मृणाल सेन की ‘एक दिन अचानक’ में छिपा हर दौर का विमर्श


Ajay Chandravanshi

मृणाल सेन जीवित होते तो आज 102 बरस के हो रहे होते। उनकी जयंती पर ‘सिनेमा के साहित्य की समीक्षा’ के तहत अजय चंद्रवंशी की कलम से प्रस्तुत है 1989 में बनाई उनकी हिंदी फिल्म ‘एक दिन अचानक’ की समीक्षा। इस फिल्म की कहानी एक ऐसे परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसमें अचानक एक दिन एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आता है, जो उनके जीवन को नई दिशा देता है। मृणाल सेन की निर्देशन शैली और कलात्मक दृष्टिकोण ने इस फिल्म को एक अद्वितीय और प्रभावशाली बना दिया है। यह फिल्म मानव संबंधों, पारिवारिक मूल्यों, और सामाजिक वास्तविकताओं को गहराई से दर्शाती है। मृणाल सेन की फिल्में अक्सर सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर केंद्रित होती हैं, और ‘एक दिन अचानक’ भी इससे अलग नहीं है। ‘सिनेमा के साहित्य की समीक्षा’ सीरीज़ में हम किसी फिल्म के कथानक के साहित्यिक-सामाजिक पक्ष पर एक समीक्षा देते हैं, क्योंकि सिनेमा साहित्य से ही बनता है। लेखक-समीक्षक अजय चंद्रवंशी बतौर शिक्षा अधिकारी कवर्धा, छत्तीसगढ़ में कार्यरत हैं।

मनुष्य का व्यक्तित्त्व कितना जटिल हो सकता है इसका अंदाज लगा पाना लगभग असंभव है। हम कितना भी दूसरे को ‘जानने’ का दावा करें, अक्सर हतप्रभ होते रहते हैं। यानि किसके मन में क्या चल रहा है कोई नहीं जान सकता। हम जो भी आकलन करते हैं घटना के घटित हो जाने के बाद!
समाज में कोई भी दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हो सकते। तमाम सदिच्छाओं, प्रेम,वैचारिक समानता के बावजूद व्यक्तित्व में भिन्नता रहती है, और कहीं न कहीं ’उसे ठीक से न समझ पाने’ की पीड़ा हर किसी के मन में रहती है। यह समस्या अपनी के पीढ़ी के बीच है तो फिर भिन्न –भिन्न पीढ़ियों के बीच की बात ही क्या!
समाज में व्यक्ति का आकलन मुख्यत: उसकी ’सफलता’ के आधार पर किया जाता है। यहां सफलता मुख्यत: आर्थिक और प्राप्त प्रशासनिक शक्ति को ही माना जाता है, इसलिए इनसे इतर कुछ ऐसे कार्य जिनमें आर्थिक और प्रशासनीक शक्ति की उपलब्धि नहीं होती, लगभग उपेक्षित रह जाते हैं। उनका महत्व ’समाज निर्माण’ के लिए आवश्यक होने के बावजूद समाज की शक्ति संरचना में भागीदारी नहीं होने के कारण उनके महत्व के नज़र अंदाज किया जाता है।ऐसे में इन क्षेत्रों से जुड़े व्यक्तियों में कभी–कभी निरर्थकता का भाव भी आ जाता है।

कला, साहित्य, दर्शन, अध्यापन जैसे क्षेत्रों से जुड़े व्यक्तियों को सामान्यतः इसमें रखा जा सकता है। इनके कार्य को सामान्य रूप से ‘रचनात्मक कार्य’ कहा जा सकता है। ऐसा नहीं कि ऐसे व्यक्ति समाज से परे ’विशिष्ट’होते हैं। लेकिन इतना अवश्य है कि इनकी चेतना अपने कार्यक्षेत्र के अनुरूप औसत कामकाजी व्यक्ति से थोड़ी अलग दिखाई पड़ती है।यानी संवेदनात्मक लगाव के बावजूद ये समाज के सामान्य लोकाचार में बहुधा सहज फिट नहीं हो पाते। इसी कारण बहुत से लोग इसे विचलन,अहंकार, सनक आदि के रूप में देखते रहे हैं।
ऐसा नहीं कि ऐसे व्यक्तियों में मानवीय कमजोरियां होती ही नहीं, होती हैं। कभी अपने जिए मूल्यों को ही श्रेष्ठ मानना और बदलते सामाजिक परिवेश से सामंजस्य न बिठा पाना अक्सर द्वंद्व का कारण बनता है।पीढ़ीगत अंतर से जीवन लक्ष्य में अंतर स्वाभाविक है,जरूरी नहीं जो बाप है बेटा/बेटी भी वही बनें। पहली पीढ़ी कई बार दूसरी पीढ़ी को ‘अपनी परम्परा’का वाहक देखना चाहता है, लेकिन जरूरी नहीं कि वैसा ही हो। संभव है लेखक बाप द्वारा अर्जित किताबों से अगली पीढ़ी का उस तरह जुड़ाव न हो, उनके रास्ते अलग हों, वे दूसरा करियर चुनना चाहते हों! ऐसा भी नहीं कि दूसरी पीढ़ी सर्वथा ‘निर्दोष’ हो, उनके अंदर भी एक जल्दबाजी और पिछली पीढ़ी के संघर्ष को कमतर देखने की प्रवृत्ति रहती है। उनकी शिकायत सब कुछ करने के बाद भी बहुधा ‘तुमने मेरे लिए क्या किया’ वाली रहती है।
फिल्म ‘एक दिन अचानक’ के रिटायर्ड प्रोफेसर शशांक राय के जीवन त्रासदी लगभग ऐसी ही है। भरा–पूरा मध्यमवर्गीय परिवार है।पत्नी, दो बेटियां और एक बेटा है। जीवन भर ईमानदारी से अध्यापन किया, साहित्य में काम किया, मगर वह ‘सम्मान’ नहीं मिला जिसके कुछ हद तक वे आकांक्षी थे। वे प्रकटत: अपने सम्मान की बात नहीं करते थे, बहुत संयमित थे, लेकिन ऐसा नहीं कि वे मानवीय आकांक्षा से परे थे।उनके सामने ही जब घर–परिवार के लोग दूसरों की भौतिक सुविधाओं की प्रशंसा इस ढंग से करते मानो उन्होंने अपने जीवन में कुछ नहीं किया तो उनके अंतस को चोट लगती थी। लेखन में भी एक तो समाज के अधिकतर लोग उसको महत्व देते ही नहीं,उस पर लेखन जगत की अपनी स्वार्थ की राजनीति से वे आहत होते थे। मसलन उनके लिखे एक लेख की नकारात्मक आलोचना से वे असहज हो जाते हैं।

शशांक राय की पीड़ा मुख्यतः वही है जो वे अपनी बेटी नीता से एक बार कहते हैं “तुम जानती हो नीता हमारे यहां सबसे कीमती चीज है सफलता, कामयाबी! साधना डेडिकेशन की कोई कीमत नही है इस दुनिया में।” ऐसा नहीं उनके समर्पण की कोई कीमत नहीं है। उतनी अवश्य नहीं जितनी होनी चाहिए। अपर्णा जैसी स्त्री है जो उनके लेखन,उनके डेडीकेशन का सम्मान करती है।यद्यपि ऐसे लोगों की संख्या कम हैं।
शशांक राय के व्यक्तित्व का एक पहलू वह भी है जो नीता एक जगह सीमा से कहती है कि बाबा शायद उतने बड़े नहीं थे जितना हमने उनको मान लिया था। वह भी हमारी तरह एक सामान्य इंसान थे। माना जा सकता है कि उनके अंदर भ्रम का एक अंश था जिसका कुछ हिस्सा स्वयं उनके द्वारा निर्मित था और कुछ परिवेश जनित, मगर ऐसा नहीं था कि वे आत्म मुग्ध थे। वे यथार्थ में जीते थे। अवश्य रचनात्मक जीवन जीने के कारण उनकी कुछ अपेक्षाएं थीं।

मसलन उनके लिए बहुत दुखद था कि उनका अपना बेटा बी. ए.पास नहीं कर पाया। उनके अंतस में यह इच्छा दबी थी कि बेटा उनकी तरह कुछ ‘रचनात्मक’कार्य करे। और इसमें असफलता उनको चुभती थी।यहां उनसे यह चूक होती है कि बेटा की इच्छा यदि बिजनेस करना है तो वह उसे स्वीकार करे। यद्यपि पत्नी,बच्चे उनका सम्मान करते थे मगर कभी–कभी मूल्यों का अंतर खीझता का कारण बन जाता था।
अपर्णा के प्रति उनके आकर्षण को किसी ‘परिणाम’ की चाह के रूप में नहीं देखा जा सकता। उसे किसी प्रकार ‘अनैतिक’ नहीं कहा जा सकता। यह सिर्फ एक समानधर्मा ,जो उसकी भावनाओं को बेहतर समझता है के प्रति आकर्षण है। जाहिर उसके विपरीत लिंग के होने के कारण आकर्षण का स्वरूप भिन्न रूप में प्रकट होता है। यह स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है। इसमें किसी प्रकार की कोई कुंठा नहीं है।
इस तरह शशांक राय का एक दिन अचानक घर से बिना बताए चले जाने का कारण उनके व्यक्तित्व की जटिलता, सामाजिक मूल्यों के द्वंद्व, आर्थिक सफलता को एक मात्र सफलता का मापदंड मानना, अनावश्यक हीनताबोध आदि कई पहलुओं में ढूंढा जा सकता है। यह विडंबना समाज में होती रही है कि हम सब दूसरे से खुद को ठीक से नहीं समझ पाने की भावना से ग्रस्त रहे हैं। यह विडंबना आगे भी होती रहेगी क्योंकि मनुष्य का व्यक्तित्व शायद संसार का सबसे बड़ा रहस्य है।
(फ़िल्म रामपद चौधरी के 1977 के बंगाली भाषा के उपन्यास ‘बीज’ पर आधारित है।)