नहीं रहीं ‘पथेर पांचाली’ की दुर्गा
विश्वसिनेमा के पटल पर रखने के लिए अगर भारत से किसी सिर्फ एक फिल्म के नाम का चयन करना हो तो भारत के सभी भाषाओं के सार्वकालिक सिनेमा में से निर्विवाद रुप से जो फिल्म चुनी जाएगी, वो है सत्यजित राय की ‘पथेर पांचाली’। अपु की जीवनगाथा सिनेमा विधा में एक दंतकथा बन चुकी है। अपु की इस कथा में जो दूसरा किरदार एक भावनात्मक जुड़ाव और कौतूहल पैदा करता है वो है अपु की ब़ड़ी बहन दुर्गा का। दुर्गा की भूमिक इस फिल्म में उमा दासगुप्ता ने निभाई थी, जिनका 18 नवंबर को निधन हो गया। एक त्वरित प्रतिक्रिया के ज़रिए उन्हे याद कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार और लेखक जयनारायण प्रसाद, जो इंडियन एक्सप्रेस समूह के अखबार जनसत्ता कलकत्ता में 28 सालों तक काम करने के बाद रिटायर होकर कलकत्ता में ही रहते हैं। हिंदी में एम ए जयनारायण प्रसाद ने सिनेमा पर व्यापक रुप से गंभीर और तथ्यपरक लेखन किया है।
दुनिया की सौ बेहतरीन फिल्मों में से एक सत्यजित राय की ‘पथेर पांचाली’ (पथ का गीत, 1955) में दुर्गा का किरदार निभाने वाली उमा दासगुप्ता का सोमवार सुबह 83 वर्ष की अवस्था में निधन हो गया। वे लंबे समय से कैंसर से पीड़ित थीं।
‘पथेर पांचाली’ में अपू (सुबीर बंद्योपाध्याय) की बड़ी बहन की भूमिका निभा कर उमा दासगुप्ता ‘सिनेमा के संसार में किंवदंती’ बन गई थीं। उमा दासगुप्ता ने पूरी जिंदगी सिर्फ एक ही फिल्म में अभिनय किया और वह थी बांग्ला फिल्म ‘पथेर पांचाली’ (1955), जो सत्यजित राय द्वारा निर्देशित पहली फिल्म थी।
उमा दासगुप्ता जब महज़ 12 साल की थीं, तभी सत्यजित राय ने अपनी पहली फिल्म ‘पथेर पांचाली’ में उनका चयन किया। हुआ यह कि जिस स्कूल में उमा दासगुप्ता पढ़ती थी, उस स्कूल के सहायक प्रधान शिक्षक ने सत्यजित राय को उनका नाम सुझाया था। उसके बाद उमा दासगुप्ता का चुनाव दुर्गा के चरित्र में फिल्म ‘पथेर पांचाली’ में हुआ। उमा दासगुप्ता ने दुर्गा के किरदार को ‘पथेर पांचाली’ में ऐसा जीवंत किया कि आज यह फिल्म दुनिया की एक ‘आइकोनिक मूवी’ बन गई है। ‘पथेर पांचाली’ को संसार की सौ बेहतरीन फिल्मों में शुमार किया जात है।
मालूम हो कि ‘पथेर पांचाली’ उपन्यास बंगाल के मशहूर साहित्यकार विभूति भूषण बंद्योपाध्याय का लिखा हुआ है। विभूति भूषण ने यह उपन्यास वर्ष 1925 के आखिर में घाटशिला इलाके में (अभी झारखंड) लिखना शुरू किया और खत्म किया बिहार के भागलपुर में। 1928 में यह किताब की शक्ल में छप कर आया। वर्ष 1955 में सत्यजित राय ने इसे फिल्म का रूप दिया।
इस बांग्ला फिल्म को पूरा करने के लिए सत्यजित राय की पत्नी विजया राय को अपने गहने तक बेचने पड़े थे। करीब तीन साल में यह फिल्म पूरी हुई थीं। शुरू में इस पर 70 हजार रुपए खर्च हुए थे। बाद में पश्चिम बंगाल सरकार की आर्थिक सहायता से यह बांग्ला फिल्म पूरी हुई। सत्यजित राय की इस क्लासिक बांग्ला फिल्म को दुनिया भर में पुरस्कार मिले हैं।
कोलकाता के योगमाया कालेज से पढ़ी-लिखी उमा दासगुप्ता एक स्कूल में शिक्षिका थीं और रिटायर होने के बाद घरेलू जिंदगी जी रही थीं। बताते हैं कि कैंसर से पीड़ित उमा दासगुप्ता बीच में ठीक हो गई थीं। बाद में फिर बीमार हो गईं। पिछले कुछ दिनों से उमा दासगुप्ता कोलकाता के एक अस्पताल में भर्ती थीं। वहीं 18 नवंबर की सुबह सवा आठ बजे उनका निधन हुआ।
उमा दासगुप्ता के निधन पर सत्यजित राय के सुपुत्र फिल्मकार संदीप राय समेत बांग्ला सिनेमा जगत के अनेक लोगों ने गहरा शोक जताया है।