सभी भूमिकाओं में श्रेष्ठ थे बलराज- परीक्षित साहनी


श्रेष्ठ और लोकप्रिय अभिनेता बलराज साहनी ने भारतीय सिनेमा के अभिनेताओं की एक पूरी पीढ़ी को प्रेरित किया। उनके प्रशंसको में अमिताभ बच्चन,नसरुद्दीन शाह से लेकर ओम पुरी , सौमित्र चटर्जी तक शामिल थे। अभिनय के अलावा भी उनका एक बहुआयामी व्यक्तित्व था जहाँ वे देश और समाज के उत्थान के प्रति हमेशा सजग और कार्यशील रहे। उनकी पुण्य तिथि (13 अप्रैल ) पर उन्हें याद कर रहे हैं उनके पुत्र परीक्षित साहनी जो स्वयं प्रख्यात अभिनेता, लेखक और निर्माता-निर्देशक हैं। उनसे बातचीत के आधार पर लिखे इस आलेख को तैयार किया है प्रख्यात सिने इतिहासकार और सांस्कृतिक पत्रकार अजय कुमार शर्मा ने।
डैड को गुज़रे 52 साल, (मृत्यु 13,अप्रैल 1973) हो गए हैं, फिर भी वे अभी भी उन लोगों की स्मृति में जीवित हैं, जो उनसे प्यार करते थे और अभी भी उनसे प्यार करते हैं। वह उन लोगों में आज भी जीवित हैं जो मुझे समुद्र तट पर या सड़क पर रोकते हैं, या पार्टियों में मुझसे मिलते हैं और मुझे याद दिलाते हैं कि वह कितने महान अभिनेता, असाधारण साहित्यकार और कितने अच्छे इंसान थे।

अक्सर लोग आते हैं और मेरे पैर छूते हैं सिर्फ़ इसलिए कि मैं उनका बेटा हूँ, यह मानकर कि वे उस इंसान का सम्मान कर रहे हैं, जिसने मुझे जीवन दिया है। इससे मुझे बड़ी शर्मिन्दगी होती है, क्योंकि में डैड की बराबरी नहीं कर सकता— चाहे योग्यता में हो या महानता में, मुझे लगता है कि मैं किसी भी तरह उनके पासंग में नहीं बैठ सकता। जो प्यार और सम्मान उन्हें अपने चाहने वालों की तरफ से अभी भी मिल रहा है, भले ही वह मेरे माध्यम से ही क्यों नहीं हो, काश! पिताजी यहाँ होते तो यह देख पाते कि उनका जीवन, उनकी प्रतिभा, एक इंसान और एक अभिनेता के रूप में उनका योगदान व्यर्थ नहीं हुआ है।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह लोगों को इसलिए याद आते हैं क्योंकि वह बहुत शानदार अभिनेता थे और जैसा कि मुझे अब लगता है, वह अपने समय से बहुत आगे थे- प्रगतिवादी थे। उनके समय में अभिनय ज़्यादातर नाटकीय और अस्वाभाविक था। उनसे पहले के महान अभिनेता मोतीलाल जी की तरह उन्होंने भी अपने अभिनय में स्वाभाविकता को स्थान दिया। उन्होंने ‘अभिनय’ नहीं किया (जैसा कि उन्होंने मुझे एक बार बताया था), उन्होंने ‘समझा।’ लोग उन्हें उनके अभिनय के यथार्थ और सच्चाई के लिए याद करते हैं। आज, सभी प्रमुख अच्छे अभिनेता यथार्थवादी पद्धति का पालन करते हैं और नाटकीयता से बचते हैं। नसीरुद्दीन शाह और दिवंगत ओम पुरी जैसे सम्माननीय और प्रसिद्ध अभिनेता, डैड के प्रति अपने ऋण के बारे में बहुत मुखर रहे हैं। यहाँ तक कि युवा अभिनेताओं ने भी उनकी फ़िल्मों को देखने और उनकी आत्मकथा पढ़ने से जो कुछ सीखा, उसके लिए उन्हें श्रेय दिया है।
अपने बचपन और युवावस्था में मैं और डैड एक-दूसरे से दूर रहते थे। मुझे पछतावा है कि बड़े होते हुए मैं उनके मार्गदर्शन से वंचित रहा। मैंने अपने शुरुआती साल बोर्डिंग स्कूलों में या रिश्तेदारों के साथ बिताए, लेकिन इसके लिए मैं उन्हें दोषी नहीं ठहरा सकता। यह नियति थी कि हम अलग-अलग रहे। पीछे मुड़कर देखूं तो वह जिस परिश्रम और संघर्ष से गुज़रे, जिसके कारण उनका एक कठिन, अशान्त, यायावर और अस्थिर अस्तित्व था— मैं उसे अब बेहतर ढंग से समझ और सराह पाता हूँ।
डैड का निधन उनसठ वर्ष की आयु में हो गया था। मैं अब अपने अस्सी के दशक में हूँ। अगर अभी भी मुझे काम और लोगों की सद्भावनाएँ मिल रही हैं, तो यह केवल उनकी वजह से है।
यादें बचपन की

1939 में जैसे ही मेरे जीवन की शुरुआत हुई, नियति ने मुझे डैड और मेरी माँ दमयन्ती (दम्मो जी) से अलग कर दिया। मैं मुश्किल से छह महीने का था जब डैड और दम्मो जी मुझे हमारे रावलपिण्डी के पूर्वजों वाले घर में छोड़कर विदेश यात्रा पर जाने को मजबूर हुए। पाँच साल का होने तक में उन्हें देख नहीं पाया था।
डैड ने 1938 में एक साल के लिए महात्मा गाँधी के साथ सेवाग्राम में काम किया था। अगले साल उन्हें अन्य देशों में युद्धरत भारतीय सैनिकों के लिए हिंदी में कार्यक्रम प्रसारित करने के लिए भारत-भूमि को छोड़कर इंग्लैण्ड की उड़ान भरने के लिए कहा गया। डैड पल-भर के लिए भी नहीं झिझके। वह परिवार के किसी भी सदस्य से अलग थे। वे हमेशा नई-नई ख़तरनाक चुनौतियों की तलाश में रहते थे। वह रूढ़ियों को मानने वाले नहीं थे, ना ही परम्परा की लीक पर चलने वालों में से ही थे। इसलिए, जब उन्हें दूसरे विश्व युद्ध के दौरान लिओनेल फील्डन नामक एक अंग्रेज़ द्वारा लन्दन में बीबीसी में नौकरी की पेशकश की गई थी, तो उन्होंने इसके लिए पूरे जोश से हामी भर दी। यह ठीक उनके स्वभाव के अनुकूल था। जीवन भर उनका आदर्श वाक्य रहा— ‘नथिंग रिस्क्ड, नथिंग गेन्ड’ (जोखिम नहीं, नफा नहीं) । मेरे दादा-दादी ने उन्हें इस दुःसाहसपूर्ण काम को नहीं करने के लिए आरजू-मिन्नते की, लेकिन डैड ने उन्हें अनसुना कर दिया। उन्होंने कहा कि वह अपने देश के प्रति कर्तव्यों को पूरा कर रहे हैं, इसलिए अनिच्छा से उन्हें और मेरी माँ को जाने दिया गया। बहरहाल उन्होंने डैड को कम से कम इस बात के लिए राजी कर लिया कि अपने पीछे मुझे रावलपिण्डी में छोड़ जाएँ। मैंने अपने जीवन के पहले पाँच वर्ष अपने दादा-दादी और अपने चाचा-चाची, भीष्म साहनी जी और शीला जी (जो मेरे लिए माता-पिता के समान थे) के साथ बिताए। 1940 की गर्मियों में मुझे मालूम हुआ कि मेरे माता-पिता इंग्लैंड से लौटने वाले हैं । इस खबर से घर के बड़े बुजुर्ग उत्साह और उमंग से भर गए लेकिन मुझ पर कोई असर नहीं पड़ा उत्साहित होने की जगह मैं चकित और भ्रमित था।
वे दिन देश के लिए भयावह थे, स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष अपने चरम पर जा रहा था। इसलिए कश्मीर को सबसे सुरक्षित जगह मानकर मेरे माता-पिता ने मुझे श्रीनगर के पैतृक घर ले जाने का फैसला किया। यह लगभग वह समय था जब डैड श्रीनगर में अपने कॉलेज के पुराने दोस्त चेतन आनन्द जी से मिले थे, जिन्होंने सुझाव दिया था कि डैड को बॉम्बे (अब मुम्बई) चले जाना चाहिए और वह जो फ़िल्म नीचा नगर बना रहे हैं उसमें काम करना चाहिए। मुंबई आकर हम पाली हिल के एक घर में रहते थे। गोल्डी(विजय आनंद ) उन दिनों स्कूल में थे और देवानंद साहब डाक विभाग में काम करते थे।
इसके बाद थियोसॉफिकल कॉलोनी में एक झोपड़ीनुमा घर किराए पर लिया गया। यह ठीक समुद्र तट पर था और लगभग पूरी तरह से नारियल के सूखे पेड़ पत्तों से अटा पड़ा था । डैडी इप्टा में शामिल हो गए थे । इसके अनेक महत्त्वपूर्ण सदस्य हमारे घर दिनभर अपनी विभिन्न योजनाओं पर चर्चा करने के लिए जुटे रहते थे। इसी समय इप्टा द्वारा धरती के लाल फिल्म बनाई जा रही थी। इस बीच मेरे माता पिता ने नए परिवेश में मेरी व्याकुलता को देखते हुए मुझे रावलपिंडी वापस भेजने का फैसला किया । मेरी रावलपिंडी वापसी दंगों के दौरान हुई, इनकी शुरुआत अप्रैल 1947 में हुई। इनमें से कुछ तो हमारे अपने मोहल्ले में हुए ठीक हमारे घर के सामने। इस बीच 29 अप्रैल 1947 को दादा जी को एक तार मिला और हमें पता चला कि दम्मो यानी मेरी मां नहीं रही। 15 अगस्त 1947 के विभाजन के बाद रावलपिंडी का हमारा पूरा घर हमेशा के लिए हमसे छिन गया और इसके बाद कई सालों तक हमारा परिवार खानाबदोशों का जीवन जीने के लिए मजबूर रहा। गुलमर्ग के बाद में भीष्म जी और शीला जी के साथ धर्मशाला चला गया। इसके बाद हम अंबाला पहुंच गए। 1949 की शुरुआत में अकेले अपने बूते काम और बच्चों को संभाल नहीं पाने के कारण डैड ने अपने परिवार की मर्जी के खिलाफ जाकर उस महिला से शादी कर ली जिससे वह वास्तव में प्यार करते थे उनकी सगी फुफेरी बहन संतोष कश्यप।
अन्य लोगों की ही तरह डैड ने भी जब फिल्मी दुनिया में कदम रखा तो उन्हें अपमानित और हतोत्साहित किया गया। सबसे पहले तो परिवार के बड़े-बुजुर्गों ने ही उनकी हँसी उड़ाई, मज़ाक बनाया। वे डैड के पेशे को लेकर अपनी मुखर अस्वीकृति व्यक्त करते थे क्योंकि उनकी दृष्टि में इस काम का कोई सम्मान नहीं था। उसके बाद, फ़िल्मी दुनिया के लोग उन्हें ‘बिजूका’ पुकारते थे और उनसे कहते थे कि वह फिल्मों में काम करने का विचार छोड़ दें,क्योंकि वह ‘उम्र में काफी बड़े हैं। जब सीमा रिलीज़ हुई, जिसमें नूतन जी थीं, जो डैड से उम्र में आधी थीं और अभी-अभी अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत कर रही थीं, डैड को अक्सर बेहद ख़राब पत्र मिलते थे।
सार्थक अभिनय के लिए सीखें
मुझे 1969 की फिल्म पवित्र पापी में हीरो के रूप में लिया गया था। डैड ने अपनी आत्मकथा में बड़ी साफ़गोई से लिखा था कि कैसे पहली बार कैमरे का सामना करते हुए वे जड़वत हो गए थे। मेरा भी वही अनुभव रहा। मुझे अपनी लाइनें ही याद नहीं आ रही थीं। मैं रूसी, पंजाबी और अंग्रेज़ी भाषाएँ इसी क्रम में धाराप्रवाह बोल पाता था। हिन्दुस्तानी में मैं उतना सहज नहीं था। एक गाने की शूटिंग के दौरान मैं प्रतिक्रिया देने की बजाए एक जूनियर डांसर से आंखें मिला रहा था। यह देख डैड मुझे एक तरफ ले गए और बोले तुम इस गीत में कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दे रहे ?
ओह, कम ऑन डैड, यह एक गाना ही तो है।’
“तुम कौन हो? तुम यहाँ पर किसलिए हो? तुम यहाँ कब आए? यहाँ कैसे आए? तुम कहाँ हो?”
इन सवालों से मैं घबरा गया।
‘मैं आपका बेटा हूँ! मैं यहाँ पर इसलिए हूँ क्योंकि निर्देशक ने मुझे इस फिल्म के लिए कास्ट किया है। अभी दिन के ग्यारह बजे हैं और मैं आपके साथ कार में आया हूँ। और इस तरह मैं यहाँ पर आया हूँ।’ मैंने उनके सवालों का शब्दशः जवाब दिया, मैं उनके सवालों की झड़ी से हतप्रभ था।
‘गलत! यहाँ पर तुम मेरे बेटे नहीं हो। तुम केदार नाथ हो। तुम यहाँ इसलिए आए हो क्योंकि मैंने तुम्हें घड़ीसाज के रूप में काम पर रखा है और तुम मेरे घर पेइंग गेस्ट बन कर रह रहे हो। अभी सुबह के ग्यारह नहीं बजे हैं। यह रात का सीन है। और तुम मेरे साथ मेरी कार में नहीं आए हो। तुम रेल्वे स्टेशन से चल कर आए हो और यही तुम्हारा किरदार है।’ ‘ओह,’ मैंने कहा ‘मैं जो रोल निभा रहा हूँ, आप उसके बारे में बात कर रहे हैं… अच्छा। लेकिन आप मुझे यह सब क्यों बता रहे हैं?”
‘सुनो बेटा, यह कोई फ़िल्म सेट नहीं है। यह मेरे लिए पवित्र भूमि है। मैं धार्मिक नहीं हूँ। नास्तिक हूँ। मैं मंदिरों, चर्च या गुरुद्वारों में नहीं जाता। यह स्थान और यह सेट जहाँ पर मैं काम करता हूँ, यही मेरा मंदिर है। यही मेरी पूजा की जगह है। मेरे लिए काम ही पूजा है। चाहे वह हिंदी फिल्म हो या हॉलीवुड की, चाहे सीन छोटा हो या लम्बा, मुझे हर समय अपना सर्वश्रेष्ठ देना होता है—जब मैं मेकअप करके सेट पर होता हूँ।”
मैंने उनकी ओर देखा, वह बोलते रहे, ‘शूटिंग खत्म होने के बाद तुम जो चाहे, सो कर सकते हो। शराब पिओ, रेड लाइट एरिया में जाओ और जो पसन्द आ जाए उसके साथ मौज-मस्ती करो।
लेकिन, बस मुझ पर एक अहसान करो। मैं जिस मंदिर में पूजा करता हूँ, उसे गन्दा मत करो। जैसा कि मैंने कहा कि यह मेरे लिए एक पवित्र भूमि है। हमारे जीवन का उद्देश्य उत्कृष्टता हासिल करने का प्रयास करना है। यदि आपने कोई काम हाथ में लिया है तो उसे अपनी पूरी क्षमता के साथ पूरा करें और यदि ऐसा नहीं कर सकते हैं तो पहले ही मना कर दें।”

उन्होंने दूर से ही कैमरे की ओर इशारा किया और बोले, ‘ये जो लेंस नामक चीज़ है ना वह राक्षस है। यह सबकुछ आर-पार देख सकता है। यह आपके आंतरिक विचारों और मनोदशाओं को पकड़ लेता है। और यदि आप अपने आसपास के लोगों को बेवकूफ समझकर छल कर रहे हैं, तो कैमरे का लेंस आपके हर भाव को कैद करेगा और स्क्रीन पर एक हज़ार गुना बढ़ा कर दिखाएगा। कैमरा कभी झूठ नहीं बोलता। इसलिए मेरी सलाह है कि या तो तुरन्त इस फिल्म को करने से मना कर दो, और यदि इसमें काम करना ही चाहते हो, तो अपने काम को गम्भीरता से लो। और, जैसे ही डैड वहाँ से जाने लगे, पीछे मुड़ कर मुझसे एक बार फिर बोले, “याद रखना, यह मेरा पूजा का स्थान है।’
यह मेरे चेहरे पर एक हल्का, लेकिन बहुत प्रेरक थप्पड़ था।
डैड के शब्दों ने मुझ पर अमिट छाप छोड़ दी और मेरी कार्य-शैली बदल गई। उस दिन के बाद से मैंने फिल्म इण्डस्ट्री में किसी भी महिला कलाकार के साथ, चाहे जूनियर हो या सीनियर, कभी भी फ़्लर्ट नहीं किया। मैंने उनके नक्शे-कदम पर चलने की कोशिश की है, हालांकि यह आसान नहीं था। एक किस्सा और ऊधम सिंह फिल्म से। मैं इसमें एक क्रांतिकारी और डैड एक गांधीवादी नेता बने थे। एक दृश्य में मुझे उनके साथ तीखी बहस के बाद मुँह पर थूकना था जो मैं नहीं कर पा रहा था। लेकिन डैडी ने जब तक टेक ओके नहीं होने दिया जब तक मैंने सचमुच उनके मुंह पर गुस्से में थूक नही दिया। मुझे अपने आप पर शर्म आ रही थी। मुझे लगा कि मैंने बहुत बड़ा गुनाह कर दिया। लेकिन, डैड बहुत खुश थे, उन्होंने मुझे गले लगा लिया और बोले, ‘वेल डन! याद रखो, अभिनय, अभिनय नहीं होता, एक विश्वास होता है। जब कैमरा चलता है तब तुम मेरे बेटे नहीं हो। तुम ऊधम सिंह हो। और मैं तुम्हारा पिता नहीं हूँ। मैं तुम्हारा दुश्मन हूँ। इसलिए, हर शॉट से पहले, एक मैजिक सर्कल बनाओ। यूनिट, निर्देशक और तमाशबीनों को भूल जाओ। अपने चरित्र और जिस परिस्थिति में हो, उसमें समा जाओ।’
बहरहाल, मैंने बड़ी कोशिश की, लेकिन ये ‘मैजिक सर्कल’ नहीं बना पाया। शायद यही वजह है कि मैं डैड जैसी सफलता हासिल नहीं कर पाया।
प्रशंसकों से कैसे हो संबंध
मैं अक्सर सोच में पड़ जाता हूँ कि उनकी विलक्षण प्रतिभा के अलावा डैड के अन्दर ऐसा क्या था, कि लोगों ने उन्हें इतना प्यार दिया। और, मुझे अपने इस प्रश्न का उत्तर तब मिला जब में शिमला मॉल में एक रात को शूटिंग कर रहा था। हमारे पास बहुत थोड़ा समय था। तभी वहां फोटो लेने वाली भीड़ में से एक अधेड़ और मोटे व्यक्ति ने मेरा हाथ पकड़ लिया। वह नशे में धुत था उसके स्वभाव से मुझे बहुत गुस्सा आया और लगा कि उसे धकेल दूं । तभी उस मुझे 40 साल पहले की घटना याद आई। मेरे पिता को दिल्ली में एक फिल्म प्रीमियर के लिए बुलाया गया था। मैं तब वहीं सेंट स्टीफन में पढ़ रहा था ,मेरे चाचा भीष्म साहनी और चाची शीला भी वहां पहुंचे। प्रीमियर के बाद भीड़ अचानक अक्रामक हो गई ।
डैड, अचानक एक कार की छत पर चढ़ गए। और बोलने लगे, ‘मैं आप सभी से प्यार करता हूँ।’
डैड बोलते रहे, ‘मैं आपका दिल से शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ कि आपने मेरी फिल्म देखने के लिए समय निकाला। निर्माता मुझे मेरे काम का पैसा देता है, लेकिन ये आपका प्यार ही है जो जीवित रखता है और आपकी ओर खींचता है। आप सभी बेमिसाल हैं ! मेरे लिए, मेरे दर्शक ही मेरे भगवान हैं। मैं आपके लिए ही अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने का प्रयास करता हूँ और जब आप लोग मेरे काम की प्रशंसा करते हैं, तो मेरे लिए यह रुपये-पैसों से भी बड़ा इनाम होता है। लेकिन मेरी भाभी सात महीनों की गर्भवती हैं इसलिए कृपया हमें यहाँ से निकलने दीजिए। भीड़ में से एक चिल्लाया, ‘हम आपसे प्यार करते हैं सर! आप हमारे अपने हैं। हम आपको घर तक सुरक्षित पहुँचाएंगे।
घर जाकर जब हम सब ड्रॉइंग रूम में आराम से बैठ गए, तब डैड ने मेरी तरफ़ मुस्कराकर देखा और बोले, ‘बेटा, तुमने अपना आपा खो दिया था और तुमने भीड़ के साथ हाथापाई की थी लेकिन यह गलत है। ‘पब्लिक के साथ अशिष्टता नही करनी चाहिए। यह बहुत अच्छी और ईमानदार होती है। हमें अपने देशवासियों से पूरी सामर्थ्य और मन से प्रेम करना चाहिए… और तभी हम सच्चे अर्थों में रचनात्मक बन सकेंगे। मैंने तुम्हें भारत के सर्वश्रेष्ठ कॉलेजों में से एक में पढ़ने के लिए भेजा है; तुम्हें किसी बात की कमी नहीं है। तुम्हारे कॉलेज की फीस, आरामदायक जीवन-शैली के लिए पैसा, इन्हीं लोगों, इसी जनता से आता है, जो मेरी फिल्में देखने के लिए टिकट खरीदते हैं। यदि मैं उन्हें प्रेम नहीं करूँगा तो उनकी सेवा कैसे कर पाऊँगा? इसलिए, मेरे बेटे, उनके साथ हमेशा अच्छे बनो, और अपने हृदय की गहराई से उन्हें प्रेम करो। वे मेरी प्रेरणा हैं… वे ईश्वर का अवतार हैं।
लेकिन, बरसों बाद, उस रात को मॉल में वह मोटा अधेड़ मेरे साथ उलझ रहा था, तब डैड के शब्दों की सच्चाई मेरी समझ में आ गई। गुस्से में उसके साथ हाथापाई करने की बजाय मैंने डैड के शब्द दोहराए, हालाँकि मुझे यकीन था कि उसके दिमाग़ पर कोई असर नहीं पड़ेगा, ‘आई लव यू सर,’ मैंने विनम्रतापूर्वक कहा। हमारे पास कम समय है और हमें सुबह तक अपना काम समाप्त करना है। कृपया सहयोग करें। मुझे आश्चर्य हुआ कि वह मोटा आदमी शान्त हो गया और अचानक भावुक हो गया और उसने मुझे कसकर गले लगा लिया। माफी माँगी।
…और अंत में
लेकिन मैं अब भी कहीं न कहीं उनकी उपस्थिति महसूस करता हूं। मुझे लगता है कि वह अभी भी जीवित हैं और मेरे साथ हैं। जब उदासी और निराशा मुझ पर हावी होने लगती है, तो मुझे उनकी हिम्मत बढ़ाने वाली आवाज़ इतनी साफ सुनाई देती है, मानो वह मेरी बगल में बैठे हो और धीमे से मेरे कान में कह रहे हों, कभी हार मत मानो, बेटे। याद रखों कि ज्वार हमेशा वापस आता है!’

मेरे भीतर ही नहीं, बल्कि उन सभी के मन में जो उन्हें जानते थे, उनसे प्यार करते थे और उनके काम की तारीफ करते थे, वह अभी भी जीवित हैं। कई फिल्मों में उनकी यादगार भूमिकाओं, गर्म हवा की उल्लेखनीय सफलता ने जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव डाला है कि उनका नाम कभी नहीं भुलाया जा सकता। जिन्होंने केवल उन्हें पर्दे पर देखा, उन्होंने उनकी यथार्थता और उनकी कला के प्रस्तुतिकरण के लिए प्यार किया; जिन्होंने उन्हें रंगमंच पर देखा, उन्हें उनके सांस्कृतिक जीवन में योगदान के लिए सराहा; जो लोग केवल उनकी किताबें पढ़ते थे (हालांकि उनमें से ज़्यादातर पंजाबी थे और इसलिए उनकी पाठक संख्या सीमित थी) उन्हें उनके साहित्यिक कौशल के लिए चाहते थे; जो लोग उन्हें सामाजिक रूप से जानते थे, वे उनकी सज्जनता और मिलनसारिता के लिए उनसे प्यार करते थे; जो लोग उन्हें राजनीतिक रूप से जानते थे, वे उनकी प्रतिबद्धता और समर्पण के लिए प्यार करते थे और जो लोग उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानते थे, वे उनकी ईमानदारी और सादगी की वजह से प्यार करते थे और करते रहेंगे…एक बेटे को इससे बढ़कर और क्या चाहिए…