आज़ादी की परछाई में कैद ‘भूमिका’

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स्मिता पाटिल को याद करना हर बार एक कसक दे जाता है कि काश अगर उन्हे पूरी उम्र मिली होती तो उनके बहाने न जाने कितने और यादगार किरदार गढ़े जाते, कितनी और यादगार फिल्में बन पातीं और सिनेमा कुछ और समृद्ध हो जाता। 17 अक्टूबर को स्मिता पाटिल की जयंती पर  उन्हे याद कर रहे हैं श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित 1977 में बनी उनकी यादगार फिल्म भूमिका की समीक्षा के बहाने। सिनेमा के साहित्य की समीक्षा में अजय चंद्रवंशी की कलम से आज इसी फिल्म की कहानी की साहित्यिक समीक्षा। इस सीरीज़ में हम किसी फिल्म के कथानक के साहित्यिक-सामाजिक पक्ष पर एक समीक्षा देते हैं, क्योंकि सिनेमा साहित्य से ही बनता है। लेखक-समीक्षक अजय चंद्रवंशी बतौर शिक्षा अधिकारी कवर्धा, छत्तीसगढ़ में कार्यरत हैं।

सभ्यता के विकासक्रम में स्त्री को अपने अधिकार के लिए संघर्ष करते रहना पड़ा है। आज भी एक हद तक संघर्षरत है, फिर भी आज स्थिति में काफी बदलाव हो चुका है।समाज मे नैतिक मापदंडों में काफी बदलाव आए हैं। किसी समय कुछ क्षेत्रों में स्त्री का काम करना ‘अनैतिक’ माना जाता था उन क्षेत्रों में आज उसकी सहज स्वीकार्यता है।

फ़िल्म ‘भूमिका’ आजादी के पूर्व और बाद के दो दशकों में एक स्त्री के व्यावसायिक सफलता मगर मानवीय चाह की असफलता के द्वंद्व को रेखांकित करती है। यह फ़िल्म मराठी कृति ‘संगते ऐका’ पर आधारित है जो चालीस के दशक की प्रसिद्ध मराठी रंगमंच एवं फिल्म कलाकार हंसा वाडेकर की जीवनी है।

इस फ़िल्म के परिवेश में सामंती मूल्यों और आधुनिकता का विचित्र विरोधाभास है जो तात्कालीन समाज की हक़ीक़त थी। फ़िल्म की नायिका ‘उषा’ एक देवदासी परिवार से सम्बंधित है,जहां नृत्य सामान्य बात है, मगर उसकी माँ एक ब्राम्हण से विवाह की थी इसलिए उषा को ‘मुख्य धारा’ में रखना चाहती है और उसके नाचने-गाने को पसंद नहीं करती।मगर परिस्थितियां ऐसी पैदा होती हैं कि उषा को फ़िल्म कंपनी में गाने का काम करना ही पड़ जाता है। इस काम का सूत्रधार बनता है ‘केशव’।

केशव एक लिजलिजा चरित्र का व्यक्ति है।पहले वह उषा की माँ से सम्बन्ध रखता था और वह ही उषा को फिल्मी दुनिया तक ले जाता है।वह उषा से उम्र में काफी बड़ा है मगर फिर भी उषा का उसके प्रति आकर्षण परिस्थितिवश,कुछ माँ के डांट की प्रतिक्रिया,कुछ कैशोर्य सहजवृत्ति जनित होता है।वह उसके बच्चे की माँ बनती है और इस सम्बंध को भी सहजता से निभाना चाहती है।मगर केशव दुर्बल मनोवृत्ति का ईर्ष्यालु व्यक्ति है। वह उषा के व्यक्तित्व की मुखरता से और कुंठित होते जाता है।इन सब कारणों से भी उषा की विद्रोही मनोवृत्ति बढ़ती जाती है।केशव आर्थिक रूप से उषा पर निर्भर रहकर भी पुराने ‘अहसान’ का राग अलापते रहता है, जिसका उषा उचित प्रतिवाद करती है।

उषा का चरित्र सामंती सामाजिक मूल्यों और ‘आधुनिक’ सामाजिक मूल्यों के द्वंद्व से बना है। देवदासी परिवेश की उपेक्षा कहीं उसके अन्तस् में है जिसके कारण वह एक विशिष्ट भारतीय स्त्री/पत्नी की पहचान तलाशती है।यही कारण है कि वह केशव से यह न पाकर अलग-अलग पुरूषों के पास जाती है। मगर जैसा कि विनायक काले की पत्नी कहती भी है “सिर्फ बिस्तर बदलेंगे, रसोईघर बदलेंगे। मर्दों के मुखौटे बदलते हैं मर्द नहीं”। उषा पत्नी की पहचान चाहती है मगर राजन से सुनील वर्मा, विनायक काले तक सब उसे छलते हैं, बस तरीका अलग-अलग होता है।किसी को केवल उसके शरीर की चाह है, तो किसी में पत्नी के रूप में रखने की हिम्मत नहीं है। विनायक उसे ‘पत्नी की तरह’ रखने को तैयार है मगर घर के चारदीवारी के अंदर तक उसकी सीमा निर्धारित कर देना चाहता है।

उषा की लोकप्रियता भी यहां काम नहीं आती! जाहिर है यह लोकप्रियता भिन्न तरह की है,जो तत्कालीन समाज मे फ़िल्मो के प्रति समाज के दृष्टिकोण के कारण है। इस तरह उषा आर्थिक रूप से सक्षम, स्वतंत्र स्त्री होकर भी सामाजिक विडम्बना की मारी है।

दर्शक को यह बात कचोट सकती है कि उषा की पत्नी के रूप में सामाजिक मान्यता की चाह पितृसत्ता के आगे समर्पण है। वह क्यों नहीं इन मूल्यों से भी विद्रोह कर देती!

फ़िल्म से ऐसी मांग उसे देशकाल और चरित्र के मानवीय पक्ष से काटकर देखना होगा। उषा जैसी थी वैसी थी। उन परिस्थितियों में उसके चेतना का उठाव जिस स्तर तक हुआ, सो हुआ।चूंकि वह वास्तविक चरित्र से प्रेरित भी है इसलिए उसकी भी सीमाएं फ़िल्मकार के सामने है।

फ़िल्म के आख़िर में हर जगह ‘असफल’ होकर फिर उसी दुनिया में लौटती है, केशव के पास! उसकी बेटी जब उससे अपने गर्भवती होने की बात कहती है तो उसके मुँह से निकलता है “चरित्र ही औरत का गहना है”। इस तरह उसका द्वंद्व जैसे उसके जीवन से बद्ध हो गया है। सबकुछ है मगर वह घर नहीं!

फ़िल्म के शुरुआत में उषा को अपनी माँ से एक मुर्गे की रक्षा की कोशिश करते हुए दिखाया गया है, जिसे वह बचा नहीं पाती।ऐसा लगता है जैसे वह मुर्गा वह स्वयं है और जीवन भर ख़ुद को बचाने का प्रयत्न करती है। अलग-अलग लोगों के बीच अलग-अलग भूमिका में!