उत्पलेंदु चक्रवर्ती: ‘चोख’ और ‘देबशिशु’ का फिल्मकार
उत्पलेंदु चक्रवर्ती अपनी फिल्मों के ज़रिए अक्सर हाशिये पर पड़े और उत्पीड़ितों के संघर्षों पर फोकस करते थे और उनके काम में सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता झलकती थी।
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उत्पलेंदु चक्रवर्ती अपनी फिल्मों के ज़रिए अक्सर हाशिये पर पड़े और उत्पीड़ितों के संघर्षों पर फोकस करते थे और उनके काम में सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता झलकती थी।
फिल्म का शीर्षक ’पार’ है, भाववादी दर्शनों में मनुष्य सांसारिकता से छुट्टी पाकर जीवन नैया ’पार’ करना चाहता है। यहां श्रमिक दंपत्ति इस जीवन के भीतर सुकून की तलाश के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्हें भवसागर पार नहीं करनी है। एक नदी पार करनी है ताकि अपना घर वापस लौट सकें, जहां भले भूख,गरीबी है मगर इस तरह अनामिकता, अजनबियत, छल –प्रपंच नहीं है। यद्यपि शोषण वहां भी है मगर वहां कम से कम रात को सोने को झोपड़ी तो है!
‘ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’ एक कलात्मक फिल्म है जो दर्शकों का मनोरंजन करती है। उनके विचारों को छूती है। उन्हें समृद्ध करती है। यह आनेवाले फिल्मकारों के लिए नये प्रतिमान गढ़ती है।
फिनलैंड जैसे अमीर देश में गरीबी के आखिरी पायदान पर जी रहे अंसा और होलप्पा की इस मार्मिक प्रेम कहानी के माध्यम से अकी कौरिस्माकी ने आधुनिक यूरोपीय पूंजीवादी सभ्यता का अंधेरा दिखाया है जिस तरफ हमारा ध्यान अक्सर नहीं जाता।
एक बादशाह के अपने देश से और अपने सिद्धांतों से प्यार की कीमत एक मामूली कनीज़ को अपनी जिंदगी देकर चुकानी पड़ती है। वह जिन उसूलों की बात करता है उनमें बराबरी की बात शामिल नहीं है। यह गैरबराबरी नस्ली अहंकार और और निरंकुश सत्ता के मद से उपजी है। यह गैरबराबरी किसी धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी सत्ता को भी लंबे समय तक सुरक्षित नहीं रख सकती। यह बात जितनी अकबर के समय के लिए सत्य है, उससे भी कहीं ज्यादा आज के लिए सच है।
कान फिल्म फेस्टिवल के ठीक बाद फ्रांस में एक ऐसा अनोखा फिल्म फेस्टिवल होता है जो भारतीय संस्कृति और भारतीय सिनेमा को समर्पित है। दक्षिणी फ्रांस के समुद्री शहर सेंट ट्रोपे में भारतीय संस्कृति का निर्वाण फिल्म फेस्टिवल होना बहुत मायने रखता है।
गिरीश कर्नाड को संगीत अकादमी , साहित्य अकादमी , कन्नड़ साहित्य अकादमी के पुरस्कार के साथ ज्ञानपीठ सम्मान मिला था । वे पद्मश्री , पदमविभूषण से विभूषित किये गये थे लेकिन यह उनका वास्तविक परिचय नही है । वास्तविक परिचय यह है उन्होने नाटकों के क्षेत्र में मौलिक काम किया । पुराण और लोकमिथकों की प्रस्तुति नये संदर्भो में की । बादल सरकार , विजय तेंदुलकर , उत्पल दत्त जैसे साथी नाटककारों से मिल कर रंगमंच की भारतीय छबि बनाई । उनके साथ इस पीढ़ी का अंत हो रहा है ।
संतोष शिवन ने इस अवसर पर आभार प्रकट करते हुए कहा कि सिनेमैटोग्राफी एक वैश्विक कला है इसलिए यह यूनिवर्सल है।जितनी आसानी से मैं तमिल और मलयालम सिनेमा में काम करता हूं उतनी ही सुविधा से हिंदी सिनेमा, हॉलीवुड और विश्व सिनेमा में काम करता हूं। उन्होंने कहा कि एक बार जापान के सिनेमैटोग्राफर एसोसिएशन के आमंत्रण पर मैं उनके साथ पचास दिन रहा। मैंने देखा कि वे मेरी फिल्म ‘दिल से’ के मशहूर गीत ‘छैंया छैंया’ गा रहे थे।
कान फिल्म फेस्टिवल के 77 सालों के इतिहास में तीस साल बाद कोई भारतीय फिल्म मुख्य प्रतियोगिता खंड में चुनी गई है। वह फिल्म है पायल कपाड़िया की मलयालम हिंदी फिल्म ‘आल वी इमैजिन ऐज लाइट’। इससे पहले 1994 में शाजी एन करुण की मलयालम फिल्म ‘स्वाहम’ प्रतियोगिता खंड में चुनी गई थी।
इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ फोटोग्राफिक आर्ट दुनिया भर के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों को अपने तय मानदंडों के आधार पर मान्यता प्रदान करती है। कान, बर्लिन, वेनिस, टोरंटो, बुसान सहित दुनिया भर में होने वाले सैकड़ों अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह इसी संस्था से मान्यता प्राप्त करते हैं। भारत में इस संस्था ने केवल चार अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों को मान्यता दी है।