हिन्दी सिनेमा में ब्राह्मणवाद और दलित मुक्ति के संदर्भ 1


14 अप्रैल डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्मदिन होता है। डॉ अंबेडकर एक ऐसे महान नेता थे जिन्होंने दलित समाज के उत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। उनके प्रयासों से भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय और समानता की भावना को बढ़ावा मिला, जिससे दलितों और वंचित वर्गों के अधिकारों की रक्षा हुई। दलित समाज की सामाजिक स्थिति में सुधार के परे भी डॉ अंबेडकर के सिद्धांतों ने समाज में समता आधारित दृष्टि और सामाजिक न्याय को स्थापित करने में बड़ी भूमिका अदा की है जो कहीं न कहीं भारतीय दर्शन का मूल भी है कि- सभी मनुष्य एक ही मनुष्य हैं। महात्मा गांधी और डॉ अंबेडकर के बीच हुए पूना पैक्ट के बाद दलितों की सामाजिक स्थिति पर चिंतन भी राजनीति और समाज के मुख्य विमर्श में शामिल हुआ, ऐसे में इसने अपने समय के… और आगे भी सिनेमा पर भी असर डाला। हिंदी सिनेमा में ब्राह्मणवाद और दलित मुक्ति के संदर्भ में प्रस्तुत है प्रोफेसर जवरीमल्ल पारख का एक विस्तृत आलेख, जो इस विषय को हिंदी सिनेमा के बरक्स समझने में ऐतिहासिक पहलू से बेहद मददगार साबित होगा। इस लंबे विस्तृत आलेख को हम तीन भागों में प्रकाशित कर रहे हैं, यहां पर इसका पहला भाग आज प्रकाशित किया जा रहा है। प्रोफेसर पारख इंदिरागांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (IGNOU) के Humanities Faculty के निदेशक पद पर रहे हैं। उनकी तमाम पुस्तकों में से सिनेमा आधारित ‘हिन्दी सिनेमा का समाजशास्त्र’ और ‘लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ’ काफी चर्चित और लोकप्रिय रही हैं।

भारत में सिनेमा का इतिहास सौ साल से अधिक पुराना है। यह न केवल महंगा माध्यम है, बल्कि तकनीकी माध्यम भी है,जिसके लिए तकनीकी जानकारों और विशेषज्ञों की जरूरत होती है। इन दोनों कारणों से सिनेमा में आरंभ से ही उच्चवर्णीय लोगों का बोलबाला रहा है। फ़िल्म उद्योग में दलित और पिछड़े समुदाय के लोग हाशिए पर भी नज़र नहीं आते। अपवाद रूप में एक-दो उदाहरण मिल सकते हैं। हिंदी के प्रख्यात गीतकार शैलेंद्र का संबंध दलित परिवार से था, लेकिन यह तथ्य बहुप्रचारित नहीं है। इसी तरह हिंदी फ़िल्मों के लंबे इतिहास में अभी हाल में ‘मसान’ (2015) फ़िल्म का निर्देशन करने वाले नीरज गैवान दलित समुदाय से है। संपन्न और शिक्षित उच्चजातीय लोगों के वर्चस्व के कारण यह स्वाभाविक है कि जाति उत्पीड़न का प्रश्न सिनेमा के लिए कई दशकों तक महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं रहा। जब-जब जन आंदोलनों ने दलित मुक्ति के सवाल को भी अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया या जनविरोधी प्रतिक्रियावादी उभार के कारण दलितों का उत्पीड़न बढ़ा, तब-तब फ़िल्मकारों का ध्यान भी उस ओर गया। मसलन, 1932 में जब गांधी और अंबेडकर के बीच पूना समझौता हुआ और यह पूरे देश में चर्चा का विषय बना तब फ़िल्मकारों ने दलित प्रश्न को केंद्र में रखकर कुछ फ़िल्में बनायीं। इसी तरह समांतर सिनेमा के दौर में, मंडल आयोग के दौर में और अब सांप्रदायिक ब्राह्मणवादी उभार के दौर में दलित समस्या की ओर फ़िल्मकारों का भी ध्यान गया है। लेकिन इसके बावजूद जाति का प्रश्न सिनेमा में हाशिए तक ही सीमित रहा। अगर श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘समर’ को प्रमाण मानें तो सिनेमा में काम करने वाले कलाकार और तकनीशियन भी जातिवादी पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं है।

भारत में कथा फ़िल्मों की शुरुआत 1913 में हुई थी, जब दादा साहब फाल्के ने ‘राजा हरिश्चंद्र’ नाम की फ़िल्म बनायी थी जो हिंदू पौराणिक कथा पर आधारित थी। 1913 से 1931 के दौरान बनने वाली अधिकतर मूक फ़िल्में धार्मिक, पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित होती थीं। उस दौर के फ़िल्मकारों का मानना था कि हिंदुस्तान की धर्मप्राण जनता को सिनेमाघरों तक खींच लाने का तरीका यही है कि उन्हें ऐसी कहानियां दिखायी जाएं जिनसे वे भलीभांति परिचित हों, जिनके प्रति उनकी श्रद्धा हो और फ़िल्म देखते हुए उनमें यह भाव पैदा न हो कि वे नये ज़माने की कोई बुरी चीज देख रहे हैं। पुराण कथाओं में जो चमत्कारपूर्ण घटनाएं वर्णित होती हैं, फ़िल्मों में उन्हें यथावत दिखाना मुमकिन था। आम दर्शकों ने इसे नयी तकनीक की देन समझने की बजाए ईश्वरीय चमत्कार के रूप में ही लिया और उनकी धार्मिक आस्था और मजबूत हुई। इस तरह आरंभिक फ़िल्मों ने दर्शकों की रूढ़िबद्ध चेतना के लिए कोई चुनौती पैदा नहीं की।
औपनिवेशिक शासन द्वारा सेंसर की व्यवस्था के कारण फ़िल्मों में स्वतंत्रता संग्राम का चित्रण करना भले ही संभव न रहा हो, लेकिन धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाने का काम फ़िल्मों द्वारा किया जा सकता था। मूक फ़िल्मों में इसकी कोई सचेत और सामूहिक कोशिश हुई हो, इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता। सवाक फ़िल्मों के आरंभिक दौर में भी पौराणिक कहानियों पर फ़िल्में बनती रहीं। ‘सती सावित्री’, ‘सती अनसुया’, ‘देवयानी’, ‘द्रौपदी’, ‘सती सुलोचना’, ‘भक्त ध्रुव’, ‘भक्त प्रहलाद’ जैसी फ़िल्में बनीं और इनके द्वारा दर्शकों की धार्मिक भावना का दोहन होता रहा। 1931 और उसके बाद के दौर में कुछ ऐसी फ़िल्में भी बनीं जिनमें जातियों में बंटे समाज की आलोचनात्मक तस्वीर पेश करने की कोशिश हुई थी। सवाक फ़िल्मों का दौर शुरू होने तक भारत की आज़ादी का आंदोलन तेज हो गया था, न केवल जनता की भागीदारी बढ़ रही थी, बल्कि अब मध्यवर्ग की सीमाओं को लांघकर किसानों, मजदूरों और शिक्षित युवाओं की भागीदारी भी काफी बढ़ गयी थी। इसका असर फ़िल्मों के मिज़ाज़ पर भी पड़ा। अब कुछ जागरूक फ़िल्मकारों द्वारा सामाजिक दृष्टि से प्रगतिशील फ़िल्में भी बनने लगी थीं।

इस दौर में भक्ति आंदोलन से जुड़े भक्त कवियों और संतों पर भी कई फ़िल्में बनीं। कलकत्ता के न्यू थियेटर्स ने अपनी स्थापना के दूसरे साल ही अपनी पहली बांग्ला फ़िल्म ‘चंडीदास’ (1932) का निर्माण किया। उसके अगले साल ही ‘राजरानी मीरा’ नाम की फ़िल्म बनी। प्रभात फ़िल्म्स ने मराठी में ‘संत तुकाराम’ (1936) फ़िल्म बनायी। इन सब फ़िल्मों के द्वारा समाज सुधार का प्रगतिशील दृष्टिकोण पेश किया गया। ‘चंडीदास’ फ़िल्म के निर्देशक देवकी बोस थे। दो साल बाद न्यू थियेटर्स ने नितिन बोस के निर्देशन में इसे हिंदी में भी बनाया था। यह फ़िल्म बांग्ला भक्त कवि चंडीदास और एक धोबन रामी के बीच की प्रेमकथा पर आधारित है। चंडीदास एक मंदिर में पुजारी है और रामी मंदिर में झाड़ू लगाती है। दोनों में प्रेम हो जाता है। रामी पर उसी गांव के ज़मींदार की नज़र है और वह उसे हासिल करना चाहता है, लेकिन रामी उसको ठुकरा देती है। जमींदार उसका अपहरण करवा लेता है, जिसे जमींदार की पत्नी उसके चंगुल से छुड़ा लेती है। जमींदार चंडीदास को अपने रास्ते का कांटा समझता है और मंदिर के महंत के आगे चंडीदास पर इल्जाम लगाता है कि उसके एक निम्न जाति की स्त्री रामी के साथ संबंध है। चंडीदास या तो प्रायश्चित करे या उसे दंड दिया जाए। चंडीदास प्रायश्चित के लिए तैयार हो जाता है लेकिन उसी समय घायलावस्था में रामी वहां आती है। उसकी यह दशा देखकर चंडीदास प्रायश्चित करने की बजाय वह मंदिर ही छोड़ देता है और रामी और उसके माता-पिता के साथ वहां से चला जाता है। 1933 में बनी ‘राजरानी मीरा’ में मीराबाई के जीवन के माध्यम से उन सामाजिक मर्यादाओं को जो स्त्री को पराधीन बनाते हैं, उससे मुक्ति की कोशिश को बताया गया है। इसी तरह ‘संत तुकाराम’ फ़िल्म के माध्यम से ब्राह्मणवाद की आलोचना भी की गयी है।

भक्त कवियों के साथ-साथ सीधे सामाजिक सवालों पर भी फ़िल्में बनीं। प्रभात फ़िल्म्स ने सामाजिक बुराइयों के विरोध में कई फ़िल्में बनायीं। मसलन, अनमेल विवाह पर ‘दुनिया न माने’ (1937), वेश्यावृत्ति पर ‘आदमी’ (1939), सांप्रदायिक एकता पर ‘पड़ोसी’ (1941) आदि। जिस समय ये फ़िल्में बन रही थीं, उस समय देश में आज़ादी के आंदोलन के साथ-साथ बाबा साहब आंबेडकर के नेतृत्व में दलित अपने अधिकारों के लिए भी संघर्ष कर रहे थे। इसका असर भी फ़िल्मों पर दिखायी दे रहा था। 1936 में ही बोंबे टॉकीज ने ‘अछूत कन्या’ नामक फ़िल्म बनायी थी। इसमें एक ब्राह्मण युवक प्रताप (अशोक कुमार) और दलित युवती कस्तुरी (देविका रानी) के बीच प्रेम को कहानी का विषय बनाया गया है। जाहिर है कि उच्च वर्ग ऐसे प्रेम को और उसकी विवाह में परिणति को स्वीकार नहीं करता इसलिए दोनों की शादी अपने-अपने समाजों में ही होती है। लेकिन उन दोनों के जीवन में बहुत कुछ ऐसा घटित होता है कि अंतत: अपने पति और प्रेमी का जीवन बचाने के लिए कस्तुरी को अपने जीवन का बलिदान देना पड़ता है। 1940 में एक और फ़िल्म ‘अछूत’ नाम से बनी थी, जिसमें एक दलित कन्या लक्ष्मी को एक उच्चवर्णीय व्यक्ति पाल-पोस कर बड़ा करता है। लेकिन लक्ष्मी जब उसी लड़के से प्रेम करने लगती है जिससे उसकी अपनी बेटी प्रेम करती है तो उसे वापस अपने दलित पिता के यहां भेज दिया जाता है। कहानी यहां से मोड़ लेती है और लक्ष्मी अपने बचपन के मित्र रामू के साथ मिलकर गांव के मंदिर में दलितों के प्रवेश के लिए आंदोलन करती है। लक्ष्मी को जेल हो जाती है और रामू बीमार होकर मर जाता है। लेकिन इस आंदोलन के कारण गांव के मंदिर के दरवाजे दलितों के लिए भी खुल जाते हैं। ये दोनों फ़िल्में दलित उत्पीड़न को कहानी का विषय तो बनाती है लेकिन इन पर आंबेडकर से ज्यादा गांधी की विचारधारा का ही असर नज़र आता है। इन फ़िल्मों का संदेश यह था कि जन्म से न कोई बड़ा होता है और न छोटा। जिन्हें जाति से छोटा समझा जाता है वे भी इंसानियत में उनसे बड़े हो सकते हैं जो अपने को जाति से उच्च समझते हैं।

1940 के बाद दो दशकों तक सीधे तौर पर दलित समाज पर कोई उल्लेखनीय फ़िल्म हिंदी में नहीं बनीं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हिंदी फ़िल्में जातिप्रथा पर कोई दृष्टिकोण पेश नहीं करती। सतही तौर पर हिंदी का लोकप्रिय सिनेमा जाति आधारित ऊंच-नीच के भेद को अस्वीकारता नज़र आता है। “ठाकुर साहब हम गरीब हैं तो क्या, हमारी भी इज्जत है”। 1960-70 के दशक में हर दूसरी-तीसरी फ़िल्मों में इस तरह के संवाद सुनने को मिलते थे। लेकिन यह भी सच्चाई है कि उच्चवर्गीय अहंकार का भौंडा प्रदर्शन भी हम फ़िल्मों में देखते हैं। ‘रेशमा और शेरा’ (1971), ‘राजपूत’ (1982), ‘क्षत्रिय’ (1993) और इस तरह की कई फ़िल्मों में इस श्रेष्ठता को विषय बनाया गया है। “हम ठाकुर हैं जान दे देंगे लेकिन किसी के सामने सिर नहीं झुकायेंगे”, “ब्राह्मण की संतान होकर तूने यह कुकर्म किया”, “एक सच्चा राजपूत ऐसा कर ही नहीं सकता”। हिंदी फ़िल्मों में आमतौर पर पुलिस का बड़ा अधिकारी या सेना का बड़ा अफसर राजपूत जाति का दिखाया जाता है। अगर हम थोड़ा ध्यान दें तो हिंदी फ़िल्में जातियों का उल्लेख किए बिना ही उच्च वर्ण की श्रेष्ठता और उनके दृष्टिकोण को स्वीकार करके चलती है। इसके पीछे वही गर्व भावना छुपी है जो “गर्व से कहो हम हिंदू हैं” के पीछे है। ऐसा मानना तभी संभव होता है जब हम यह मानें कि हिंदू होना कुछ और होने (मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि) से ज्यादा श्रेष्ठ है। इसी तरह जब ब्राह्मण या राजपूत होने को महिमामंडित किया जाता है तो इसका अर्थ यह भी है कि जो ब्राह्मण या राजपूत नहीं है, यानी जो सवर्ण हिंदू नहीं है, वह श्रेष्ठ कहलाने का अधिकारी भी नहीं है।

हिंदी फ़िल्में जाति संदर्भ की उपेक्षा करते हुए भी नायक-नायिका की कुलीनता और रक्त श्रेष्ठता को प्रबल ढंग से रखती हैं। राजकपूर की ‘आवारा’ जो ऊपरी तौर पर कुलीनतावाद और रक्त श्रेष्ठता के विचार का विरोध करती नज़र आती है, लेकिन अपने निहितार्थ में वह इन्हीं के पक्ष में खड़ी दिखायी देती है। जज रघुनाथ (पृथ्वीराज कपूर) अपनी गर्भवती पत्नी भारती (लीला चिटनिस) को इसलिए त्याग देता है कि जग्गा नामक एक अपराधी के यहां उसे एक रात बितानी पड़ी थी। रघुनाथ ने जग्गा (के एन सिंह) को चोरी के इल्जाम में जेल भेज दिया था, लेकिन साथ ही फैसला सुनाते हुए यह नस्लवादी सिद्धांत भी पेश किया था कि व्यक्ति अच्छा या बुरा जन्म से ही होता है। जग्गा इसलिए बुरा नहीं है कि वह हालात से मजबूर होकर बुरे कर्म करता है, बल्कि वह जिस परिवार में पैदा हुआ है वह ही बुरा है। जज रघुनाथ का बेटा राज (राज कपूर) का पालन पोषण मजबूरीवश झुग्गी बस्तियों में होता है और बुरी संगत के कारण अपराधी बन जाता है, अंतत: अपने पिता द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है जबकि जग्गा और उस जैसे गरीब लोग उसी नरक में जीने और मरने के लिए छोड़ दिये जाते हैं। राज कपूर की ही आठवें दशक में बनी फ़िल्म ‘धरम-करम’ का नायक भी “नीच” लोगों के बीच रहकर भी अपना “धरम-करम” बचाये रखता है तो इसका कारण यह है कि वह उच्चोकुलोत्पन्न है। फ़िल्म ‘राम बलराम’ में खलनायक अपने को ठाकुर परिवार से उत्पन्न मानता है, लेकिन उसका उच्चकुलोत्पन्न होना आरंभ से ही संदिग्ध बना दिया जाता है। अंत में यह साबित किया जाता है कि दरअसल खलनायक का ठाकुर परिवार से कोई रक्त संबंधी रिश्ता नहीं है। खलनायक जिस वेश्या की कोख से उत्पन्न हुआ है उसका संबंध किसी नीच कुल के व्यक्ति से रहा है। खलनायक का रक्त संबंध उसी से है। निष्कर्ष यही है कि अगर खलनायक उच्चकुलोत्पन्न होता तो ऐसे कुकर्म कदापि नहीं करता।
भारतीय समाज का सामंती ढांचा संश्लिष्ट जातिवादी संगठन पर आधारित है और जिसे तोड़ने में वह असफल रहा है। कुलीनता और रक्त की श्रेष्ठता का भाव उसका सहज परिणाम है। इसलिए फ़िल्में भले ही सीधे-सीधे जातिगत आधारों का उपयोग न करती हो, लेकिन लोगों की जातिगत धारणाओं को पुष्ट करने में मदद पहुंचाती रही है। इसे एक अन्य रूप में भी देख सकते हैं। हिंदी फ़िल्में लगभग उन सभी सामाजिक मूल्यों और परंपराओं को महिमामंडित करती हैं जो सवर्णपरस्त ब्राह्मणवादी प्रभाव का परिणाम हैं। मसलन, स्त्री के सतीत्व और पातिव्रत्य के प्रतीक चिन्हों (मांग में सिंदूर भरना, मंगलसूत्र पहनना, करवा चौथ का व्रत रखना आदि) को अधिकाधिक प्रदर्शित करना, स्त्री की स्वतंत्र पहचान की बजाए, मां, बेटी, बहू, बहन आदि रिश्तों को केंद्र में रखकर उनका चरित्र निर्मित करना, इसके विपरीत चरित्र वाली स्त्री को खलनायिका के रूप में दर्शाना, यह हिंदी फ़िल्मों के लोकप्रिय फार्मूले रहे हैं।
……….जारी
Part 2: हिन्दी सिनेमा में ब्राह्मणवाद और दलित मुक्ति के संदर्भ 2