सुसमन: आत्मा की चादर बीनने की दारुण दुख गाथा
17 अक्टूबर को स्मिता पाटिल का जन्मदिन होता है और 18 अक्टूबर ओम पुरी का। श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी ऐसे निर्देशकों में हैं जिनकी कई फिल्मों में ओम पुरी की अपनी कला का सर्वोत्कृष्ट रूप दिखाने का मौका मिला। ओमपुरी की जयंती पर उन्हे याद कर रहे हैं श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित 1987 की यादगार फिल्म ‘सुसमन’ की समीक्षा के बहाने। सिनेमा के साहित्य की समीक्षा में अजय चंद्रवंशी की कलम से आज इसी फिल्म की कहानी की साहित्यिक समीक्षा। इस सीरीज़ में हम किसी फिल्म के कथानक के साहित्यिक-सामाजिक पक्ष पर एक समीक्षा देते हैं, क्योंकि सिनेमा साहित्य से ही बनता है। लेखक-समीक्षक अजय चंद्रवंशी बतौर शिक्षा अधिकारी कवर्धा, छत्तीसगढ़ में कार्यरत हैं।
“झीनी झीनी बिनी रे चदरिया” गाने वाले क्रांतिकारी कवि कबीर जुलाहा थे। अपने समय की सामाजिक विसंगतियों पर उन्होंने मुखरता से चोट किया। कबीर जिस दौर में थे वह एक हद तक व्यापारिक पूंजीवाद का दौर था, जिसमे सीमित अर्थ में वर्ण व्यवस्था का विघटन हो रहा था, बाज़ार में गतिशीलता थी। खासकर नगरों में। वह दौर उत्पादन के परंपरागत साधन का दौर था, जिसमे जुलाहा कर्म भी हस्तकरघा पर आश्रित था।यह व्यवस्था लंबे समय तक चली और बाजार में वस्त्रों की आपूर्ति हथकरघा से बने कपड़ो से होती रही।
औद्योगिक क्रांति के बाद के दौर में उत्पादन के साधनों में युगान्तकारी परिवर्तन आया। उत्पादन मशीनों से होने लगा,जिससे कम समय और श्रम में अधिक उत्पादन होने लगा। इससे जहां एक ओर पूँजी की केन्द्रीयता बढ़ने लगी, सीमित व्यक्ति धनवान होने लगें वहीं बहुसंख्यक कामगारों की रोजी-रोटी बंद होने लगी। मशीनी अर्थव्यवस्था उन्हें बाज़ार से अपदस्थ करने लगा। इस व्यवस्था को पूंजीवाद कहा गया।
इस मशीनी उत्पादन पद्धति से हस्तचालित बहुत से काम खत्म होने लगें, जिसमे हस्तकरघा से कपड़ा बुनने वाले बुनकरों का काम भी है। यों यह यकायक खत्म नहीं हुआ मगर धीरे-धीरे संकट गहराने लगा और बीसवीं शताब्दी के अंत तक आते-आते यह चरम पर आ गया। मगर इस दौरान एक दूसरी प्रवृत्ति भी दिखाई दी। मशीनों के अंधाधुंध उत्पादन ने जरूर बाजार को ‘माल’ से भर दिया था मगर उसमे एक यांत्रिकता थी, नीरसता थी। इससे।लोगों में एक ऊब भी पैदा होने लगी और वे नएपन की तलाश में पुराने की तलाश करने लगे।
इस तरह हस्तनिर्मित वस्तुओं के सौंदर्य मूल्य की पहचान तो हुई और फैशन के रूप में उसका महत्व भी बढ़ा मगर इसका लाभ कारीगरों को नहीं मिला। सारा लाभ व्यापारी और बिचौलिए ही हड़पने लगे, कारीगरों की स्थिति दयनीय ही बनी रही। यह स्थिति फ़िल्म ‘सुस्मन’ के समय(1987) थी, आज भी है।
फ़िल्म में ‘रामुलु’ एक कुशल बुनकर है। परिवार में पत्नी, बेटी और बेटा है। साथ भाई और उसकी पत्नी भी है। एक तरह से संयुक्त परिवार। सब मिलजुलकर काम करते हैं मगर आय इतनी नहीं हो पाती कि घर का खर्च ठीक-ठाक निकल सके। काम की कमी है, और जो है वह बिना बिचौलियों में बुनकरों तक पहुंच नहीं पाता। कहने को तो उनके हितों की रक्षा के लिए सहकारी समिति का गठन भी हुआ है मगर वहां भी भ्रष्टाचार पसरा हुआ है।
रामुलु का हुनर केवल प्रतिष्ठा की बात रह गयी है, वह रोटी नहीं दे पाती। वह कपड़े बुनता है मगर अपनी बेटी के लिए साड़ी बुन सके उसके लिए धागे नहीं है। पूरी फिल्म में उसके घर मे अंधेरा छाया हुआ है। यह अंधेरा जैसे उसके जीवन का है। बेबसी इस कदर कि वह इस व्यवसाय को चाह कर भी छोड़ नहीं पा रहा है, और इस खीझ में एक बार करघा को आग लगाने की कोशिश करता है। उसका बेटा कभी उसके काम मे रुचि लेता है तो डाँटकर उसे मना करता है और पढ़ने को कहता है।वह बार-बार अपने हुनरमंद हथेलियों को हैरानी से देखता है मानो इस विडम्बना को समझ नहीं पा रहा हो। मानो ये वे हाथ नहीं है जिसमे ‘जादू’ हुआ करता था।मानो कुछ अनपेक्षित घटित हो गया है जिसे वह समझ नहीं पा रहा है। अंततः वह जैसे परिस्थिति से हार मानकर खमोश हो जाता है, उसमें जैसे अनामिकता का भाव आ जाता है।
पत्नी ‘गौरम्मा’ बार-बार स्थिति को संभालने का प्रयास करती है, मगर कब तक। रामुलु के मना करने पर भी ऑर्डर के कुछ धागे बचाकर बेटी के लिए साड़ी बुनती है, मगर उसे दे भी नहीं पाती और पैसों के लिए बेचने का प्रयास करती है। मगर प्रकट हो जाने पर रामुलु को अपमानित होना पड़ता है। रामुलु तो खून के घूंट पीकर खामोश हो जाता है मगर गौरम्मा वह भी नहीं कर सकती! घर को बचाने के लिए उसे ‘व्यवहारिक’ होना पड़ता है।
यह स्थिति केवल रामुलु और उसके परिवार की नहीं है पूरे गांव की है। कुछ लोग काम की तलाश में शहर जाते हैं मगर वहां भी स्थिति बेहतर नहीं है। रहने को खोली तक नसीब नहीं, सुविधाएं तो दूर की बात है। फिर भी लोग जाते हैं! बेहतर की उम्मीद में एक बेबसी को छोड़कर अंततः दूसरी बेबसी में चले जाते हैं।
फ़िल्म के अंत में रामुलु को उसके हुनर के सम्मान में पेरिस जाने का मौका मिलता है। उससे जब प्रश्न पूछा जाता है कि क्या वह इस काम से खुश है तो वह कोई जवाब नहीं देता। फिर यह पूछने पर कि मशीनों के बढ़ते जाने से क्या यह कला खत्म हो जाएगी? इस पर वह कहता है जिंदगी ढंग से कटे तो हम यह काम छोड़कर क्यों जाएंगे, क्योंकि जो संतुष्टि हाथ से काम करने में है वह मशीन में नहीं। उसकी चाह बड़ी नहीं है, मगर बाज़ार की चाह तो बड़ी है! वहां भावना नहीं व्यावहारिकता से काम होता है। और व्यावहारिकता यह है कि यहां कला बिकता तो है मगर उसका मूल्य कलाकार को नहीं मिल पाता। और चूंकि यह व्यवस्था ऐसी है कि बिचौलियों को खत्म तो क्या उसे और बढ़ावा देती है, इसलिए उससे उम्मीद बेमानी है।
फ़िल्म में बुनकरों की स्थिति के अलावा ग्रामीण लोकजीवन और कुछ हद तक शहरी कामगार वर्ग के जीवन तथा उनकी समस्याओं की झांकी भी है। फ़िल्म का नाम ‘सुसमन’ कबीर के पद “झीनी झीनी बीनी रे चदरिया” में उल्लेखित सुसमन से लिया गया है जो ‘सुषुम्ना’ नाड़ी का बिगड़ा रूप है। यह योग की शब्दावली है। कबीर आत्मा के शरीर रूपी चादर का निर्माण जिस धागे से करते हैं उसमे ‘सुसमन’ प्रमुख है। मगर यह धागा आज कमजोर होता जा रहा है और इसलिए ‘झीनी चादर’ की सम्भावना भी।