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कान 2024 (5): पायल कपाड़िया की ‘आल वी इमैजिन ऐज़ लाइट’ का शानदार प्रीमियर

कान फिल्म फेस्टिवल के 77 सालों के इतिहास में तीस साल बाद कोई भारतीय फिल्म मुख्य प्रतियोगिता खंड में चुनी गई है। वह फिल्म है पायल कपाड़िया की मलयालम हिंदी फिल्म ‘आल वी इमैजिन ऐज लाइट’।  इससे पहले 1994 में शाजी एन करुण की मलयालम फिल्म ‘स्वाहम’ प्रतियोगिता खंड में चुनी गई थी।

कान 2024 (4): भारतीय सिनेमा के लिए दुनिया से बिज़नेस

इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ फोटोग्राफिक आर्ट दुनिया भर के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों को अपने तय मानदंडों के आधार पर मान्यता प्रदान करती है। कान, बर्लिन, वेनिस, टोरंटो, बुसान सहित दुनिया भर में होने वाले सैकड़ों अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह इसी संस्था से मान्यता प्राप्त करते हैं।  भारत में इस संस्था ने केवल चार अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों को मान्यता दी है।

कान 2024 (3):भारत में आबादी, इस्लाम, तालीम पर सवाल उठाती ‘हमारे बारह’

ऊपर से लग सकता है कि यह फिल्म मुस्लिम समाज पर सीधे सीधे आरोप लगा रही है कि देश की आबादी बढ़ाने में केवल वहीं जिम्मेदार है। लेकिन आगे चलकर इस मुद्दे की पृष्ठभूमि में बिना किसी समुदाय की भावना को आहत किए कई मार्मिक कहानियां सामने आती हैं। बिना धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाए निर्देशक कमल चंद्रा ने साफगोई से अपनी बात कहने के लिए इमोशनल मेलोड्रामा का प्रयोग किया है।

कान 2024 (2): क्लासिक खंड में श्याम बेनेगल की ‘मंथन’

‘मंथन’ भारत की पहली फिल्म थी जो क्राउड फंडिंग से बनी थी। उस समय गुजरात के पांच लाख किसानों ने दो दो रुपए का चंदा देकर दस लाख रुपए जमा किए थे। कान में ‘कान क्लासिक’ खंड के तहत इसका प्रदर्शन निस्संदेह भारतीय सिनेमा के लिए गौरव की बात है।

Meryl Streep in Cannes

कान 2024 (1): कान में पहली बार 10 भारतीय फिल्में

फ्रांस में होने वाला 77वां कान फिल्म समारोह शुरू हो चुका है। इस बार के फेस्टिवल की एक खास बात ये भी है कि इतिहास में पहली बार दस भारतीय फिल्में आफिशियल सेलेक्शन में दिखाई जा रही है। सीधे कान से पहली रिपोर्ट…

Rukmavati Ki Haveli

“औरत की योनि में जन्म लेना इस दुनिया की सबसे बड़ी सज़ा है”

मौत के मातम के नाम पर अपनी जवानी को बर्बाद होते देने वाली बहनें औरतें बनने को उतावली हैं पर उनपर ध्वस्त होती खानदानी विरासत को बचाने के लिए  तानाशाह बन जाने वाली मां का चौकन्ना पहरा है। गोविंद निहलानी की ‘रुक्मावती की हवेली’ की समीक्षा

Tarkovsky

तारकोवस्की का ‘नॉस्टैल्जिया’: माथे की फूली हुई एक नस

रूस का एक कवि देश के एक पूर्वज संगीतकार पर किताब लिखना चाहता है। इसलिए वह इटली में उन स्‍थानों की यात्रा करता है जहाँ संगीतकार अपने अंतिम दिनों में रहा। उन जगहों को ऐंद्रिक ढंग से छूना चाहता है जिन्हें संगीतकार ने स्पर्श किया। सुविधा के लिए एक अनुवादक महिला उसके साथ है। लेकिन कवि अचानक अपने में गुम हो गया है। अपने देश और परिवार की स्मृति ने उसे घेर लिया है। तारकोवस्की की फिल्म ‘नॉस्टैल्जिया’ शांत पहाड़ी क्षेत्र में बहती नदी के पानी की यात्रा है, जो ऊपरसे जितनी शांत दिखती है, भीतर से उतनी ही हलचल लिए होती है।

मुग़ल ए आज़म 5: प्यार किया तो डरना क्या…

‘मुग़ले आज़म’ में न्याय का प्रतीक तराजू साझा संस्कृति के प्रतीकों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। फ़िल्म में इस तराजू को किले की खुली जगह पर रखा बताया जाता है और उसका आकार इतना बड़ा होता है कि अकबर भी उसके सामने बौने नज़र आते हैं। इस तरह फ़िल्मकार शायद यह बताना चाहता है कि इंसाफ का यह तराजू किसी राजा की हैसियत से बहुत बड़ा है। अकबर की नज़र में इंसाफ की कीमत आदमी की निजी सत्ता से कहीं ज्यादा है।

लोक कलाओं की दुर्दशा: ‘द लिपस्टिक बॉय’ के बहाने

उदय शंकर,केलुचरण महापात्र, राम गोपाल,बिरजू महाराज,गोपी कृष्ण जैसे नामचीन कलाकारों ने लंबे संघर्ष के बाद कला जगत में अपनी प्रतिष्ठाजनक जगह बना ली। पर पुरुष नर्तक होने के कारण उन्हें जिस तरह समाज, जाति और परिवार की उपेक्षा,तिरस्कार और प्रताड़ना सहनी पड़ी उस के बारे में मुंह पर ताला ही लगा कर रखा गया। इन्हें जातिगत और लिंग आधारित अपमान दोनों झेलने पड़े।

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‘आदमी और औरत’: तपन सिन्हा की नजर से

सत्यजित राय, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन के साथ सबसे प्रभावशाली बंगाली फ़िल्मकारो की चौकड़ी बनाने वाले तपन सिन्हा ने यूं तो हिन्दी में कम फ़िल्में बनाई लेकिन उनकी कई फ़िल्मों का हिन्दी रूपांतरण अक्सर हुआ। हिन्दी में “एक डॉक्टर की मौत” उनकी यादगार फ़िल्मों में से एक है। यह फ़िल्म भी ऐसी ही बिंबों से भरी, एक कहानी है, जो ऊपरी तौर पर सीधी-साधी होकर भी अनेक जटिल सवाल  हमारे सामने  उठाती है।