्रदर्शन किया गया जिसमें एक फिल्म राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की के जीवन पर आधारित है।

‘टू प्रॉसीक्यूटर्स’ रुस के एक दूर दराज के छोटे से शहर में अलेक्जेंडर कोर्निएव नामक एक युवा प्रॉसीक्यूटर की कहानी है जिसकी नई नई नियुक्ति हुई है। उसके पास अचानक एक दिन कार्ड बोर्ड के टुकड़े पर खून से लिखा हुआ पत्र पहुंच जाता है जिसमें न्याय की गुहार लगाई गई है। पत्र लिखने वाला इंसान स्टेपनिक बोल्शेविक पार्टी का कार्यकर्ता हैं जो अपने देश से बेइंतहा प्यार करता है। स्थानीय खुफिया पुलिस एन के वी डी द्वारा लाख प्रताड़ना दिए जाने के बावजूद वह गद्दारी के झूठे हलफनामे पर दस्तखत नहीं करता है। जेलर ने एक कैदी की ड्यूटी लगाई है कि वह उन कैदियों द्वारा कॉमरेड स्टालिन को लिखे सभी पत्रों को चुपचाप सावधानी से जला दे। ऐसे हजारों पत्रों को जला दिया जाता है जिसमें कैदियों ने स्टालिन से न्याय की गुहार लगाई है कि उनके मामले की दोबारा सुनवाई हो। यहां से युवा प्रॉसीक्यूटर अलेक्जेंडर कोर्निएव की एक ऐसी यात्रा शुरू होती है जिसमें हम इतिहास के बड़े-बड़े गुनाह होते देखते हैं जिसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं है। कोर्निएव उस खून से लिखे पत्र को लेकर कानूनी तरीके से जेल में स्टेपनिक से मिलता है। वहां उसे गैरकानूनी तरीके से राजनीतिक कैदियों की प्रताड़ना और झूठे मामले में फंसाने की अनगिनत हृदयविदारक कहानियां पता चलती है। स्टेपनिक अपने कपड़े उतार कर उसे प्रताड़ना और हिंसा के निशान दिखाता है। प्रॉसीक्यूटर अलेक्जेंडर कोर्निएव इस भ्रम में हैं कि शायद मॉस्को में बैठे उच्चाधिकारियों को इस अन्याय का पता नहीं है। वह उन्हें न्याय दिलाने के लिए मॉस्को की यात्रा करता है और रुस के सबसे बड़े अधिकारी मुख्य प्रॉसीक्यूटर विशिंस्की से मिलने में सफल हो जाता है। जैसे ही वह विशिंस्की को खुफिया पुलिस एनकेवीडी के अत्याचारों की सारी बातें बताता है, वह खुद जांच के घेरे में आ जाता है। विशिंस्की उसे इन अत्याचारों के मेडिकल सबूत इकट्ठा करने के बहाने टाल देता है और वापस भेज देता है। ट्रेन में यात्रियों के भेष में खुफिया पुलिस के अधिकारी उसे घेरे हुए है और जब उसका शहर आता है तो वे उसे धोखे से कार में लिफ्ट देने के बहाने अगवा कर लेते हैं। वे उसे उसके खिलाफ मॉस्को ऑफिस से जारी वारंट दिखाकर उसे उसी भयानक जेल में ले जाते हैं जहां से फिल्म की कहानी शुरू हुई थी। अंतिम दृश्य में हम देखते हैं कि एक गाड़ी जेल के अंदर जा रही है और जेल का विशाल फाटक बंद हो रहा है।

अपनी पिछली फिल्मों की तरह सर्गेई लोज़नित्सा ने फिल्म में सबकुछ यथार्थवादी रखा है और ओलेग मुतू की सिनेमैटोग्राफी बहुत उम्दा है। लाटीविया की राजधानी रीगा में फिल्म की शूटिंग हुई है। कई दृश्य बहुत ही प्रभावशाली है। सभी कलाकारों ने शानदार अभिनय किया है खासकर युवा प्रॉसीक्यूटर की भूमिका में अलेक्जेंडर कुजनेत्सोवा और कैदी की भूमिका में अलेक्जेंडर फिलिपेंको के पावरहाउस अभिनय बेमिसाल है। ट्रेन यात्रा में प्रथम विश्व युद्ध की कहानियों को गीतों में सुना रहा एक पूर्व सैनिक अपने अभिनय से सबका ध्यान खींचता है। जेल के भीतर और बाहर के दृश्य बहुत प्रभावशाली है। लोज़नित्सा ने स्टाइलाइज्ड शैली में कम से कम दृश्यों में फोकस किया है। कुल मिलाकर कर रुस में स्टालिन युग की भुला दी गई यह कहानी आज के रुस में व्लादिमीर पुतिन के शासन तक आती है।