ओएमजी2: सेंसर के 27 कट और ए सर्टिफिकेट पर सवाल क्यों?

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Alok Nandan Sharma

2012 में आई निर्माता-अभिनेता अक्षय कुमार की फिल्म ओह माई गॉड ने ज़बरदस्त तारीफ बटोरी थी। इसके निर्देशक उमेश शुक्ला और मुख्य अभिनेता परेश रावल के काम को भी खूब सराहा गया था। एक दशक से अधिक समय के बाद इसका सीक्वेल ओएमजी 2 के नाम से रिलीज़ हुआ है। इस फिल्म की भी खूब तारीफ हो रही है। फिल्म का विषय बेहद अहम पर संवेदनशील है, इसलिए इसके सर्टिफिकेशन को लेकर भी परस्पर विरोधी मत आ रहे हैं। फिल्म के सर्टिफिकेशन को लेकर उठ रहे विवाद के बहाने फिल्म पर समीक्षात्मक नज़र डाल रहे हैं पत्रकार-समीक्षक आलोकनंदन शर्मा। आलोक नंदन पिछले तीन दशक से पत्रकारिता कर रहे हैं। वीर अर्जुन, अमर उजाला, दैनिक जागरण जैसे राष्ट्रीय दैनिक में विभिन्न पदों पर कार्य कर चुके हैं। सिनेमा में इनकी गहरी दिलचस्पी है। फिल्म समीक्षक और टिप्पणीकार के तौर पर लगातार देश व दुनिया की फिल्मों पर लिखते रहे हैं।

सामाजिक सरोकार से जुड़ी फिल्म बनाना और उसमें बेहतर अभिनय करना… एक आम दर्शक एक फिल्म निर्देशक और अभिनेता से यही उम्मीद करता है। लेकिन हस्तमैथुन जैसे विषय को केंद्र रखकर बनी फिल्म को बिना ‘ए’ सर्टिफिकेट के सभी बच्चों को दिखाने की वकालत करना आखिर कितनी समझदारी है? इस फिल्म को देखकर कोई भी बच्चा जिसे सेक्स के बारे में कोई ज्ञान नहीं है अगर हस्तमैथुन की ओर प्रवृत होता है उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा? सेक्स एजुकेशन के नाम पर हस्तमैथुन की बारीकियों और उससे उपजी मानसिकता को कमसिन बच्चों के सामने बेरोक टोक परोसने की अनुमति दे देना कहां तक उचित है? ये नहीं भूला जा सकता कि सेक्स एजुकेशन एक दुधारी तलवार की तरह है, बच्चों को किस तरह से इसके बारे में सही ज्ञान देना है यह बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य है।

कहा जा रहा है कि ‘ओ माई गॉड 2’ पहले स्वाभाविक रूप से परेश रावेल को ऑफर की गई थी, लेकिन एक संवेदनशील और समाज और सिनेमा की गहरी समझ रखने की वजह से उन्होंने ‘हस्तमैथुन’ जैसे विषय के साथ काम करने से साफ इंकार कर दिया। इसके पहले सीक्वल ‘ओ माई गॉड’ में अपनी प्रॉपर्टी लॉस को लेकर भगवान के ठेकेदारों से दो-दो हाथ करना तो उन्हें मंजूर था लेकिन बालमन पर हस्तमैथुन के प्रभाव पर काम करना उन्होंने कहीं से भी उचित नहीं समझा। पंकज त्रिपाठी और परेश रावल की संवेदनशीलता या किसी प्रोजेक्ट को लेकर उनका प्रोफेशनल रवैया उनका निजी मामला है, लेकिन अगर पंकज त्रिपाठी इस फिल्म के ए सर्टिफिकेट पर सवाल उठाते हैं, तो एक आम दर्शक के पिता के नाते उनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि यदि वह सेक्स से अनजान अपने बेटे या बेटी को सिनेमाघर में यह फिल्म दिखाने ला जाता है और फिर फिल्म देखने के दौरान बच्चा उससे सवाल करता है कि पापा, हस्तमैथुन क्या होता है तो उसे अपने बेटे को क्या जवाब देना चाहिए? वो भी तब जब इस बच्चे को हस्तमैथुन के बारे में कोई जानकारी नहीं है। उसकी परवरिश ऐसे माता-पिता द्वारा की गई है जिन्होंने बड़े संभाल करके उसे इन चीजों से बचा कर रखा है। क्या फिल्म उसे एक ऐसे विकृति की तरफ आकर्षित नहीं करेगी जिससे वह अब तक पूरी तरह अनभिज्ञ है? 

वैसे कहा तो यह भी जा रहा है कि फिल्म में काम करने के बाद अक्षय कुमार को यह बात समझ में आयी कि हस्तमैथुन जैसे विषय में हाथ डालकर उन्होंने एक गलती कर दी है। देवालयों से उठने वाले विरोध के स्वर के बाद शायद इसीलिए वह खुद इसकी प्रमोशनल एक्टिविटी से दूर रहे।                

फिल्म ‘ओ माई गॉड 2’  को लेकर ट्विटर पर कई हैशटैग ट्रेंड करते रहे हैं। इस फिल्म से संबंधित लगभग सभी हैशटैग वाली पोस्ट में इसे सेक्स एजुकेशन पर बनी एक बेहतरीन फिल्म करार दिया जा रहा है और साथ ही फिल्म सेंसर बोर्ड द्वारा 27 कट के बाद दिये गये ‘ए’ सर्टिफिकेट पर भी आपत्ति  जताई जा रही है। फिल्म को देखकर थियेटर से बाहर निकलते हुए कुछ युवक-युवतियों की वीडियो क्लिपिंग भी साझा किये जा रहे हैं जिनमें वे बढ़चढ़ इस फिल्म को सभी युवाओं के लिए ‘मस्ट वाच’ फिल्म बता रहे हैं, ताकि सेक्स को लेकर उनकी भ्रांतियां दूर हो जायें। इस फिल्म को एजुकेशनल फिल्म के तौर पर पेश करते हुए कुछ फिल्म समीक्षक तो सेंसर बोर्ड के तमाम सदस्यों की फिल्म को लेकर समझ पर सवाल उठा रहे हैं और उन्हें फिल्म सेंसर बोर्ड से एक मुश्त बाहर फेंकने की वकालत कर रहे हैं ताकि इस तरह की बेहतरीन फिल्मों के लिए बिना कट रिलीज होने का मार्ग प्रशस्त हो सके। अब ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या यह फिल्म वाकई में एक एजुकेशनल फिल्म है, और यदि यह एजुकेशनल फिल्म है तो यह किन लोगों को एजुकेट करती है, और क्यों करती है?

फिल्म ‘ओ माई गॉड 2’ में एक स्कूल के बाथरूम में एक किशोर द्वारा किये जा रहे हस्तमैथुन से उपजी परिस्थियों को बहुत ही नाटकीय ढंग से दर्शाया गया है। हस्तमैथुन करता हुआ उसका वीडियो वायरल होता है, उसके लिंग के आकार को लेकर छींटाकशी होती है, उसे स्कूल से निकाल दिया जाता है और वह डिप्रेशन का शिकार होकर खुदकुशी करने की जेहनियत में आ जाता है और अटेंप्ट भी करता है। उसके पिता को लगता है कि उसके बेटे की इस हालत के लिए उसका स्कूल, पूरा समाज और वह खुद भी जिम्मेदार है क्योंकि कम उम्र के उसके बेटे को सेक्स के बारे में सही जानकारी देने की जिम्मेदारी जिन पर थी उनलोगों ने उसका मजाक बनाकर उसे प्रताड़ित किया, और उसे मरने की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया।

पूरा मामला कोर्ट में पहुंचता है और वहां पर अर्थ और मोक्ष के साथ-साथ काम आदि लक्ष्यों का हवाला देते हुए कहा जाता है कि जब भारत की सनातन संस्कृति भी काम को पूरी संजीदगी से स्वीकार करती है तो फिर इस पर पर्दा क्यों डाला जाता है, इस पर बात क्यों नहीं की जाती है, इसे लेकर बच्चों के मन में उठने वाली जिज्ञासाओं को शांत करने की पहल क्यों नहीं की जाती है, सही जानकारी के अभाव में यदि कोई बच्चा गलत कदम उठाता है तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है?

फिल्म के लेखक और निर्देशक अमित राय ने पूर् सब्जेक्ट को कोर्ट में लाकर तार्किक तरीके से बच्चों से जुड़े हुए सेक्स के इस पहलू को पेश करने की कोशिश की है। उनकी इस कोशिश को सराहा भी जा रहा है, साथ ही अक्षय कुमार, पंकज त्रिपाठी, यामी गौतम समेत उन तमाम अभिनेताओं की भी तारीफ हो रही है जिन्होंने अपने अपने किरदार को सशक्त तरीके से निभाया है। दर्शकों का एक समूह इस फिल्म को एंजॉय कर रहा है। फिल्म बेहतर बनी है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि इस फिल्म को सभी स्कूली बच्चों को दिखाने की वकालत करते हुए फिल्म सेंसर बोर्ड द्वारा इसे ए सर्टिफिकेट दिये जाने के निर्णय पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुये सेंसर बोर्ड के सभी सदस्यों को बाहर का रास्ता दिखाने की बात की जाये।

यह जरूरी नहीं है कि स्कूल में जाने वाले सभी लड़के या लड़कियां हस्तमैथुन के बारे में जानते हों। हो सकता है उनमें से 30-40 प्रतिशत बच्चों को इसके बारे में कोई जानकारी न हो और वे सेक्स की विकृति से पूरी तरह से अनजान हों। ऐसे में उन बच्चों को सेक्स एजुकेशन के नाम पर हस्तमैथुन के बारे में जानकारी देने का क्या तुक है? क्या यह फिल्म सेंसर बोर्ड का दायित्व नहीं है कि उम्र के पहले बच्चों को ऐसी फिल्मों से बचाये जो शिक्षा के नाम पर उन्हें हस्तमैथुन जैसे शब्द से रूबरू करती हैं? यदि स्कूल का एक बच्चा भी जिसे हस्तमैथुन के बारे में कुछ भी पता नहीं है इस तरह की फिल्म देखने के बाद जिज्ञासावश हस्तमैथुन करने की ओर प्रवृत होता है तो  फिर इसकी जिम्मेदारी किसकी होगी? फिल्म  मेकर्स की या फिर फिल्म समीक्षक की जो इस फिल्म को यू सर्टिफिकेट देने की वकालत करते हुए फिल्म सेंसर बोर्ड के निर्णय पर ही सवाल उठा रहे हैं?

पंकज त्रिपाठी का यह कह देने से कि यह फिल्म पूरी संवेदनशीलता से बनाई गई है, और सेंसर से पहले वे लोग खुद को सेंसर करते हैं पर्याप्त नहीं है। बच्चों के कोमल मन पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों वाली फिल्मों का उन तक सहज रसाई रोकने की जिम्मेदारी फिल्म सेंसर बोर्ड की है। बेहतर होगा कि निर्देशक अभिनेता अपना काम करें, समीक्षक अपना काम करे, और सेंसर बोर्ड को अपना काम करने दे। पब्लिक समझदार है, सब जानती है।

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