‘पारो’ के जीते जी… और ‘पारो’ के जाने के बाद
बंगाल में महानायिक के तौर पर जानी जाने वाली अभिनेत्री सुचित्रा सेन का 8 साल पहले कोलकाता में 17 जनवरी को निधन हो गया था। हिंदी फिल्मों में उन्हे बिमल रॉय की देवदास में पारो की भूमिका के लिए और गुलज़ार की आंधी में निभाए किरदार के लिए खासतौर पर याद किया जाता है। हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार पलाश विश्वास के दो लेखों के अंश जो उन्होने साल 2014 में अस्पताल में उनकी हालत बिगड़ने पर और फिर उनके निधन की खबर आने पर लिखे थे। पलाश विश्वास मूलतः सामाजिक कार्यकर्ता हैं। 70 के दशक से अबतक सामाजिक सक्रियता के तहत लिखना पढ़ना जारी है। 1980 से दैनिक आवाज़,धनबाद, प्रभात खबर,राँची, दैनिक जागरण मेरठ, अमर उजाला बरेली में कार्यरत रहे।फिर 1991 से 2016 तक दैनिक जनसत्ता ,कोलकाता में।
फिलहाल उत्तराखण्ड में लघु पत्रिका प्रेरणा अंशु के कार्यकारी संपादक। हिंदी के अलावा बंगला और अंग्रेजी में भी लेखन। पलाश विश्वास का मानना है कि उनकी उल्लेखनीय उपलब्धि शून्य है।
14 जनवरी, 2014 को लिखे रिपोर्टनुमा लेख का अंश, जब सुचित्रा सेन गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती थीं
महानायिका बतौर बंगाल में विख्यात और देशभर में हिंदी फिल्मों में अपनी यादगार भूमिकाओं के लिेए पहचानी जानेवाली अभिनेत्री सुचित्रा सेन ने 35 साल से ज्यादा समय तक परिजनों और चिकित्सकों के अलावा किसी को दर्शन नहीं दिया। यह अपने आप में कितना मुश्किल है इसे सुचित्रा ही बता सकती हैं। लेकिन इस एकांतवास को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सोमवार को तोड़ दिया। 35 साल के लंबे वक्त में ममता बनर्जी पहली कोई सार्वजनिक हस्ती होंगी जिनसे सुचित्रा ने मुलाकात की हामी भरी। सुचित्रा से जुड़े सूत्रों ने बताया कि 1978 से महज मुट्ठीभर लोगों ने उन्हें आमने-सामने देखा। गुज़रे जमाने की इस महान अदाकारा की उनके एकांतवास को लेकर अक्सर हॉलीवुड की महान अभिनेत्री ग्रेटा गार्बो से तुलना होती रही है।
इसबार अस्वस्थ होकर वे जब निजी अस्पताल में दाखिल हुईं तो उन्हें देखने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी वहां पहुंच गयीं। लेकिन वे सुचित्रा सेन की निजता का सम्मान करते हुए उनसे बिना मिले चली आयीं। इस पर सुचित्रा ने सेहत थोड़ी सुधरने पर मुख्यमंत्री से मिलने की इच्छा जतायी। यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। अपनी निजता के अधिकार के लिए सुचित्रा सेन दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की पेशकश भी ठुकरा चुकी हैं। लेकिन बंगाल की मुख्यमंत्री के बारे में उनकी राय इतनी अच्छी है कि वे खुद उनसे मिलने को बेताब हो गयीं।
बंगाली और हिंदी फिल्मों की जानी-मानी अभिनेत्री सुचित्रा सेन की हालत बेहद गंभीर है। 82 साल की सुचित्रा कोलकाता के एक हॉस्पिटल में जिंदगी की आखिरी लड़ाई लड़ रही हैं। महानायिका की हालत अब भी गंभीर बनी हुई है और चिकित्सक उनकी सांस की तकलीफ, सीने में जमा कफ और खाने में अरुचि से बेहद परेशान हैं। लगातार आईटीयू में रहने के बावजूद उनकी सेहत बार-बार खराब हो रही है। ऐसे में जंगल महल के चुनौतीपूर्ण दौरे से लौटकर दीदी फिर उनसे मिल आयीं। उनसे बातचीत भी की।
सुचित्रा सेन ने 1952 में बंगाली फिल्म ‘शेष कोथाय‘ से अपना करियर शुरू किया। (ये फिल्म कभी रिलीज़ नहीं हो सकी और अगले साल उत्तम कुमार के साथ शारे चुअत्तर नाम की फिल्म से उनकी फिल्मी पारी की आधिकारिक शुरुआत हुई )। उन्होंने हिंदी फिल्मों में भी काम किया पर उनकी असल पहचान बंगाली फिल्मों से ही बनी। बिमल रॉय की मशहूर फिल्म ‘देवदास‘ में उन्होंने पारो का किरदार निभाया। इस फिल्म में दिलीप कुमार, मोतीलाल और वैजयंती माला जैसे मशहूर हिंदी फिल्म कलाकार भी थे। इसके अलावा वो 1966 की फिल्म ‘बंबई का बाबू’ में देव आनंद के साथ नजर आईं।
1975 में रिलीज हुई फिल्म ‘आंधी‘ से सुचित्रा सेन को हिंदी फिल्मप्रेमी सबसे ज्यादा जानते हैं। गुलजार निर्देशित इस फिल्म में वह संजीव कुमार के साथ दिखीं। बेजोड़ अभिनय के अलावा खास बात यह है कि सुचित्रा सेन की निजी धरोहर उनका सौन्दर्य रहा है। ऐसा फोटोजनिक फेस कम देखने को मिलता है। कैमरे के किसी भी कोण से सुचित्रा को निहारा जाए तो उनकी सुंदरता बढ़ते चन्द्रमा की तरह और अधिक सुंदर होती जाएगी।
बीमार अभिनेत्री सुचित्रा सेन अब भी खतरे के बाहर नहीं हैं और वह अभी अस्पताल में आईसीयू में डाक्टरों की निगरानी में ही रहेंगी। उनका इलाज कर रहे डॉक्टरों ने बताया कि 82 साल की अभिनेत्री को ऑक्सीजन के लिए अब भी नियमित अंतराल पर जीवन रक्षक प्रणाली पर रखने की जरूरत है और उन्हें अभी खतरे से बाहर नहीं बताया जा सकता।
सुचित्रा सेन से मुलाकात कर गदगद हुईं थीं ममता बनर्जी
ममता ने फेसबुक पर लिखा है कि इस महानायिका से मेरी 25 मिनट की मुलाकात हुई। इनकी बेटी मूनमून सेन और इलाज कर रहे डॉक्टर से भी मैंने मुलाकात की। ममता ने कहा कि मैं किस्मत वाली हूं कि सुचित्रा से मुलाकात का मौका मिला। मैं उनसे मिलकर बेहद खुश हूं। सुचित्रा, मधुमेह से भी पीड़ित हैं। इस वजह से उनकी सेहत ज्यादा बिगड़ी। डॉक्टरों की एक टीम लगातार उनकी निगरानी कर रही है। सुचित्रा, पिछले तीन दशक से एक गुमनाम जिंदगी बिता रही हैं। वह कोलकाता स्थित अपने घर में ही ज्यादातर वक्त बिता रही थीं।
मुख्यमंत्री की इस पहल से न केवल सेन परिवार की तीन नायिकाएं मुनमुन सेन और उनकी बेटियां राइमा और रिया, न केवल फिल्म उद्योग बल्कि पूरा बंगाल अभिभूत है। क्योंकि आज भी सुचित्रा सेन बंगाल मे तीस साल पहले की तरह ही लोकप्रिय है। दीदी के साथ तमाम समकालीन स्टार, आइकन और सेलिब्रिटी हैं,लेकिन सुचित्रा सेन का कोई जवाब नहीं है।
17 जनवरी, 2014 को लिखा लेख: जब बंगाल की महानायिका सुचित्रा सेन ने दुनिया को अलविदा कहा
आज अंततः मृत्यु में पारो का अवसान हो गया। ‘देवदास’ के अंत के बाद पारो का क्या हुआ,किसी को खबर नहीं थी, कम से कम हमें जीती जागती पारो का जीवन संघर्ष मालूम है। यह कथा की विरासत तोड़ने का तात्पर्य है। वह 26 दिन से अस्पताल में भर्ती थीं। उनकी हालत गुरुवार रात को ज्यादा बिगड़ गई थी।
सह कलाकार उत्तम कुमार के अंतिम दर्शन के बाद एक गहरायी शाम को अपनी सार्वजनिक छवि को जिस गोपनीयता और निजता के अंतराल में महानायिका ने छुपा लिया और आजीवन उसका निर्वाह किया, उस गोपनीयता को सर्वशक्तिमान शाश्वत मृत्यु भी अंततः तोड़ नहीं सकी। पारो हारकर भी हारती नहीं कभी। लोग सुचित्रा सेन के अभिनय में सौंदर्यपरिधान के दीवाने हैं, रहेंगे युग युगांतर तक।
‘बंबई का बाबू’ फिल्म में भाई बने देवानंद के साथ गीत दृश्य में सुचित्रा का जो रोमांचक अवतार है,उसकी तुलना सिर्फ ‘आवारा’ के स्वप्न दृश्य में राजकपूर-नरगिस के स्क्रीन साझा या मधुबाला के कुछ विलक्षण पलों से ही की जा सकती है।
हम भी उस सौंदर्यबोध से निश्चय ही मुक्त नहीं है, लेकिन सुचित्रा के कलाजीवन में मुझे भारत विभाजन की शाश्वत पीड़ा की छाया मंडराती नजर आती है और इसलिए चाहे लाख दफा ‘देवदास’ कथा पर फिल्म सुपर-डुपर हजार करोड़िया हिट हो जाये, हमारी पारो वही सुचित्रा ही रहेंगी।
‘देवदास’ की वह विषाद कथा भारत-विभाजन की कथा का भी सघन परिवेश है, जिसे सोलह साल की उम्र में विभाजन पीड़ित रोमा दासगुप्ता (सुचित्रा सेन) ने उस पार बंगाल के पाबना के दिलालपुर गांव को छोड़ने के बाद कोलकाता पहुंचकर दिबानाथ सेन से सोलह साल की ही उम्र में विवाह हो जाने के बाद अपने सुचित्रा पुनर्जन्म में बार बार जिया है।
आज उनका पैतृक घर जमात के कब्जे में है और इस वक्त जमात के एकाधिकारवादी हमले में बांग्ला देश में अल्पसंख्यक जनजीवन बेदखल है सुचित्रा के पैतृक घर की तरह।
एकतरफा चुनाव जीतकर सत्ता के जोर से सुचित्रा सेन का वह घर दखलमुक्त जरुर हो सकता है,लेकिन विभाजन की त्रासदी से इस उपमहादेश के लोग सीमाओं के आर पार कभी मुक्त हो पायेंगे, ऐसा नहीं लगता।
सुचित्रा की फिल्में में निष्णात होने का हमारे लिए मतलब है विशुद्ध रक्तस्नान। मनोरंजन तो हर्गिज नहीं। नहीं। नहीं। नहीं।
इस महादेश की महात्रासदी को वे खामोशी से अपनी फिल्म दीप ज्वेले जाई ( 1959, सुचित्रा सेन की सबसे बेहतरीन फिल्मों में एक) की तरह जीती रहीं, जिस किरदार को खामोशी में जीने के बाद ‘गाइड’ और ‘तीसरी कसम’ की वहीदा एक मुकम्मल अभिनेत्री बन पायीं। (दीप ज्वेले जाई का निर्देशक असित सेन ने वहीदा रहमान के साथ खामोशी के नाम से रीमेक किया था)
पारो के अवसान के शोकमुहूर्त पर भी हम इस नियति से जूझने का उपाय करें तो पारो के दिलो दिमाग में बहते विभाजन पीड़ित कश्मीर, पंजाब और बंगाल के विभाजन पीड़ित अभिज्ञता से गुजरना होगा… जो अंततः अभिनेत्री रमा सुचित्रा सेन की आत्म शक्ति है और बाकी सारी अभिनेत्रियों के मुकाबले वे इस तिलिस्मी रूपहले पर्दे को अलविदा कहकर गोपनीयता और निजता के साथ बत्तीस साल का एकांत जीवन कहने के बाद उसी उत्तुंग लोकप्रियता और उसी अटूट किंवदंती मध्य समाधिस्थ हो सकीं।
शरणार्थी कॉलोनी की अपह्रत अणिमा, जिससे हिंदी के दर्शकों का सामना न हुआ जैसे कि सुचित्रा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म ‘सप्तपदी’ हिंदी में नहीं बनी, इसलिए हमारे लिए सुचित्रा के उस रुप का बखान करना मुश्किल है।
उत्तम कुमार के साथ जिस ‘साढ़े चुआत्तर’ फिल्म में रमा की अप्रतिद्वंद्वी जोड़ी बनी और आज की हिरोइनों की तुलना में करीब करीब अपने दिलीप कुमार की तर्ज पर महज 65 फिल्म करके भारतीय फिल्म इतिहास की वह महानायिका बन गयीं, उसमें भी वह शरणागत विभाजन पीड़ित परिवार की संघर्षरत युवती है।
पारो का विषाद और निजी जीवन में चिर गांभीर्य की इस पृष्ठभूमि में हम उन्हें अपने बेहद करीब महसूसते रहे हैं, कभी उनसे मिले बगैर।
कथा ‘देवदास’ आत्मध्वंस केंद्रित है। पुरुषवर्चस्व की कथा में पारो देवदास की छाया है। उसी छाया में ही उसका वजूद है।
देवी चौधुरानी के तौर पर पारो को कभी कभार राज करने का मौका मिलता जरुर है, पर अमोघ पुरुषत्व में उसका आत्मसमर्पण ही कथा का चरमोत्कर्ष है।
सुचित्रा सेन ने न सिर्फ परदे पर दिलीप कुमार जैसे किंवदंती के साथ श्वेत-श्याम विषाद के अटूट परिवेश में पारो होकर जिया है, बल्कि आजीवन उस पारो के किरदार को जीती रहीं… मरीं भी। सुचित्रा सेन का नहीं, पारो का अवसान है यह।
आज अंततः मृत्यु में पारो का अवसान हो गया।