‘द एलिफेंट व्हिस्परर्स’ को इसलिए मिला ऑस्कर
‘एलिफैंट व्हिस्परर्स’ सिर्फ एक अनाथ हाथी रघु की कहानी नहीं है बल्कि ये पर्यावरण के लिए गहराते संकट और उसके असर को मानवीय संवेदना के स्तर पर समझाती एक गंभीर फिल्म है, जिसमें कथानक का परिदृश्य तो भारतीय है, लेकिन उसमें कही और दिखायी बातें सार्वभौमिक हैं। ऑस्कर से सम्मानित इस फिल्म पर डॉ रक्षा गीता का एक गंभीर, विस्तृत और संवेदनशील आलेख। डॉ रक्षा गीता दिल्ली यूनिवर्सिटी के कालिंदी कॉलेज के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। 20 से अधिक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में उनके शोधपत्रों की प्रस्तुतियां व प्रकाशन हो चुके हैं। उन्होने ‘धर्मवीर भारती का गद्य साहित्य ‘नाम से पुस्तक लिखी है। इसके अतिरिक्त डॉ रक्षा गीता की कई कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं। समसामयिक विषयों पर पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन के तौर पर सामाजिक और रचनात्मक रुप से वे बेहद सक्रिय रहती हैं।
पुरस्कारों की सबसे बड़ी सार्थकता इस बात में है कि पुरस्कार आपको और आपके काम को पहचान दिलाते हैं.. और दुनिया की नज़रें आप पर और आपके काम की ओर केंद्रित हो जाती हैं… ऐसे में वो कार्य और अधिक सार्थक प्रतीत होता है। इस नज़रिए से फिल्म ‘एलिफैंट व्हिस्परर्स’ जो ‘बेस्ट डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट कैटेगरी’ में ऑस्कर पाकर पूरी दुनिया में चर्चित हो रही है, वो देखने के लिए एक ज़रुरी फिल्म बन जाती है।
फिल्म प्रोड्यूसर गुनीत मोंगा के सिख्या एंटरटेनमेंट के प्रोडक्शन और कार्तिकी गोंजाल्विस के डायरेक्शन में बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘एलिफैंट व्हिस्परर्स’ मधुमलाई टाइगर रिजर्व, तमिलनाडु के जंगलों के हाथियों की स्थिति के माध्यम से बहुत मार्मिकता से कई गंभीर प्रश्नों पर वैचारिक भूमि तैयार करती है। एक समय था जब बचपन में हम दूरदर्शन पर ‘फिल्म डिवीज़न की भेंट’ के माध्यम से बहुत ही मनोरंजक, रोचक व ज्ञानवर्धक वृतचित्र देखा करतें थे। अफ़सोस अब तो फ़िल्म डिवीज़न भी जाने किसकी भेंट चढ़ चुका है। ऑस्कर इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि भारत में डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में लोकप्रिय नहीं होती न ही इसके लिए कहीं कोई गंभीर प्रयास नजर आते हैं।
1971 में आई ‘हाथी मेरे साथी’ जिसमें हाथियों के प्रति नायक का स्नेह प्रेम और दोस्त के रूप में चित्रित किया था लेकिन ये सर्कस के हाथी थे। 1977 ‘सफ़ेद हाथी’ नामक फिल्म आई इसमें भी एक बच्चे और उस हाथी का दोस्ताना रूप मिलता है जो एक बच्चे को सोने का सिक्का दिया करता था। समुद्र मंथन में निकले ऐश्वर्य का प्रतीक श्वेत हाथी ऐरावत को भी हम जानतें हैं लेकिन आज इस विशाल वैभवशाली हाथी का अस्तित्व खतरे में है “हमारी गलतियां बहुत खतरनाक है हमारे लिए भी और हाथियों के लिए भी”।
क्या मनुष्य ने समस्त प्रकृति को खतरे में नहीं डाल दिया? आज प्रकृति चीत्कार कर रही है। हाथियों की फुसफुसाहट वास्तव में सम्पूर्ण धरा के संरक्षण की गुहार लगा रही है। इस खतरे से उबारने के क्रम में आगे आते हैं दक्षिण भारत में कट्टूनायकन आदिवासी के दंपत्ति बेली और बमन जिन्होंने पुनर्वास शिविर में अनाथ नन्हें हाथियों को सफलता पूर्वक पालन पोषण किया। फ़िल्म में हाथियों के प्रति इनका स्नेह और लगाव, उनकी सांस्कृतिक परम्पराएँ तथा प्रकृति और ईश्वर में (गणेश) एकरूपता को बखूबी दिखाया गया है । दम्पति माता-पिता की तरह नन्हें हाथियों का पालन पोषण करते है और बड़े होने पर उन्हें वापस जंगल में भेज दिया जाता है, जिस प्रकार बच्चे नौकरी के सिलसिले में शहर/देश छोड़ कर चले जातें हैं। बच्चों की प्रगति में माता पिता बाधक नहीं बनतें तो बेली और बमन भी बिना किसी लोभ-लालच के पूरी आत्मीयता और स्नेह के साथ हाथियों की प्रजाति की रक्षा और विकास में बाधक नहीं सहयोगी बनते हैं। फिल्म को मिले ऑस्कर अवार्ड ने भी प्रमाणित कर दिया कि प्रकृति को बचाने की मुहिम में स्त्रियों का कितना बड़ा योगदान है। ‘चिपको आन्दोलन’ से लेकर (उसके भी सदियों पहले से) गुनीत मोंगा और कार्तिकी गोंज़ाल्विस तक स्त्रियाँ ही मानव और प्रकृति के सह-सम्बन्ध को बचा सकती है वे सिर्फ मानव सभ्यता ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण वसुंधरा को बचाने पर बात करती है।
यह डॉक्यूमेंट्री सदियों से मनुष्य और प्रकृति के सह-संबंध की दास्तां बताती है। पहला दृश्य, मधुमलाई टाइगर रिजर्व तमिलनाडु भारत 2019, एक आदमी की सतर्क आँखे जंगल का निरीक्षण कर रही हैं, एक बड़ी सी गिलहरी मजे से फल खा रही है, उस आदमी को नहीं पता कि एक उल्लू चौकीदार की तरह उसपर नज़र रखे हैं,एक गिरगिट पतली-सी हरी चिकनी डाली पर आराम-मुद्रा में बहुत भली लग रही है। आदमी आदिवासी कट्टूनायकन है वो बताता है कट्टूनायकन यानी जंगल का राजा, शेर नहीं मनुष्य! जिसने समस्त धरा पर अपना अधिपत्य स्थापित किया है लेकिन राजा होने के वास्तविक धर्म को कट्टूनायकन आदिवासी बहुत भली भाँति निबाह रहें हैं आदिवासी महिला बेली बताती है कि हम जंगलों के बीच नंगे पाँव चलतें है जो जंगल के प्रति सम्मान दिखाने का तरीका है कट्टूनायकन के लिए जंगल का हित सबसे ऊपर है बमन कहता है यह जंगल हमारा घर है, जहाँ हमेशा हमारे पूर्वज रहे हैं आज मैं इसके साथ हूँ “जंगलों के साथ होना” डॉक्यूमेंट्री के उद्देश्य को स्पष्ट कर देता है।
बचपन में खेल-खेल में लड़ाई होने पर हम एक कहावत-सी कहा करतें थे ‘कुत्ते-कुत्ते भौंकते रहे हाथी शान से चलते रहे’; लेकिन कमजोर पर हर कोई वार करता है। परिवार से बिछुड़े जंगल से भटके हुए एक नन्हें हाथी रघु को कुत्तों ने काट लिया उसकी घायल पूँछ और घाव में कीड़े पड़ गए थे। रघु की मां की मौत बिजली के झटके लगने से हुई, अक्सर जंगल में आग लगने पर और लंबे अकाल के बाद मासूम-मूक हाथियों का झुंड गांव में आ जाता हैं। पर जंगल में आग कैसे लग जाती है, जंगलों में अकाल क्यों पड़ रहे हैं? वन विभाग ने नन्हें रघु को उसके परिवार से मिलाने की कोशिश की पर असफल रहे तो वन विभाग ने रघु को बचाने की जिम्मेदारी बमन और बेली को सौंप दी। बेली तमिलनाडु में एकमात्र महिला बन गई जिसे हाथियों के बच्चों को सौंपा गया। आदिवासी जंगली हाथियों से आत्मीय सम्बन्ध रखते हैं उन्हें अपना भगवान् मानते है, बमन के अनुसार “हाथी भी प्रकृति का अंग है और हम प्रकृति पूजक हैं हमेशा से, जैसे भगवान की सेवा करता हूं वैसे हाथियों की सेवा करता हूं। रघु की वजह से हमारे घर में खाना आता है यही भगवान की देन हैं। प्रकृति हमें देती है और सिर्फ देती है”। हम धरती को कितना देते हैं?
कथा आगे बढ़ती है अलग-अलग दृश्य आदिवासी समाज और हाथियों का उनके जीवन में महत्व, नन्हें रघु और बाद में एक नन्हीं हथिनी अम्मू की अठखेलियाँ हमें मोहित कर जाती है। परिवार की संकल्पना मनुष्य और हाथियों में सामान रूप से पाई जाती है बमन और बेली के अनुसार “हम रघु का परिवार बन गए इसीलिए शायद यह जी पाया” जबकि परिवार संस्था विघटित हो रही है,परिवार का महत्व समझ आता है। बेली बताती है कि मेरी बेटी के मर जाने के बाद रघु का आना ऐसा लगा कि बेटी ही वापस आ गई, रघु ने अपनी सूंड से मेरे आँसू पोंछे.. वह छोटे बच्चों की तरह मेरे कपड़े खींचता था, मुझे उसका प्यार महसूस हुआ और रघु ने भी मुझमें मां की-सी सुगंध को अनुभव किया होगा उसकी यह हरकत मुझे सुकून दे गई है। हाथियों का पुनर्वास शिविर जहां अनाथ भटके हुए, छोड़े हुए हाथियों की देखभाल की जाती है रघु बहुत गंभीर अवस्था में आया, रघु को संभालने में बहुत टाइम लगा लेकिन आज वह तीन वर्ष का हो गया। रघु के पालन-पोषण, लाड-प्यार उसके नखरे आदि के दृश्य आपको नन्हें बालक से ही लगतें है जैसे- बमन उसको नहला रहा है, तो वह अपनी सूंड में पानी भरकर उस पर फेंकता है, रघु को प्यार भरी डांट लग रही है, उसने घंटी खो दी थी जो उसे वापस नदी पर मिल गई बमन बताता है “हम इन्हें घंटी पहनाते हैं ताकि अगर जंगल में खो जाए तो घंटी की आवाज से पता लग जाए”।
रघु का दोस्त कृष्णा भी है जो उसे घास तोड़ना सिखा रहा है, जब रघु की जीभ पर कांटा चुभा तो कृष्णा हाथी उसे निकाल देता है। बमन के अनुसार “हम उन्हें बहुत ज्यादा नहीं सिखा सकते वह अपने जैसों को देखकर ही सीखते हैं, हाथी जंगल में रहने के लिए ही बना है दोनों को साथ देख कर बहुत अच्छा लगता है”। जैसे मनुष्य जिस समाज में रहता है वैसी ही संस्कृति, भाषा, परंपरा, रीति-रिवाज सीख जाता है अर्जित कर लेता है फिर हम क्यों इन जानवरों को पकड़कर पालतू बनाते हैं, गुलाम बनाते हैं और इनके लाभ लेते हैं हमें क्या अधिकार है? कभी-कभी रघु बहुत नटखट और शैतानी करता है खाने में उसे जौ के लड्डू नहीं बल्कि सूखा नारियल ही चाहिए, जिद्दी बालक की तरह वह बार-बार मुँह से लड्डू निकाल देता है। रघु को परम्परागत तरीके से सजाया गया उसे माला पहनाई गई आज के दिन हाथी के बच्चे को गणपति से आशीर्वाद दिलवाया जाता है। सभी हाथी सलामी दे रहे हैं। इन दृश्यों में लंगूरों का परिवार भी बार बार दिखाई पड़ता है जो रघु का बचा हुआ खाना खा लेते हैं, उनके हैरानी वाले हाव-भाव कथा के अनुकूल बन जाते है।
फिर मौसम ने करवट ली, हरियाली खत्म हो गई और भयंकर गर्मी पड़ने लगी जंगल में आग फैल गई और हाथियों का झुंड आग और गर्मी से बचने के लिए और भोजन की तलाश में इधर-उधर भागने लगे नन्हें हाथी पीछे बिछड़ गए। हाथी के नन्हें बच्चों के पैर जल रहे हैं, एक हाथी जो गर्मी से बिल्कुल जल चुका है। एक पाँच महीने की बेबी हाथी अम्मू बच पाई, बाकी सभी हाथी के बच्चे मर गए। अम्मू के आने पर एक हफ्ते तक रघु परेशान रहा उसे लग रहा था कि मेरा प्यार बंट रहा है… वह उसे धक्का दे देता पर अब धीरे-धीरे उसे अम्मू की आदत हो गई अब उसे अम्मू चाहिए। अब हम एक परिवार हो गए।
बेली कुछ बच्चों को तीन अंधों की कहानी सुनाती है और अंत में निष्कर्ष देती है कि लोग मानते हैं ‘हाथी खतरनाक होतें है,फसलों को खराब करते हैं लेकिन हाथियों के पास रहने वाले लोगों को ही पता हाथी कैसे होते हैं।जब तुम उन्हें प्यार करते हैं तो वह भी तुम्हें उतना ही प्यार करते हैं’। हाथियों को भी खूब देखभाल की जरूरत होती है यह इंसान के बच्चों की तरह ही देखभाल करने जैसा है पूरी मेहनत और देखभाल के साथ-साथ प्यार स्नेह की जरूरत होती है।
क्या इसी तरह जब हम प्रकृति प्रेम करतें हैं, उसका ख्याल रखते है तो वह भी तो हमें दोगुना प्रेम नहीं लौटाती? और हम इंसानों की फितरत भी बिल्कुल इसी तरह तो हैं ? लेकिन इंसान ने अपने आप को सभ्यता के नाम पर अप्राकृतिक (आर्टिफिशियल) बना लिया। वह पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों सभी पर साम्राज्य स्थापित करता जा रहा है दूसरों के श्रम पर अपना कब्ज़ा उसकी फितरत में शामिल है।
जब वन विभाग से सन्देश आता है कि अब रघु को बड़े हाथियों के बीच जाना होगा तो बमन और बेली का मन भारी हो रहा है। वे कहते हैं कि हमने वन अधिकारियों से विनती की कि हमें रघु से दूर न करें। जाने के वक्त अम्मू पीछे से चिल्लाकर पुकारती है। बेली के अनुसार ‘मुझे वही दर्द महसूस हुआ जो बेटी की मृत्यु के समय महसूस हुआ अम्मू मुझसे बार-बार पूछ रही है कि अभी रघु कहां है। अम्मू परेशानी से घूम रही है उसे रघु चाहिए था। कई दिनों तक दूध भी नहीं पिया अम्मू चिल्ला रही है उसे दूध नहीं पीना उसकी फटी-फटी आंखें परेशानी से देख रही है आज कई दिन बाद दूध पिया’। इस दृश्य में एक लंगूर-मां अपने बच्चे को और ज्यादा कसकर पकड़ लेती है। अब भी कभी-कभी रघु आता है उनसे मिलने और खूब प्यार करता है।
आज सभी हाथियों को नहीं बचाया जा पा रहा, जंगल काटे जा रहे हैं, जंगल में आग कई दफ़ा जमीन के लोभी जानबूझ कर भी लगाते हैं, इस पक्ष पर और खुलकर बात होनी चाहिए, ये जंगल कौन काट रहें हैं? कौन आदिवासियों और जंगल के पशुओं को बेघर कर रहा है हम नहीं जानते क्या? जंगलों को सरकारी अधिकार के बजाए आदिवासियों के संरक्षण में रखना चाहिए वे जंगल और जंगली जानवरों की जरूरतों को बेहतर जानते समझते है।
इस फिल्म को 2023 का बेस्ट डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट फ़िल्म का ऑस्कर मिलना बहुत जरूरी इसलिए था कि लोगों का ध्यान इस फिल्म और विषय पर केन्द्रित हो, देखने को उत्सुक हों तभी तो प्रकृति के प्रति जागरूक भी होंगे हालाँकि ऑस्कर लेते समय बमन, बेली, रघु और अम्मू का जिक्र न होना खटकता भी है। फ़िल्म का छायांकन और बिना किसी ट्रेनिंग के हाथियों, लंगूरों और बमन बेली से अभिनय-सा काम लेना अभूतपूर्व है। फिल्म के कुछ संवाद और दृश्यों की निर्मिती महिला निर्देशक होने के नाते लगता है जानबूझ कर की गई है, जैसे बमन का चूल्हा जलाना और बेली का कहना ऐसे आदमी से शादी कौन करेगा जो राख़ से सना हो इस चुहलबाजी में हम स्त्री की आकांक्षाओं को भी देखतें हैं लेकिन इसी बीच एक साथ काम करने के बाद बमन और बेली के बीच भी एक रिश्ता बन गया। अंत में बमन और बेली की शादी और हिंदी फ़िल्मों के हैप्पी एंडिंग, एक फैमिली फोटो। मानव और प्रकृति के नैसर्गिक संबंधों को जानने समझने के लिए एक अच्छी फिल्म नेटलिक्स पर परिवार के साथ देखनी चाहिए।