दुर्गा का प्रयाण
सत्यजित राय की ‘पथेर पांचाली’ भारतीय सिनेमा की एक पूरी परंपरा का बल्कि कहें सिनेमाई सभ्यता का, संवेदना का प्रस्थान बिंदु रही है। इसलिए इस फिल्म से जुड़ी हर बात खास है। कलाकार और उनके निभाए किरदार तो कालजयी हो ही चुके हैं। इन्ही में से एक दिल में समा जाने वाल किरदार था दुर्गा का, जिसे निभाया था उमा दासगुप्ता ने, जिन्होने अपने पूरे जीवन में सिर्फ इसी एक फिल्म में काम किया। उमा दासगुप्ता का 18 नवंबर 2024 को निधन हो गया। उन्हे दुर्गा के उनके कालजयी किरदार के ज़रिए याद कर श्रद्धांजलि दे रहे हैं जाने माने फिल्मकार और साहित्यकार सुदीप सोहनी। मप्र के खंडवा शहर में जन्मे सुदीप सोहनी ने पुणे के फिल्म एंड टेलीविजन संस्थान से डिप्लोमा हासिल किया है। हाल की बनाई उनकी फिल्मों में शामिल है ‘तनिष्का’- जो भोपाल की उभरती भरतनाट्यम बाल नृत्यांगना तनिष्का पर आधारित थी और दूसरी है ‘यादों में गणगौर’ जो मध्यप्रदेश की परंपरा और संस्कृति पर आधारित है। दोनों ही फिल्मों को दुनियाभर में कई समारोहों में सराहना मिली है।
कुछ तस्वीरें इतिहास होती हैं। भारत के सिनेमा की यह प्रतिनिधि तस्वीरों में एक है। सत्यजीत राय की पहली फ़िल्म ‘पाथेर पांचाली’ की दुर्गा। अपू की बहन। जिस तरह से यह चरित्र जीवंत होता है, उस पर किताबें लिखी जा चुकीं। मगर कैसे कोई तस्वीर या चरित्र जीवन में शामिल हो जाता है? कैसे किसी सिनेमा या नाटक की तस्वीर जीवन में रहते-रहते ही किंवदंती बन जाती है?
दुर्गा को आप बंगाली, या भारतीय सिनेमा का चरित्र ही नहीं कह सकते। यह विश्व सिनेमा की धरोहर है। जैसे लियोनार्दो दा विंची की मोनालिसा। आज से सत्तर बरस पहले सत्यजीत राय नाम के व्यक्ति ने उन्हें अपनी फ़िल्म में काम करने के लिए चुना होगा तो उस समय कुछ 12-15 बरस की लड़की उमा दासगुप्ता को भी पता नहीं होगा कि उसके बचपन की वह चंचल, चपल हरकतें कैमरे की रील में क़ैद होकर क्या करिश्मा रचने जा रही!
एक-एक करके कैमरा चलता जा रहा, रील घूमती जा रही और भाई को उठाने के लिए फटी चादर में हाथ डालकर उसकी आँखें खोलने से लेकर बरामदे को बुहारना, माँ के क्रोध का शिकार बनना, दोस्त के घर जाकर फेरीवाले की मिठाई खाना, भाई के साथ खंडहरनुमा घर में फ़क़ीरों-सी मौज में मस्त रहना, और कास के खेत में धुआँ उड़ाती रेल को जीना। ‘पाथेर पांचाली’ में दुर्गा यूँ ही आँख का तारा बन कर नहीं जीती। उसकी आँख के रहस्य राय ने बचपन में ही पहचान लिये थे। आश्चर्य यह भी कि वही एकमात्र चरित्र था उमा दासगुप्ता का जो रीलों के हिस्से आया।
सत्तर साल पहले अपू की बहन ने प्रस्थान किया था। अमर तो वह तभी हो चुकी थी!