पगलैट: पेंच ‘लड़की लोग’ की दुनिया के…
लेखक-निर्देशक उमेश बिष्ट की नई फिल्म ‘पगलैट ‘नेटफ्लिक्स पर 26 मार्च को रिलीज़ हुई है। फिल्म में सान्या मल्होत्रा ने मुख्य किरदार निभाया है। ये फिल्म अपनी कहानी-किरदारों के लेकर खासी चर्चा में है। क्या है इस फिल्म में खास, बता रही हैं पारुल बुधकर…
‘पगलैट’ एक कहानी है ऐसी लड़की की जिसने कुछ देर से ही सही लेकिन अपनी ज़िंदगी की कमान अपने हाथ में ली, ये कटाक्ष है उन पुरानी दकियानूसी परंपराओं पर जिसमें हम किसी के दुख को एक नपे-तुले चश्मे से देखते हैं, ये व्यंग्य है उस मानसिकता पर जिसमें हम खुद को खुले विचारों का होने का ढोंग करते हैं लेकिन धर्म के नाम पर ऊंच-नीच करने से गुरेज नहीं करते, यह आगाज़ है उस नई सोच वाली लड़की की ज़िंदगी का जो न सिर्फ अपनी ज़िंदगी संवारने चली है बल्कि अपने सिर्फ पांच महीने ‘पुराने’ सास-ससुर की जिम्मेदारी भी खुद लेने को तैयार है।
पगलैट’ की कहानी बहुत सारी बातें कहती है, समझाती है… आपकी समझ या कुछ परिभाषाएं अलग हो सकती हैं लेकिन हमारे समाज के मौजूदा ताने-बाने को बेहद सटीक तरीके से पेश करती है ये फिल्म। फिल्म की मुख्य किरदार है संध्या जिसके पति आस्तिक की मौत शादी के सिर्फ पांच महीने बाद हो जाती है। घर में पूरा परिवार जमा होता है, गम का माहौल है.. जवान लड़के की मौत पर सब मातम बना रहे हैं, आस्तिक के पिता, चाचा-ताऊ के आपसी रिश्तों में भी तनाव है लेकिन गम में सब इकट्ठा होते हैं। लेकिन विधवा हुई संध्या रो नहीं पा रही है, दुखी नहीं हो पा रही है… अपने पति का एक राज़ पता होने के बाद उसके अंदर गुस्सा भी बढ़ जाता है। अपने आसपास के माहौल और अपनी ज़िंदगी को लेकर उसके कई सवाल है जिनका जवाब पाने की कोशिश वो कर रही है।
फिल्म का टर्निंग प्वाइंट तब आता है जब संध्या को आस्तिक के इंश्योरेंस के 50 लाख रुपये मिलते हैं। रिश्तों का खोखलापन और स्वार्थ खुलकर सामने आ जाता है। ससुराल वालों की ही नहीं बल्कि अपनी मां की असलियत भी संध्या को नजर आती है। और इसके बाद वो अपनी ज़िंदगी का फैसला अपने हाथ में लेती है।
फिल्म में सभी बेहतरीन कलाकारों को लिया गया है लेकिन कहानी में इतनी गुंजाइश ही नहीं थी कि सभी के साथ इंसाफ हो पाता.. सो नहीं हुआ। आशुतोष राणा और रघुबीर यादव जैसे शानदार कलाकार भी फिल्म में दबे से ही दिखे। सान्या मल्होत्रा और सयानी गुप्ता को छोड़ दें तो अन्य महिला किरदारों के लिए भी कुछ खास करने को फिल्म में था नहीं। बाकी युवा कलाकारों ने अपने छोटे-छोटे किरदारों में भी अच्छा काम किया।
कई लोगों को संध्या के किरदार के शेड्स ‘वूमेन्स लिबरेशन’ के खिलाफ लग रहे हैं। लेकिन इसका दूसरा पहलू या यूं कहें कि असल आत्मा को समझने की जरूरत है। एक लड़की जिसकी ज़िंदगी के सारे फैसले दूसरों ने लिए, जो एक अनकही पराधीनता में जीती रही, जो अपने पति के साथ एक छत के नीचे रहते हुए भी उससे इस तरह ना जुड़ सकी कि उसकी मौत पर आंसू बहाए… वो जब सही मायने में ‘आज़ाद’ होती है तो उसके लिए ज़िंदगी के मायने बदल जाते हैं। ज़िंदगी में पहली बार महसूस हुई आज़ादी के सामने 50 लाख क्या, करोड़ों रुपये बेमानी होते हैं। वूमेन्स लिबरेशन की सही परिभाषा ही अपनी ज़िंदगी की डोर अपने हाथ में लेना होता है, अपने फैसले खुद करना होता है और संध्या ने यही किया। इसलिए संध्या का डायल़ॉग ‘जब लड़की लोग को अकल आती है तो लोग उसे पगलैट ही कहते हैं’ ही इस फिल्म का मूलमंत्र है।