‘गमन’ : इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है?

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70 के दशक में भारतीय न्यू वेव सिनेमा उरूज पर था तब अपने सामाजिक-राजनैतिक नज़रिए से आम लोगों के रोज़मर्रा के जीवन से जुड़ी जिन कुछ फिल्मों ने नए दरवाज़े खोले थे, उनमें एक थी निर्देशक मुज़फ्फ़र अली की गमन। ‘गमन’ काम की तलाश में गांव छोड़ शहर का रूख करने वाले लोगों के जीवन पर आधारित थी। 21 अक्टूबर को मुज़फ्फ़र अली के जन्मदिन के मौके पर ‘सिनेमा के साहित्य की समीक्षा’ के तहत प्रस्तुत है मुज़फ्फ़र अली की 1978 में बनाई फिल्म गमन की समीक्षा, अजय चंद्रवंशी की कलम से। मुज़फ्फ़र अली अपनी दो फिल्मों के लिए खासतौर पर जाने जाते हैं, एक ‘गमन’, दूसरी ‘उमराव जान’। करीब 44 साल पुरानी इस फिल्म के मूल प्रश्न आज भी प्रासंगिक हैं। इस सीरीज़ में हम किसी फिल्म के कथानक के साहित्यिक-सामाजिक पक्ष पर एक समीक्षा देते हैं, क्योंकि सिनेमा साहित्य से ही बनता है। लेखक-समीक्षक अजय चंद्रवंशी बतौर शिक्षा अधिकारी कवर्धा, छत्तीसगढ़ में कार्यरत हैं।

देश मे आर्थिक असमानता का स्तर भयावह रहा है। एक तरफ ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएं हैं, सुख-सुविधाओं के तमाम साधन हैं तो दूसरी तरफ बहुतों के लिए रात में सोने के लिए एक कमरा तक नहीं है जिसे वह घर कह सके। यह स्थिति पचास साल पहले थी, थोड़े बहुत सुधार के बाद आज भी है।

ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ भूमि के असमान वितरण के कारण बहुसंख्यक कम ज़मीन वाले किसान तथा भूमिहीन मजदूर बड़े भूस्वामियों/ज़मीदारों पर निर्भर रहे हैं और उनके शोषण का शिकार होते रहे हैं, ऎसे किसान/मजदूर बेहतर भविष्य की उम्मीद में शहरों की तरफ आकर्षित होते रहे हैं और पलायन करते रहे हैं। मगर शहरों की अपनी समस्याएं भी होती हैं। वहां रोज़गार के बेहतर अवसर तो होते हैं मगर रहने के लिए न तो आश्रय होता है न ही छोटे कामों में इतनी कमाई होती है कि जीवन की सुविधाएं जुटाई जा सकें। अनामिकता इस कदर कि किसी की मौत भी किसी को पल भर विचलित नहीं करती और शहर की गतिविधि में कहीं ठहराव नहीं आता। इसलिए शहर में बेहतर भविष्य के लिए आगमन बहुधा निराशाजनक ही रहता रहा है। हाँ झूठ, फ़रेब,  बेईमानी, अपराध में लिप्त अवश्य फलते-फूलते हैं।

फ़िल्म ‘गमन’ की कहानी अवध प्रान्त के लखनऊ के पास के एक गांव ‘कोटवारा’  से जुड़ी है। गुलाम हसन एक छोटा किसान है, जो अपनी माँ और पत्नी ‘खैरुन’ के साथ जैसे-तैसे जीवन निर्वाह कर रहा है। ज़मीन कम होने से जीवन निर्वाह कठिन है, इसलिए माँ कुछ काम करने का दबाव डालती है, मगर दिक्कत यह है कि वहां काम है नहीं। जो थोड़ी बहुत ज़मीन है उस पर ज़मीदार की स्वेच्छाचारिता चलती है। यह हाल अकेले गुलाम अहमद का नहीं अधिकांश व्यक्तियों का है।

कुछ लोग गांव से रोजगार के लिए बम्बई जैसे महानगर गए हैं। ये जब बीच-बीच में गांव आते हैं तो कुछ ‘चमक-दमक’  दिखाते हैं जिससे लगता है शहर में पैसा कमाना आसान है। लोग इनसे आकर्षित होते हैं। गुलाम हसन भी ‘लल्लू लाल’  से प्रभावित होकर शहर का रुख करता है। ज़ाहिर है उसके शहर जाने के आकर्षण में उसके वर्तमान की समस्याओं से निकल नहीं पाने की अक्षमता भी है।

गुलाम अहमद का जिस खुशफ़हमी से शहर आगमन हुआ होता है वह कदम-कदम पर खंडित होने लगता है। ऐसा लगता है कि यहां किसी के पास किसी का पता बताने तक का समय नहीं है। वह जैसे-तैसे लल्लू लाल की ‘खोली’  तक पहुंचता है। लल्लू लाल सह्रदय व्यक्ति है, वह न केवल गुलाम अहमद को अपनी खोली में जगह देता है बल्कि उसके लिए काम की तलाश करता है। अंततः गुलाम टैक्सी ड्राइवर बन जाता है।

मगर टैक्सी ड्राइवरी में आय सीमित ही है। दिनभर मेहनत के बाद किराए की टैक्सी से इतना कुछ नहीं बचता कि उसे अच्छा कहा जा सके। गुलाम घर मनीआर्डर से पैसे भेजता तो रहता है मगर घर जाने की हिम्मत नहीं कर पाता, क्योंकि आने-जाने में किराए में ही बचत का अधिकांश हिस्सा ख़त्म हो जाएगा।

इधर समय गुज़रते जाता है। माँ दुर्घटना ग्रस्त होकर बिस्तर में पड़ जाती है। खैरुन की आँखों में केवल इन्तिज़ार हैं। वह अपना दुख किससे कहे? अपनी पीड़ा गुलाम को लिखे पत्र में व्यक्त करती है। हर आहट में दरवाजा खोलकर देखना और निराशा में बंद करना ही जैसे उसकी नियति है। उसके मौन में दुखों का समंदर है।

इधर गुलाम भी बेबस है। शहर उतना दे नहीं पा रहा जितनी उम्मीद थी। यहाँ बेहतर भविष्य केवल सपना है। हक़ीकत चंद लोगों के लिए है। वह टैक्सी में इन ‘चंद लोगों’ की दुनिया देखता है,उनकी अट्टालिकाएं देखता है, और दूसरी तरफ सड़कों में बसर कर रहे लोगों को देखता है, मगर दिल है कि मानता नहीं! लगता है कुछ हो जाएगा। यही कारण है कि आखिर में वह घर के लिए निकल कर भी प्लैटफॉर्म में रुक जाता है। ऐसा लगता है गांव से उसका यहां आगमन तो हुआ है वापस गमन नहीं हो सकेगा।

यह कहानी सिर्फ गुलाम की नहीं है। उसके जैसे हजारों व्यक्तियों की है। रामप्रसाद तीस साल से बम्बई में ड्राइवरी कर रहा है। बीमारी का इलाज नहीं करा पा रहा और एक दिन अचानक एक्सीडेंट में चल बसा। लल्लू लाल जो गाहे-बगाहे सब की मदद करता है अपने लिए एक खोली के घर की व्यवस्था नहीं कर पा रहा जिसके कारण यशोधरा के साथ जीवन शुरू नहीं कर सका और अंततः मारा गया।

यशोधरा जैसे मजदूर वर्ग के स्त्रियों की जिंदगी और भी त्रासद है। एक तो गरीबी दूसरी पितृसत्ता! कहाँ तो वह लल्लूलाल के साथ घर बसाने के सपने देखती है और कहाँ उसके घर के ही उसे ‘कमाऊ सामान’  समझते हैं!

इस तरह इस शहर में भी बहुसंख्यक जनता परेशान हैं। गाँव हो या शहर सुखी चंद लोग हैं बांकी जीवन के जजद्दोजहद मेंउलझे ख़ुशी की तलाश में ख़त्म हो जाते हैं।

बहरहाल निर्देशक मुज़फ्फ़र अली ने कम संसाधन में बेहतर फ़िल्म बनाई है। एक-दो जगह मोहर्रम के मातम के दृश्य का सार्थक प्रयोग हुआ है जिससे गुलाम की आंतरिक पीड़ा वातावरण से उभर जाती है। इसी तरह महानगर के अट्टालिकाओं के दृश्य और अभिजात वर्ग के सवारियों के संवाद से गुलाम जैसे ड्राइवरों के हालात की विडम्बना और तीव्र हो जाती है।

फ़िल्म में आर्थिक विषमता इतनी तीव्र और स्पष्ट है कि जाति और धर्मगत ‘भेद’ उसमे मिट सा गया है। यह लोकजीवन की हक़ीकत रही कि लल्लूलाल और गुलाम हसन के लिए जीवन संघर्ष में धर्म लगभग गौण रहा। मगर इधर साम्प्रदायिक और नकारात्मक अस्मिता की राजनीति ने इसे बहुत हद तक खंडित किया है और ‘जाति-धर्म’  की राजनीति करने में सफल रही है। उम्मीद की जा सकती है कि यह स्थिति हमेशा न रहेगी और साझे संघर्ष के दिन फिर आएंगे।

(गमन के गीत मशहूर शायर शहरयार ने लिखे थे और उन्हे कंपोज़ जयदेव ने किया था। सुरेश वाडकर का गाया फिल्म का एक गाना ‘सीने में जलन, आंखों में तूफान सा क्यों है, इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है’ बेहद पसंद किया गया था। इस गीत को चकाचौंध भरे शहरी जीवन और उसमें रहने वाले हैरान-परेशान लोगों की विसंगति के एक प्रतीक के तौर पर आजतक याद किया जाता है।)