Category: News/ Updates

Vinod Tewari Book on film appreciation

सिनेमा की समझ बेहतर करने वाली हिंदी किताब का लोकार्पण

आज के दौर में ऐसी पुस्तक की ज़रूरत और बढ़ गई है, जब फिल्म पत्रकारिता लगभग खत्म हो चुकी है या कह लें पीआर एक्सरसाइज़ में बदल चुकी है। किसी फिल्म की ईमानदार और निष्पक्ष समीक्षा देख-पढ़ पाना बेहद दुरूह हो चुका है। ऐसे में ज़रूरी है कि दर्शक सिनेमा को देखने समझने के अपने नज़रिए को समृद्ध करें, ताकि उन्हे बरगलाया न जा सके।

Kolkata International Children Film Festival 2025

11वां अंतरराष्ट्रीय बाल फिल्म महोत्सव: पर्दे पर बच्चों का खूबसूरत संसार

तकरीबन डेढ़ हजार बच्चों के बीच अंतरराष्ट्रीय बाल फिल्म महोत्सव का उद्घाटन निर्देशक ध्रुव हर्ष की खूबसूरत हिंदी फिल्म ‘इल्हाम’ से हुआ।लंदन के ‘रेनबो अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव’ में पुरस्कृत ध्रुव हर्ष की ‘इल्हाम’ वाकई एक बढ़िया बाल फिल्म है, जिसमें एक बच्चे और एक बकरे की दोस्ती को खूबसूरत ढंग से पिरोया गया है।

इमरजेंसी: इंदिरा की तलाश में भटकती कंगना की फिल्म

यह फिल्म इमरजेंसी की घटना को शीर्षक रूप में रख कर बनाई ज़रूर गई है लेकिन फिल्म की निर्माता-निर्देशक और केंद्रीय भूमिका निभा रही कंगना रनौत ने इसका कालखंड इंदिरा गांधी के बचपन से लेकर उनकी हत्या तक फैला दिया है। इस वजह से यह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ढीलीढाली, छितरी हुई बायोपिक जैसी बन गई है।

मृणाल सेन की ‘भुवन शोम’ क्यों मानी जाती है खास?

मनुष्य का जीवन एकरेखीय नहीं होता। अलग-अलग जगहों में वह अलग-अलग भूमिकाओं में होता है। वह कहीं अफसर हो सकता है तो कहीं पिता, प्रेमी, पुत्र या किसी का दोस्त भी हो सकता है। हम उससे हर जगह एक जैसे व्यवहार की उम्मीद नहीं कर सकते। व्यक्ति को इन सभी भूमिकाओं को जीना होता है। यही जीवन का सौंदर्य है।

‘गर्ल्स विल बी गर्ल्स’: किशोर लड़कियों के मन में झांकता संवेदनशील सिनेमा

इस फिल्म में मुख्य भूमिका पायल कपाड़िया की ‘ऑल वी इमैजिन ऐज़ लाइट’ फिल्म से मशहूर हुई कनी कुश्रुति, प्रीति पाणिग्रही (पहली फिल्म), केशव बिनय किरण आदि ने निभाई है। इस फिल्म की एक और खासियत है कि इसकी अधिकतर तकनीशियन औरतें हैं। शुचि तलाती का कहना है कि ऐसे संवेदनशील विषय फिल्म शूट करते हुए यदि सेट पर केवल महिलाएं ही हों तो कलाकारों को बहुत सुविधा हो जाती है।

द शेमलेस: दो त्रासद ‘स्त्रीत्व’ के बीच जीवन की तलाश

फिल्म ‘द शेमलेस’ कहीं से भी अलग से कोई नैतिक उपदेश देने की कोशिश नहीं करती और न ही किसी पर कोई आरोप लगाती है। परिस्थितियों और मानवीय संवेदनाओं के जरिए पटकथा का ताना-बाना बुना गया है। एक तरफ दादी (मीता वशिष्ठ) की निष्क्रिय आध्यात्मिकता है तो दूसरी तरफ मां की खानदानी जिम्मेदारी निभाने की क्रूरता तो इन सबसे ऊपर बेटी की मुक्ति-लालसाएं है।

संतोष, ऑल वी इमैजिन…, ऑस्कर और गोल्डन ग्लोब के बरक्स भारतीय सिनेमा

संध्या सूरी की फिल्म संतोष की न सिर्फ भाषा हिंदी है, बल्कि पूरी तरह आज के भारतीय समाज और उसके समसामयिक विमर्श पर आधारित है। और इन सबके बावजूद उसे सर्वश्रेष्ठ ब्रिटिश सिनेमा के तौर पर ऑस्कर अवॉर्ड के लिए प्रविष्टि बनने की राह में कोई अड़चन नहीं आई। शायद ऐसा इसलिए कि वहां पैमाना बेहतरीन सिनेमा चुनना था न कि देश का सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करना। ब्रिटेन ने इससे पहले ऑस्कर के लिए जिन फिल्मों को आधिकारिक प्रविष्टि बनाया है, उनमें फ़ारसी, उर्दू, पश्तो, जर्मन, रूसी, पोलिश, फ्रेंच, स्वाहिली, तुर्की जैसी भाषाओं की फिल्में हैं, क्योंकि तकनीकी रुप से इस कैटेगरी के लिए फिल्म का गैरअंग्रेजी भाषा की होना ज़रुरी है।

‘सुपर ब्वाएज़ ऑफ मालेगांव’: हिंदी सिनेमा के लिए कस्बाई दीवानगी की कहानी

मालेगांव के स्पूफ सिनेमा की चर्चा आज भी दुनिया भर में होती है। इसी फिल्म में एक किरदार थे नासिर शेख। रीमा कागती ने ‘मालेगांव का सुपरमैन’ डॉक्यूमेंट्री के आधार पर उसके एक प्रमुख किरदार नासिर शेख की हिंदी में बायोपिक बनाई है- ‘सुपर ब्वायज आफ मालेगांव’। फरहान अख्तर, जोया अख्तर  और ऋतेष सिधवानी के साथ रीमा कागती भी फिल्म की एक प्रोड्यूसर है। यह फिल्म टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में शोहरत बटोरने के बाद सऊदी अरब के जेद्दा में आयोजित चौथे रेड सी अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में प्रतियोगिता खंड में दिखाई गई और काफी सराही गई।

बांग्ला फिल्म निहारिका: मन की परतों में छिपी कहानियों की सिनेमाई कविता

यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि  यह फिल्म एक कलात्मक मास्टरपीस है। ऐसा लगता है जैसे आप कोई महान साहित्यिक रचना पढ़ रहे हों, जहाँ दृश्य  आपकी आँखों के सामने अत्यंत सजीव रूप में घूम रहे हों। आप कहानी के प्रवाह से इस तरह जुड़ जाते हैं जैसे यह आपके समक्ष घटित हो रहा हो। ‘रील’ और ‘रियल’ का दायरा जैसे मिट- सा जाता है।

कनु बहल की ‘आगरा’: समाज के तलछट में जीते परिवार की स्याह कहानी

कनु बहल ने आगरा के तलछट के जीवन और दिनचर्या को बखूबी फिल्माया है और चमक दमक से भरी दुनिया गायब है।  कहानी के एक-एक किरदार अपने आप में संपूर्ण है और सभी मिलकर भारतीय निम्नवर्गीय परिवार का ऐसा कोलाज बनाते हैं कि कई बार तो घर पागलखाना लगने लगता है। यहां यह भी ध्यान दिलाना जरूरी है कि आगरा शहर अपने पागलखाने के लिए भी जाना जाता है।