‘अब दिल्ली दूर नहीं’: IAS बनने दिल्ली आए बिहारी छात्र की कहानी

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Alok Nandan Sharma

राजधानी दिल्ली में एक दुनिया उन छात्रों की भी है जो तमाम राज्यों से (प्रमुखत: यूपी, बिहार) से यूपीएससी यानी सिविल सर्विसेज़ की तैयारी करने आते हैं। थोड़ा थोड़ा कहीं कहीं फिल्मों और सीरीज़ में इन्हे छुआ गया है। इस पर सबसे हालिया और एक बेहतर सीरीज़ थी TVF की बनाई एस्पिरेंट्स (यूट्यूब पर उपलब्ध है।) हाल में रिलीज़ हुई नई फिल्म ‘अब दिल्ली दूर नहीं ‘भी इसी दुनिया के भीतर एक नज़र डालती है… एक बिहारी छात्र के दिल्ली आने और अपने सपने को पूरा करने की कोशिश के नज़रिए से। इस फिल्म की खास बात ये है कि इसे लिखा है टीवी न्यूज़ की दुनिया के जाने पहचाने चेहरे और वरिष्ठ पत्रकार दिनेश गौतम ने और इसमें फिल्मकार महेश भट्ट भी पर्दे पर दिखाई देते हैं। फिल्म की समीक्षा पेश कर रहे हैं आलोकनंदन शर्मा। आलोकनंदन पटना स्थित एक पत्रकार-लेखक-चिंतक हैं, जो अपने व्यापक अनुभवों और गहन अध्ययन के बूते समाज, इतिहास और जीवन-दर्शन को समग्रता के साथ-साथ व्यावहारिकता की सूक्ष्मता के स्तर पर भी आंकलन की क्षमता रखते हैं। फिल्मों को लेकर उनका बेहद खास और एक बिलकुल अलग नज़रिया रहा है।

भारतीय प्रशासनिक सिविल सेवा की परीक्षा क्रैक करने का सपना लेकर हर साल बिहार से बड़ी संख्या में नौजवान दिल्ली की ओर कूच करते हैं। यहां की जिंदगी उन्हें अपने तरीके से प्रभावित करती है, कुछ पर यहां के माहौल का रंग चढ़ता है, तो कुछ इससे अछूता रहते हुए अर्जुन की तरह अपने लक्ष्य को साधने की तरफ बढ़ रहे होते हैं, कुछ लोग दो-चार कदम आगे बढ़ने के बाद फिसलते हैं फिर संभलते हुए अपनी मंजिल को हासिल करने में कामयाब होते हैं। फिल्म ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ एक ऐसे ही सवर्ण बिहारी युवक अभय शुक्ला की कहानी है जिसके पिता गांव में किसानी करते हैं और मां दूसरों के घरों में काम करती  है।

अपने बुलंद इरादों के साथ अभय  दिल्ली आता है, पहले वह अपने एक साथ कमरा शेयर करता है फिर अलग कमरा ले लेता है। जिस मकान में रहता है उसकी बेटी से उसे मुहब्बत भी हो जाती है। उसे लगता है कि जिंदगी बहुत आसान होने वाली है, एक अच्छी माशूका तो उसे मिल ही चुकी है, अब उसके सामने एक मात्र लक्ष्य सिविल सर्विस की परीक्षा को क्रैक करना है। लेकिन पुरजोर मेहनत करने के बावजूद जब उसका सलेक्शन नहीं होता है तो वह बुरी तरह से टूट जाता है और अपनी असफलता का दोष आरक्षण के सिर पर मढ़ता है। उसे लगता है कि सवर्ण होना उसके लिए गुनाह है। यदि वह आरक्षित वर्ग से होता तो उसका सेलेक्शन निश्चित तौर पर हो गया होता। उससे कम अंक हासिल करने वाले आरक्षित वर्ग के छात्रों का सलेक्शन हो जाता है जबकि मेरिट होने के बावजूद उसके हिस्से में असफलता आती है। उसके हाथ में सिर्फ आखिरी अटेम्प्ट बचता है। उसे लगता है कि उसकी माशूका भी उससे किनाराकशी कर रही है,लेकिन हकीकत कुछ और होती है। नई परिस्थितियों में डाल कर वह अभय को इस बात का अहसास कराती है कि अपनी असफलता के लिए व्यवस्था पर दोषारोपण करने से कुछ हासिल नहीं होगा, मेहनती लोग चुनौतियों के सामने घुटने नहीं टेकते हैं बल्कि डटकर खड़े होते हैं और अपनी मंजिल को पाकर ही दम लेते हैं।

अभय की भूमिका में इमराज जाहिद ने प्रभावशाली अभिनय किया है और उनकी समझदार और सचेत माशूका के रूप में श्रुति सोढ़ी के अभिनय में भी ताजगी है। श्रुति सोढ़ी की आंखे काफी एक्सप्रेसिव हैं। इन दोनों कलाकारों के अभिनय में सहजता है, और यही फिल्म की ताकत भी है। दर्शक खुद को इन कलाकारों से कनेक्ट कर लते हैं। पूरी फिल्म देखने के दौरान कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि कुछ इंपोज किया जा रहा हो। पूरी कहानी सहज और सरल तरीके से आगे बढ़ती है,अभय के गांव से दिल्ली आने से लेकर उसके सिविल सेवा की परीक्षा में चयन होने तक। कहानी में कहीं कोई जर्क नहीं है, यदि कुछ अनावश्यक सीन्स से परहेज किया जाता तो फिल्म और भी सहज होती। जैसे अभय के मूछों को लेकर उसकी माशूका की टीका टिप्पणी के बाद उसके द्वारा मूछों का हटाना, नायिका को प्रोपोज करने के पहले उसके द्वारा प्रैक्टिस किया जाना, अपनी माशूका के पारिवारिक मामलों में खुद को इन्वॉल्व करना आदि। दिल्ली में आने के बाद अभय का अचानक से अपनी  माशूका को लेकर बाइक की सवारी करना वो भी बिना हेलमेट के थोड़ा सा खटकता है। यदि यह आम फार्मूला मुंबइया फिल्म होती तो इस सीन को इग्नोर किया जा सकता था, लेकिन यहां तक अभय शुक्ला भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी करने लिए देश की राजधानी दिल्ली आया है, अपनी माशूका के साथ वह बिना हेलमेट के बाइक की सवारी भला कैसे कर सकता है? हालांकि इसके पहले एक गाना ‘उठा के बोरी और बिस्तर कहां फंस गये ओ मिस्टर’में अभय शुक्ला को हेलमेट लगाकर बाइक चलाते हुए दिखाया गया है, जबकि उसका दोस्त हेलमेट को हाथ में लिए हुए है।  

बिहार से दिल्ली आकर आईएएस बनने की तैयारी वाले ज्यादातर युवक मुखर्जी नगर में रहते हैं या फिर क्रिश्चियन कॉलनी और इसके आसपास के इलाकों में। सड़कों के किनारे खुली हुई चाय की टपरियों की इनकी संघर्षमय जिंदगी में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। फिल्म के लेखक दिनेश गौतम यदि अभय के प्यार वाले  प्रकरण को थोड़ा कम करते हुये वहां सिविल सर्विस की तैयारी करने वाले युवकों की जिंदगी के किस्सों को उकेरते तो फिल्म और प्रभावशाली होती, इसके कनेक्टिविटी का दायरा भी बढ़ता। इस काम में स्क्रीनप्ले और डायलॉग लेखन में उनके सहायक मोनाजिक आलम और स्वाति से भी चूक हुई है। इसके अलावा फिल्म के मुख्य किरदार अभय के साइकोलॉजिकल डेवलपमेंट और बदलावों पर ध्यान दिया जाता तो और बेहतर होता।

अभय के कमरे में एक दोस्त द्वारा एक महिला को आंटी बताकर लाने का सीन तो क्रिएट किया गया है लेकिन यह सीन भी अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाता है। दिल्ली के क्रिश्चियन कॉलोनी और मुखर्जी नगर में  सिविल सर्विस की परीक्षा देने वाले छात्रों की दिन रात की चहलकदमी तो पूरी तरह से फिल्म से गायब ही है। कोचिंग के क्लास वाले कुछ सीन्स जरूर हैं लेकिन उनका कंपोजिशन भी असरकारक अंदाज में नहीं हुआ है। चिल्लाकर के अपने आप को बलिया का  बता कर क्लास में इंट्रोड्यूस एक सिविल सर्विस की तैयारी करने वाले छात्र के आत्मविश्वास का मापदंड तो नहीं हो सकता। फिल्म के लेखकों की टीम यदि यूपीएससी के लिए विषय के चयन, तैयारी की विधि, पढ़ने के तौर तरीके आदि को लेकर क्लास वाले सीन्स बनाती तो निश्चितौर पर इस फिल्म की उपयोगिता में गुणात्मक इजाफा होता।

इस फिल्म की एक खास विशेषता मशहूर फिल्मकार महेश भट्ट का पर्दे पर आगमन है। फिल्म की शुरुआत से ही वह अपने खास अंदाज में अभय का इंटरव्यू करते हुए नजर आते हैं। अपने सवालों के जरिये वह फिल्म को नया मोड़ और गति देने का काम करते हैं। यह इंटरव्यू अभय द्वारा सिविल सर्विस की परीक्षा क्रैक करने के बाद लिया जाता है। एक साक्षात्कारकर्ता  के रूप में महेश भट्ट को पर्दे पर देखना सुखकर लगता है। लेकिन अभय शुक्ला का साक्षात्कार लेते हुए महेश भट्ट खुद को इंट्रोड्य़ूस करना उचित नहीं समझते हैं, फिल्मकार ने शायद इसकी जरूरत भी नहीं समझी है। इतना नहीं जिस कार्यक्रम की महेश भट्टे एंकरिंग कर रहे हैं उसका नाम जैसा कि उनके पीछे दिखता है ‘बात निकलेगी तो..’ है। इसे अंग्रेजी में लिखा गया है, बेहतर होता इसे हिन्दी में लिखा जाता और ऑडियंस के लिए कार्यक्रम की शुरुआत करने के एंकरिंग के रिवाज के मुताबिक खुद को इंट्रोड्यूस भी करते।  

बिहार, यूपी या अन्य हिन्दी भाषी इलाकों में दरिद्र से दरिद्र ब्राह्मण का चाहे वह बच्चा ही क्यों न हो अपमान करने का रिवाज नहीं है। किसी भी ब्राह्मण का अपमान करने से पहले हिन्दी भाषी इलाकों में व्यक्ति हजार बार सोचता है। महेश भट्ट के एक प्रश्न के जवाब में अभय शुक्ला का यह कहना है कि उन्हें पांच वर्ष की उम्र में एक घर से इसलिए निकाल दिया गया कि कि उनके पिता मेहनतकश इंसान है थोड़ा अटपटा लगता है। बिहार के गावों में व्यक्ति की पहचान उसके काम से नहीं बल्कि उसकी जाति से होती है। और किसी ब्राह्रमण जाति के बच्चे को किसी भी वजह से अपने घर से जबरन निकालने की हिमाकत कोई भी व्यक्ति नहीं कर सकता है चाहे वह किसी भी जाति का क्यों न हो। एक आईएएस ब्राह्रमण के मुंह से इस तरह के डायलॉग बिहार की सामाजिक स्थिति की समझ रखने वाले दर्शकों को चुभती है। वैसे ‘फिल्मी लिबर्टी के नाम पर सबकुछ चलता है’ के तहत इसे सहजता से लिया जा सकता है।       

बहरहाल फिल्म की शुरुआत में ही स्क्रीन पर महेश भट्ट के विशेष सहयोग के लिए पूरी टीम की ओर से उन्हें धन्यवाद भी दिया गया है। आईपीएस मंगेश कश्यप, आईएएस गोविंद जायसवाल, आईएस कुणाल को भी विशेष रूप से धन्यवाद दिया गया है। फिल्म  ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ का निर्माण ए मूनलाइट फिल्म एंड थियेटर स्टूडियो और शाइनिंग सन स्टूडियो के सहयोग से  ए के मिश्रा ने किया है।  फिल्म के निर्देशक कमल चंद्रा है। समय के साथ उन्हें और मैच्योर होना होगा।     

 फिल्म क्यों देखे :सिविल सर्विसेज़ की तैयारी करने वाले छात्रों की मनोदशा को समझने के लिए।

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