सत्यजित राय और उनका सिनेमा क्यों खास हैं?

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JawariMall Parakh

सत्यजित राय की जन्मशताब्दी पर उनकी स्मृति को समर्पित जाने-माने फिल्म स्कॉलर और लेखक प्रोफेसर जवरीमल्ल पारख का लेख। प्रोफेसर पारख संस्कृति, सिनेमा और मीडिया के गंभीर समीक्षक हैं। ‘हिन्दी सिनेमा का समाजशास्त्र’, ‘लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ’, ‘जनसंचार माध्यमों का सामाजिक संदर्भ’, ‘जनसंचार माध्यमों का वैचारिक परिप्रेक्ष्य’, ‘जनसंचार माध्यमों का राजनीतिक चरित्र’, ‘जनसंचार माध्यम और सांस्कृतिक विमर्श’, ‘साझा संस्कृति, सांप्रदायिक आतंकवाद और हिन्दी सिनेमा’आदि मीडिया, सिनेमा और संस्कृति पर केन्द्रित उनकी प्रमुख आलोचनात्मक पुस्तकें हैं। जवरीमल्ल पारख जी इंदिरागांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के मानविकी संकाय के निदेशक पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद मीडिया के पूर्णकालिक समीक्षक के रूप में सक्रिय हैं। पारख जी का ये लेख सत्यजित राय पर लिखी उनकी श्रृंखला की पहली कड़ी है। जो लोग सत्यजित राय के काम और उसकी अहमियत के बारे में विस्तार से नहीं जानते हैं, उन्हे ये लेख ज़रुर पढ़ना चाहिए।

बांग्ला फ़िल्मकार सत्यजित राय (1921-1992) भारत के संभवत: अकेले फ़िल्मकार हैं जिन्होंने साहित्यिक रचनाओं पर सर्वाधिक फ़िल्में बनायी हैं। स्वयं उनकी गणना बांग्ला के बड़े लेखक के रूप में होती है। अपने उपन्यासों और कहानियों पर तो उन्होंने फ़िल्में बनायी ही है, इनके अलावा कुछ फ़िल्में ऐसी भी हैं जो किसी रचना पर आधारित नहीं हैं बल्कि उनके द्वारा लिखी मौलिक पटकथाओं पर आधारित हैं। शतरंज के खिलाड़ी, सद्गति और गणशत्रु को छोड़कर शेष सभी फ़िल्में या तो अन्य बांग्ला लेखकों की रचनाओं पर आधारित हैं या स्वयं उनकी लिखी रचनाओं पर।

बांग्ला के जिन रचनाकारों की रचनाओं पर फ़िल्में बनायी हैं वे हैं, विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय (‘पथेर पांचाली’ उपन्यास पर आधारित पथेर पांचाली; ‘पथेर पांचाली’ और ‘अपराजितो’ उपन्यासों पर आधारित अपराजितो और ‘अपराजितो’ उपन्यास पर आधारित अपूर संसार; ‘अशनि संकेत’ उपन्यास पर आधारित अशनि संकेत ), परशुराम (‘पारस पत्थर’ कहानी पर आधारित पारस पत्थर; ‘बिरंची बाबा’ कहानी पर आधारित महापुरुष ), ताराशंकर बंद्योपाध्याय (‘जलसाघर’ कहानी पर आधारित जलसाघर; ‘अभिजन’ उपन्यास पर आधारित अभिजन ), प्रभात कुमार मुखर्जी, (‘देवी’ कहानी पर देवी – इसके कथानक की संकल्पना मूल रूप से रवींद्रनाथ टैगोर की है), रवींद्रनाथ टैगोर (तीन लघु कहानियों पर आधारित तीन लघु फ़िल्में तीन कन्या नाम से- पोस्टमास्टर, मणिहारा और समाप्ति; ‘नष्टनीड़’ लघु उपन्यास पर आधारित चारुलता; ‘घरे बाइरे’ उपन्यास पर आधारित घरे बाइरे ), नरेंद्रनाथ मित्र (‘अबतरनिका’ कहानी पर आधारित महानगर ), प्रेमेंद्र मित्र (‘कापुरुषेर’ कहानी पर आधारित कापुरुष ), शरदिंदु ब़ंद्योपाध्याय (‘चिड़ीखाना’ लघु उपन्यास पर आधारित चिड़ीखाना ), उपेंद्रकिशोर राय (‘गुपी गायेन बाघा बायेन’ कहानी पर आधारित गुपी गायेन बाघा बायेन ), सुनील गांगुली (‘अरण्येर दिन-रात्रि’ उपन्यास पर आधारित अरण्येर दिन-रात्रि; ‘प्रतिद्वंद्वी’ उपन्यास पर आधारित प्रतिद्वंद्वी ), शंकर (‘सीमाबद्ध’ उपन्यास पर आधारित सीमाबद्ध; ‘जन अरण्य’ उपन्यास पर आधारित जन अरण्य )।

इन बांग्ला लेखकों के अलावा उन्होंने हिंदी लेखक प्रेमचंद (‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी पर आधारित शतरंज के खिलाड़ी; ‘सद्गति’ कहानी पर आधारित सद्गति ) और अंग्रेजी लेखक हेनरी इब्सन (‘एन एनेमी ऑफ दि पीपुल’ नाटक पर आधारित गणशत्रु ) की रचनाओं पर भी फ़िल्में बनायी हैं। प्रेमचंद की कहानियों पर आधारित दोनों फ़िल्में हिंदी में हैं जबकि इब्सन के नाटक का उन्होंने बांग्ला में रूपांतरण किया है।

सत्यजित राय ने कुछ फ़िल्में अपनी पूर्व प्रकाशित रचनाओं पर भी बनायी हैं। ये हैं : ‘सोनार केल्ला’ उपन्यास पर आधारित सोनार केल्ला; ‘जॉय बाबा फेलुनाथ’ उपन्यास पर आधारित जॉय बाबा फेलुनाथ; ‘पिकुर डायरी’ कहानी पर आधारित लघु फ़िल्म पिकु । सत्यजित राय की कुछ फ़िल्में किसी साहित्यिक रचनाओं पर आधारित नहीं है बल्कि वे स्वयं उनकी लिखी स्वतंत्र पटकथाओं पर आधारित हैं। ये हैं : कंचनजंघा, टू (लघु फ़िल्म), नायक, हीरक राजार देशे, शाखा प्रशाखा और आगंतुक। सत्यजित राय ने कथा फ़िल्मों के अलावा कुछ वृत्तचित्र भी बनाये हैं। सबसे पहले 1961 में रवींद्र की जन्म शताब्दी पर रवींद्रनाथ टैगोर वृत्तचित्र, 1971 में सिक्किम (तब तक सिक्किम भारत का हिस्सा नहीं बना था), 1972 में रवींद्र स्कूल के महान चित्रकार बिनोद बिहारी मुखर्जी पर दि इन्नर आई, 1976 में दक्षिण की महान भरत नाट्यम नृत्यांगना बाला सरस्वती पर बाला, 1987 में अपने पिता सुकुमार राय पर इसी नाम से वृत्तचित्र बनाया था। सत्यजित राय ने अपनी सभी फ़िल्मों की पटकथा स्वयं लिखी हैं, संवाद भी और जहां ज़रूरी हुआ वहां गीत भी। हां, हिंदी फ़िल्मों के संवाद में उन्होंने हिंदी-उर्दू लेखकों का सहयोग लिया है।

सत्यजित राय लेखक और फ़िल्मकार के साथ-साथ चित्रकार और संगीतकार भी थे। पथेर पांचाली फ़िल्म बनाने की प्रेरणा उन्हें तब मिली थी, जब उनके पास इस उपन्यास पर आधारित चित्र बनाने का काम आया था। चित्र बनाते हुए ही उन्होंने यह फैसला कर लिया था कि अगर उन्होंने कभी फ़िल्में बनायीं तो उनकी पहली फ़िल्म ‘पथेर पांचाली’ पर आधारित होगी। अपनी हर फ़िल्म की पटकथा के साथ-साथ वे प्रत्येक दृश्य और शॉट का चित्रांकन भी पहले कर लेते थे। इस तरह वे अपनी फ़िल्म की पूरी संकल्पना को पहले शब्दों के साथ-साथ चित्रों के रूप में भी काग़ज़ों पर उतार लेते थे। उनकी आरंभिक फ़िल्मों का संगीत रविशंकर (पथेर पांचाली : 1955, अपराजितो : 1956, पारस पत्थर : 1958, अपूर संसार : 1959), उस्ताद विलायत खान (जलसाघर : 1959), अली अकबर खान (देवी : 1960) और ज्योतिरिंद्र मोइत्रा (वृत्तचित्र रवींद्रनाथ टैगोर : 1961) ने दिया था। लेकिन उसके बाद की सभी फ़िल्मों और वृत्तचित्रों का संगीत स्वयं सत्यजित राय ने दिया था। एक और उल्लेखनीय बात यह है कि उनकी पहली फ़िल्म से अंतिम फ़िल्म तक सभी का संपादन दुलाल दत्त ने किया था। उनकी पथेर पांचाली, अपराजितो, पारस पत्थर, जलसाघर, देवी, कंचनजंघा, महानगर, चारुलता, नायक फ़िल्मों के छायाकार सुब्रत मित्र थे जिन्होंने शैलेंद्र की फ़िल्म तीसरी कसम (1966) का छायांकन भी किया था। सत्यजित राय की सफलता में सुब्रत मित्र के छायांकन की भी बड़ी भूमिका है।

साहित्यिक रचनाओं पर आधारित होते हुए भी विधागत दृष्टि से उनकी फ़िल्में विविध प्रकार की हैं। उनकी अधिकतर फ़िल्में या तो समकालीन यथार्थ से प्रेरित हैं या उससे कुछ ही काल पूर्व के अतीत (शतरंज के खिलाड़ी, चारुलता, घरे बाइरे, अशनि संकेत) के यथार्थ से प्रेरित। लेकिन उन्होंने कई फ़िल्में फैंटेसी (पारस पत्थर, गुपी गायेने, बाघा बायेन, हीरक राजार देशे), जासूसी (चिड़िखाना, सोनार केल्ला, जॉय बाबा फेलुनाथ), लोककथात्मक और संगीतपरक (गुपी गायेन बाघा बायेन, हीरक राजार देशे) विधाओं पर भी बनायी हैं। जिन फ़िल्मों में समकालीन यथार्थ का चित्रण किया गया है, उनमें भी कई तरह के प्रयोग किये गये हैं। मसलन एक ही कथानक पर आधारित फ़िल्मों की श्रृंखला (पथेर पांचाली, अपराजितो, अपूर संसार), एक ही फ़िल्म में युवा स्त्री के जीवन की विडंबनाओं को दर्शाती तीन अलग-अलग कहानियां (तीन कहानियां- पोस्टमास्टर, मणिहारा और समाप्ति ),कोलकाता महानगर को केंद्र में रखकर युवाओं के रोज़गार की समस्या से संबंधित फ़िल्में (प्रतिद्वंद्वी, सीमाबद्ध और जन अरण्य)। हालांकि महानगर फ़िल्म में भी महानगर में निम्नमध्यवर्ग के परिवार के सामने आने वाली समस्या को उठाया है। उनकी फ़िल्मों में शैलीगत प्रयोग के भी विविध प्रकार के उदाहरण हैं। मसलन, नायक की पूरी नायक फ़िल्म की कहानी कोलकाता से दिल्ली तक की रेलयात्रा में ही घटित होती है। कुछ हद तक सोनार केल्ला की भी कहानी कोलकाता से जैसलमेर के बीच की यात्रा के दौरान ही घटित होती है। इसी तरह कंचनजंघा की पूरी कहानी दार्जिलिंग में उन पर्यटकों के बीच घटित होती है, जो वहां अपनी छुट्टियां मनाने पहुंचे हैं और उनके वापस अपने शहर कोलकाता रवाना होने के साथ समाप्त हो जाती है। ऐसा ही प्रयोग अरण्येर दिनरात्रि में है जहां तीन दोस्त अपनी कार में एक आदिवासी क्षेत्र पलामु जाते हैं और कुछ दिन वहां रहते हैं और वापस लौट आते हैं। शाखा प्रशाखा में कहानी तीन पीढ़ियों वाले एक परिवार के एक साथ जुटने पर घटी घटनाओं और प्रसंगों पर आधारित हैं जबकि अपनी आखरी फ़िल्म आगंतुक में एक मध्यवर्गीय परिवार में अनजान रिश्तेदार के आने और ठहरने से पैदा हुई स्थितियों से कहानी निर्मित की गयी है। कुछ ही दिनों बाद इस रिश्तेदार के लौट जाने के साथ ही फ़िल्म समाप्त हो जाती है।

सत्यजित राय ने अपनी पहली फ़िल्म ‘पथेर पांचाली’ में ग्राम्य यथार्थ के चित्रण से अपने फ़िल्मी जीवन की शुरुआत की थी, जबकि ग्रामीण जीवन का उन्हें वैसा अनुभव नहीं था, जैसा उन लेखकों (विभुतिभूषण बंद्योपाध्याय, रवींद्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद) का था, जिनकी रचनाओं पर उन्होंने ‘पथेर पांचाली’, ‘अशनि संकेत’, ‘अरण्येर दिन-रात्रि’, ‘तीन कन्या’, ‘घरे बाइरे’, ‘सद्गति’ फ़िल्में बनायी थीं। सत्यजित राय ने यथार्थ के विविध पहलुओं पर फ़िल्में बनायी है, लेकिन किसानों और मज़दूरों के जीवन यथार्थ पर सीधे तौर पर एक भी फ़िल्म नहीं है। पथेर पांचाली और अशनि संकेत ग्रामीण जीवन पर आधारित हैं, लेकिन उनमें किसान अनुपस्थित हैं। पहली बार एक दलित किसान हिंदी फ़िल्म सद्गति में आता है। हीरक राजेर देशे में नायक के नेतृत्व में हीरक राजा से विद्रोह करने वाले भी किसान हैं। लेकिन वे कथा के केंद्र में नहीं है। अरण्येर दिनरात्रि में दो-तीन आदिवासी पात्र हैं, लेकिन वे भी फ़िल्म में हाशिए पर है। कुल मिलाकर उनकी प्राय: सभी फ़िल्मों के पात्र सवर्ण समाज के हैं। लेकिन उनकी फ़िल्मों की जीवन दृष्टि सवर्णपरस्त और ब्राह्मणवादी नहीं है और जहां भी अवसर मिला है, उन्होंने ब्राह्मणवाद की आलोचना ही की है।

सत्यजित राय की अधिकतर फ़िल्में उपन्यासों या कहानियों पर आधारित हैं। केवल ‘गणशत्रु’ ऐसी फ़िल्म है जो इब्सन के नाटक पर आधारित है और जिसको उन्होंने भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप रूपांतरित किया है। यानी उसका कथानक, चरित्र और परिवेश उन्होंने बंगाल के तत्कालीन यथार्थ के अनुरूप बदल दिया है। हालांकि नाटक के मूल कथ्य और उद्देश्य में बदलाव नहीं किया गया है। साहित्यिक रचनाओं पर आधारित शेष सभी फ़िल्मों का देश-काल वही रखा है जो मूल रचना में है। यह ज़रूर है कि जो फ़िल्में उपन्यासों पर आधारित हैं, उनके मूल कथानक के साथ ज्यादा छेड़छाड़ की गयी है, यानी उनमें बहुत कुछ छोड़ दिया गया है, जबकि कहानियों पर आधारित फ़िल्मों में बदलाव अपेक्षाकृत कम है। हां, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में एक पूरी कहानी समानांतर जोड़ दी गयी है जिसका मूल रचना में सांकेतिक उल्लेख ही है। इसी तरह उन्होंने कई फ़िल्मों का अंत भी मूल रचना के अनुसार न रखकर उन्हें बदल दिया है। इस आलेख में सत्यजित राय की सभी फ़िल्मों पर विचार करना संभव नहीं है। केवल तीन महत्त्वपूर्ण बांग्ला फ़िल्मों और दो हिंदी फ़िल्मों को लिया गया है : ‘पथेर पांचाली’, ‘चारुलता’, और ‘घरे बाइरे’ तथा ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘सद्गति’। ‘पथेर पांचाली’, ‘चारुलता’ और ‘घरे बाइरे’ जिन साहित्यिक रचनाओं पर आधारित हैं, वे सभी हिंदी में भी हिंदी अनुवाद में उपलब्ध हैं। इसलिए इन फ़िल्मों को मूल रचनाओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन द्वारा द्वारा समझने और विश्लेषित करने की कोशिश इस आलेख में की गयी है।

सत्यजित राय का संबंध रचनात्मक अभिरुचि वाले साहित्यिक परिवार से था। उनके पिता सुकुमार राय और दादा उपेंद्र किशोर राय दोनों ने बच्चों के लिए साहित्य रचना की और उन पुस्तकों के लिए चित्र भी बनाये। संगीत में भी उनकी गहरी रुचि थी, वे स्वयं वायलिन बजाने में सिद्धहस्त थे। पिता की भी साहित्य और चित्रकला के सृजन में गहरी रुचि थी, हालांकि जब सत्यजित राय दो वर्ष के थे, तब उनका देहांत हो गया था। सत्यजित राय की भी साहित्य, चित्रकला और संगीत में गहरी रुचि थी। चित्रकला की शिक्षा उन्होंने शांतिनिकेतन में प्रख्यात चित्रकार नंदलाल बोस के सान्निध्य में रहकर प्राप्त की थी। उनका बचपन अपने मामा के यहां गुजरा था, जहां उन्हें पश्चिम का शास्त्रीय संगीत सीखने और समझने का पर्याप्त अवसर मिला। चित्रकला में उनका मुख्य झुकाव रेखाचित्र बनाने की ओर था, जिसे बाद में उन्होंने अपना पेशा भी बनाया। लेकिन खास बात यह है कि इन तीनों कलाओं में उनकी रचनात्मक सक्रियता ने उनकी फ़िल्मों के हर पक्ष को कलात्मक उत्कर्षता प्रदान करने में अहम् भूमिका निभायी।

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