

हाल में रिलीज़ हुई फिल्म सॉन्ग्स ऑफ पैराडाइज़ की खासी चर्चा हो रही है, खासतौर पर इस फिल्म के लय और सुर की। फिल्म के निर्माताओं में इसके लेखक-निर्देशक दानिश रेन्ज़ू के साथ-साथ रितेश सिधवानी और फ़रहान अख्तर के नाम भी शामिल हैं। दानिश भारतीय मूल के कश्मीर में पैदा हुए लॉस एंजेलिस स्थित फिल्मकार हैं जहां से उन्होने सिनेमा का प्रशिक्षण भी लिया है। सॉन्ग्स ऑफ पैराडाइज़ संभवत उनकी तीसरी फीचर फिल्म है। क्या खास है इस फिल्म में जानिए इस फिल्म की समीक्षा के ज़रिए जिसे इरशाद दिल्लीवाला ने लिखा है। इरशाद दिल्लीवाला एक फिल्ममेकर, वीडियो एडिटर, डिज़ाइनर और लेखक हैं। उन्होंने फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया (FTII), पुणे से वीडियो और फिल्म प्रोडक्शन में प्रशिक्षण प्राप्त किया है। अब तक वे 1,500 से अधिक वीडियो एडिट कर चुके हैं, जिनमें डॉक्यूमेंट्री, कमर्शियल्स, पॉडकास्ट, प्रोमो, म्यूज़िक वीडियो और न्यूज़ एपिसोड शामिल हैं। उनकी शॉर्ट फिल्म वापसी – द रिटर्न को 2010 में मुंबई फिल्म महोत्सव (MAMI) में प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बतौर लेखक और समीक्षक वे लगातार सिनेमा को संवेदनशील दृष्टिकोण और तकनीकी गहराई से तलाशते रहते हैं।
अगर आप एक सीधी, सपाट लेकिन ख़ूबसूरत फिल्म देखना चाहते हैं तो Songs of Paradise आपके लिए है। यह ऐसी फिल्म है जो दिमाग़ को किसी तरह की उलझन में डाले बिना, एक सीधी लकीर पर चलती है। निर्देशन किया है Danish Renzu ने।
Songs of Paradise दरअसल कश्मीर की मशहूर गायिका पद्मश्री राज बेग़म की ज़िंदगी से प्रेरित एक बायोपिक है। यह सच्ची घटनाओं पर आधारित वह दास्तान है, जब 1952 के दौर में कश्मीर में गायिकी को धर्म के उसूलों के ख़िलाफ़ समझा जाता था। उस वक़्त एक औरत का गाना गाना, अपनी आवाज़ को दुनिया तक पहुँचाना, इज़्ज़त और परंपरा के ख़िलाफ़ माना जाता था।
इसी पृष्ठभूमि में सबा आज़ाद ने ‘नूर बेग़म’ का किरदार निभाया है, जो राज बेग़म की आत्मा और उनके जज़्बे को आवाज़ देती हैं। फिल्म दिखाती है कि कैसे पारिवारिक विरोध और सामाजिक तंगनज़री के बीच भी वह अपनी कला को बचाने की आख़िरी कोशिश करती हैं। जब कट्टरपंथी उनके सारे टेप और रिकॉर्डिंग्स नष्ट कर देते हैं, तब भी नूर हार नहीं मानतीं। वह न सिर्फ़ अपनी आवाज़ को ज़िंदा रखती हैं बल्कि कश्मीर की तमाम लड़कियों के लिए एक मिसाल बन जाती हैं — कि फ़न को दबाया जा सकता है, मिटाया नहीं।

इस सफ़र में फिल्म यह भी साबित करती है कि कला महज़ सुरों और रागों का नाम नहीं, बल्कि एक इंक़लाब है, जो तंगदिल सोच और बंदिशों से टकराकर भी ज़िंदा रहता है। Songs of Paradise कश्मीर की वही अदबी तहज़ीब और ख़ूबसूरत शायरी सामने लाता है, जिसे अक्सर ग़लत धारणाओं और सियासी “फ़ाइलों” के नीचे दबा दिया जाता है।
ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी के फिल्मों के नाम से मिलती जुलती इस फिल्म में खूबियां और खामियां दोनों हैं। हैरत की बात यह है कि यह फिल्म Excel Entertainment की है। वही प्रोडक्शन हाउस जिसने हमें Gully Boy जैसा शाहकार दिया था। उनकी परंपरा का कहीं भी रंग इस फिल्म पर नहीं चढ़ पाया। निर्देशक Danish Renzu की पकड़ ढीली रही, कास्टिंग भी किरदारों के मुताबिक़ नहीं बैठ सकी। फिल्म में ईरानी सिनेमा का असर ज़रूर दिखता है, लेकिन न वह ईरानी फिल्म जैसी बन पाई, न कश्मीरी फिज़ाओं की महक ला सकी और न ही OTT के दर्शकों को मोह लेने वाली कोई नई बात कर सकी।
हाँ, कैमरे की आँख बोलती है। सिनेमैटोग्राफ़र Vincenzo Condorelli ने अपने शानदार फ्रेम्स से फिल्म को एक हद तक सँभाला। उनकी फ्रेमिंग में ख़ूबसूरती भी है और ज़रूरत की नफ़ासत भी। वहीं Hemanti Sarkar ने एडिटिंग से फिल्म को बोरिंग होने से बचाने की कोशिश की, मगर कमज़ोर स्क्रीनप्ले ने सब कुछ फीका कर दिया। ऐसा लगता है जैसे फिल्म कश्मीर में नहीं बल्कि किसी माचिस की डिब्बी में शूट की गई हो। दो जगह से बाहर यह फिल्म शायद ही निकलती है – घर और स्टूडियो। एक ही माहौल बार-बार सामने आने से घुटन-सी महसूस होती है।
OTT के इस दौर में, जहाँ हर सात-आठ सेकंड में कहानी को मोड़ देना ज़रूरी हो जाता है, वहां यह फिल्म न पिछले फ्रेम का असर छोड़ती है और न ही अगले फ्रेम का इंतज़ार करवाती है। सब पहले से मालूम है, और वैसा ही होता है। निर्देशक अपने आराम और सहूलियत से फिल्म को घसीटते हैं।
फिर भी, सबा आज़ाद की मेहनत नज़र आती है। उनका काम क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। आख़िरी सीन में जब कहा जाता है कि नूर बेग़म की नवासी उन्हीं का गीत पेश करेगी, तब आलिया भट्ट का आना फिल्म को एक नई रोचकता दे सकता था। और शायद वह इस मेहमान भूमिका को ठुकराती भी नहीं, क्योंकि नूर बेग़म का किरदार उनकी अपनी माँ Soni Razdan निभा रही थीं। दिलचस्प यह है कि उनके अभिनय में पूरी तरह से आलिया भट्ट की छवि बार-बार झलकती रही।
Songs of Paradise एक म्यूज़िकल ड्रामा है, जिसकी रूह ही संगीत है। गीत कर्णप्रिय हैं, मगर आत्मा में उतरकर याद रह जाने वाले नहीं। यह भी निर्देशन की कमज़ोरी की एक बड़ी निशानी है।
फिल्म की एक चीज़ जिसकी खुलकर तारीफ़ की जा सकती है, वो हैं इसके संवाद। यहाँ दिल को छू लेने वाले, हौसला बढ़ाने वाले और सोचने पर मजबूर कर देने वाले जुमले सुनाई देते हैं। मानो हर डॉयलॉग एक पैग़ाम की तरह दिल तक उतरता चला जाता है। इस लिहाज़ से Niranjan Iyengar और Sunayana Kachroo की मेहनत और समझ क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। उन्होंने शब्दों में ऐसी ताक़त भरी है कि कमजोर स्क्रीनप्ले और ढीले-ढाले निर्देशन के बावजूद कई जगह फिल्म संभल जाती है। कई डायलॉग्स ऐसे हैं जो देर तक कानों में गूंजते रहते हैं, यही फिल्म की सबसे बड़ी खूबसूरती है कि इसके अल्फ़ाज़, इसके जुमले, कहीं न कहीं दर्शक के दिल को छूकर जाते हैं।
फ़रहान अख़्तर और रितेश सिधवानी प्रोड्यूसर हैं। इनके साथ जोया और रीमा कागती भी इस ग्रुप में हैं। यह टीम किस तरह का सिनेमा बनाती है, यह सबको मालूम है। मगर Songs of Paradise उनकी उस परंपरा से एकदम परे नज़र आती है। स्क्रीनप्ले को लेकर गंभीर मेहनत हो सकती थी, मगर कश्मीर का तंग माहौल, या धर्म के नाम पर लगाई गई पाबंदियाँ—ये सब कुछ ऐसे ढीले ढाले अंदाज़ में परोसा गया कि असर बिल्कुल खो गया।
यह फिल्म एक यादगार सिनेमाई तजुर्बा बन सकती थी, लेकिन कमज़ोर स्क्रीनप्ले और निर्देशक की असमंजस भरी सोच ने बाक़ी कलाकारों की मेहनत पर भी धुंधला परदा डाल दिया।
