अपने बूते खड़ा होना सिखाती ‘लव ऑल’
अपने बूते खड़ा होना सिखाती ‘लव ऑल’
‘लव ऑल’ एक ऐसी फिल्म है, जो अपने बूते पर खड़ा होना सिखाती है। जैसा कि नाम से इशारा मिलता है, ये फिल्म बैडमिंटन के खेल के बहाने जीवन के उतार चढ़ावों और संघर्ष के ज़रिए कुछ अहम बातें कहने की कोशिश करती है, और इसमें काफी हद तक कामयाब भी रहती है। फिल्म के निर्माताओं में महेश भट्ट और बैडमिंटन के प्रख्यात खिलाड़ी पुलेला गोपीचंद का नाम भी है। इस फिल्म की समीक्षा पेश कर रहे हैं तेजस पूनिया,जो एक युवा लेखक और फिल्म समीक्षक हैं। मुम्बई विश्वविद्यालय से शोध कर रहे तेजस का एक कहानी संग्रह और एक सिनेमा पर पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। अखबारों और न्यू डेल्ही फिल्म फाउंडेशन के लिए नियमित लेखन करते रहते हैं। ये फिल्म 1 सितंबर को सिनेमाघरों में रिलीज़ हो रही है।
‘सबसे बड़ा मैच ओलम्पिक का नहीं होता। सबसे बड़ा मैच वो नहीं होता है जिसे देखने जुटते हैं हजारों लोग। सबसे बड़ा मैच वो भी नहीं होता जिसे जीत कर हाथों में चमकने लगते हैं सोने के मेडल्स। जीत की चमक से चौंधियाई दुनिया की नजरें कभी नहीं देख पाती। जब एक खिलाड़ी खेलता है अपने जीवन का सबसे बड़ा मैच। वो आँसू से धुली आँखों से देखता है हर बार फिर से जीतने का सपना। बार-बार जगाता है अपने भीतर गिर कर उठ जाने का हौसला। सबसे बड़ा मैच होता है एक ऐसा युद्ध जिसे लड़कर जीतना पड़ता है अपने ही विरुद्ध।’
ये संवाद है जल्द सिनेमाघरों में आने वाली के. के मेनन स्टारर फ़िल्म ‘लव ऑल’ का। ऐसे और भी कई साहस जगाने वाले आपको प्रेरणा देने वाले संवाद इस फ़िल्म में मिल जायेंगे। कायदे से खेलों को आधार बनाकर कई फ़िल्में आपने और हमने अब तक देखीं हैं। लगान जैसी फ़िल्में खेलों पर बनी फ़िल्मों का सबसे बड़ा उदाहरण है। फ़िल्म ‘लव ऑल’ अपने पहले ही सीन के साथ दर्शकों का मूड सेट कर देती है। और इसके क्लाइमैक्स तक आते-आते जब आपको पता हो कि क्या होने वाला है? फिर भी आप सबकुछ भूल कर फिल्म में बहते हुए चले जाते हैं तो यहीं फ़िल्म की सार्थकता भी बन जाती है।
अपने बूते खड़ा होना सिखाती ‘लव ऑल’
फ़िल्म की कहानी है एक ऐसे बैडमिंटन प्लयेर कि जो अब रेलवे में खलासी की नौकरी कर रहा है। बरसों पहले भोपाल छोड़ चुका ये प्लयेर फिर लौटकर आता है। और इस बार वह अकेला नहीं उसकी बीवी और एक बच्चा भी है। लड़के को कभी उसने कोई खेल नहीं खेलने दिया। बस पढ़ाई के अलावा भी वह पढ़ाई करता है क्लास में सबसे तेज है। लेकिन जब भोपाल आया तो स्कूल में बिना कोई स्पोर्ट्स चुने उसका एडमिशन नहीं हो सकता। बस फिर क्या जैसे-तैसे उसकी माँ ने उसे भी बैडमिंटन खेलने लगा दिया ताकि शहर के इस सबसे अच्छे स्कूल में उसके बेटे का दाख़िला हो सके।
जिस बाप ने अपने बेटे को कभी कोई स्पोर्ट्स नहीं खेलने तो क्या देखने तक नहीं दिया… क्या होगा जब उसे मालूम पड़ेगा कि उसका बेटा भी अब चोरी छुपे बैडमिंटन खेल रहा है? उसकी पत्नी के साथ वह क्या सलूक करेगा? इस पर भी फ़िल्म खत्म होने तक आपके भीतर कई सारे सवाल खड़े होंगे और क्लाइमैक्स तक आते-आते फ़िल्म में इस कदर खुद को डूबा पाएंगे कि फ़िल्म में मुख्य रूप से नजर आने वाली दो कमियों पर भी आपका ध्यान नहीं जाएगा। अब इन कमियों को आप खुद खोज पाए तो आप होंगे असल सिनेमाप्रेमी।
हिंदी सिनेमा में बैडमिंटन को आधार बना ‘साइना’ नाम से बायोपिक भी बन चुकी है। लेकिन वह फ़िल्म कोई ख़ास कमाल नहीं दिखा पाई थी। परन्तु ‘लव ऑल’ उसी कमी को पूरा करती है। इस तरह कि इसे देखते हुए आपको यह तय हो जाता है कि अगले साल होने वाले नेशनल अवॉर्ड में भी यह फ़िल्म अपना जादू बिखेरेगी।
कायदे से ऐसी फ़िल्मों को हर वर्ग के दर्शकों को देखा जाना चाहिए। ख़ास करके हर माँ-बाप को और उन्हें अपने बच्चों को साथ बैठाकर ऐसी फ़िल्में दिखाई जानी चाहिए। ऐसी फ़िल्मों को देखकर ही आपको अच्छी और कचरा फ़िल्मों का अंतर भी पता चलता है। ऐसी फ़िल्में कायदे से सिनेमा के उस मकाम को छूती नजर आती है जहाँ पहुँच कर आप इस फ़िल्म को बनाने वाले निर्माता, निर्देशकों,लेखक के काम को आप सलाम करेंगे।
अभिनय के मामले में के के मेनन हमेशा की तरह अपना सर्वश्रेष्ठ अभिनय करते नजर आये। के के मेनन सिनेमा के मामले में आज के दौर के वो जरुरी मसाला है जिन्हें थोड़ा भी बुरक-छिड़क दिया जाए तो सिनेमा देखने का स्वाद और उसकी रंगत बदल जाती है। सितम्बर माह कि पहली तारीख को सिनेमाघरों में आने वाली इस फ़िल्म को लिखा है फ़िल्म के निर्देशक सुधांशु शर्मा ने। और इसमें महेश भट्ट, पुलेला गोपीचंद जैसे खेलों के द्रोणाचार्य भी जुड़े हुए हैं। करीब एक दर्जन लम्बी इस फ़िल्म को बनाने वाली निर्माताओं कि टीम भी पीठ थपथपाने कि हकदार बनती हैं।
के के मेनन के अतिरिक्त स्वस्तिका मुखर्जी, सुमित अरोड़ा, श्रीस्वारा, अतुल श्रीवास्तव, सत्यकाम आनन्द, राजा बुन्देला, दीप राम्भिया, अर्क जैन जैसे सिनेमा के मंझे हुए खिलाड़ी नजर आते हैं। इसके अलावा भी इस फ़िल्म में सैकड़ों असलियत के बैडमिंटन के खिलाड़ी भी नजर आते हैं। कोई भी अभिनेता या खिलाड़ी एक क्षण के लिए यह महसूस नहीं होने देते कि वे फ़िल्म में अभिनय कर कर रहे हैं। फिल्म में सुमित अरोड़ा भी काफी प्रभावित करते हैं, जो कई सारे विज्ञापनों और सीरियल्स में अपने सहज अभिनय और खास कॉमिक स्टाइल के लिए भी जाने जाते हैं। उन्होंने दर्शकों में अपनी एक अलग छाप छोड़ी है। इस फ़िल्म में वे चाचा के एक संजीदा रोल को निभाते हुए अपने स्वाभाविक, सहज अभिनय से दर्शकों के भीतर संवेदनाएं जगाने में कामयाब रहे हैं।
फिल्म का गीत-संगीत इतना प्यारा है कि आप उसके साथ भी बहते नजर आते हैं। देबर्पितो साहा, सौरभ वैभव का म्यूजिक और बैकग्राउंड स्कोरअलाप मज्गाव्कर, रौनक फडनिस कि एडिटिंगऔर कास्टिंग करने वालों का काम भी इस फ़िल्म में सराहनीय रहा है। जब किसी फ़िल्म कि कहानी इतनी मजबूत हो, उसकी कास्टिंग अच्छी हो और तमाम तकनीकी पक्ष मजबूत हो तो आप इसकी सराहना किये बगैर नहीं उठ सकते। खेलों पर बनी होने और बच्चों के लायक ज्यादा समझकर आप इस फ़िल्म को देखने का इरादा नहीं करेंगे तो यह ऐसा सिनेमा बनाने वालों के प्रति भी अपराध होगा। ऐसा सिनेमा देखिए, हर शर्त पर इसे बार-बार देखिए और दिखाई ओरों को साथ ही आप फर्क महसूस कर पाएंगे अच्छी और बुरी फ़िल्म का। ऐसी फ़िल्में और उनकी कहानियाँ आपको अपने साहस के बल पर खड़ा होना सिखाती है। वे सिखाती हैं आपको ऐसे सिनेमा का साथ देना ताकि सभी सीख सकें इनसे और बदल सकें आज और अभी से अपने भीतर कि नकारात्मकता को।
**Editorial Disclaimer:**
The opinions expressed in the this article/film review are solely those of the author/reviewer and do not reflect the views, opinions, or endorsement of the editorial board of New Delhi Film Foundation. The content presented here is intended to stimulate discussion and thought within the academic and intellectual community. Readers are encouraged to engage critically with the ideas presented and form their own interpretations. The editorial management neither supports nor opposes the viewpoints expressed herein. We welcome more and more reviewers and their comments on cinema.