बासु चटर्जी की ‘रजनीगंधा’: यही सच है
10 जनवरी बासु चटर्जी का जन्मदिन होता है। हिंदी सिनेमा में मध्यवर्ग के जीवन, उसके सपनों, आकांक्षाओं और कशमकश को लेकर मनोरंजक , साफ-सुथरा और सार्थक सिनेमा बनाने वाले भारतीय सिनेमा के सबसे संजीदा निर्देशकों में उन्हे गिना जाता है। इस मौके पर उनके बहाने उनकी बेहद लोकप्रिय फिल्म रजनीगंधा की बात सिनेमा के साहित्य की समीक्षा में अजय चंद्रवंशी की कलम से। इस सीरीज़ के बारे में एक बार फिर बता दें कि सिनेमा साहित्य से बनता है और वो अपने आप में भी अलग साहित्य है। सो फिल्मों की समीक्षा जब होती है, तो फिल्ममेकिंग के सभी पक्षों पर बात होती है… लेकिन अक्सर कथानक और कथ्य के उद्देश्य और साहित्यिक-सामाजिक पक्ष पर विस्तृत चर्चा की जगह नहीं निकल पाती… । हमने सिनेमा के साहित्य की समीक्षा के नाम से चुनिंदा फिल्मों की कुछ अलग किस्म की समीक्षाओं की सीरीज़ शुरु की है, जो उनके कथानक और उनमें अंतर्निहित साहित्य को लेकर लिखी गई हैं। लेखक-समीक्षक अजय चंद्रवंशी बतौर शिक्षा अधिकारी कवर्धा, छत्तीसगढ़ में कार्यरत हैं।
मनुष्य जैव-सामाजिक प्राणी है।उसके जैविकी और सामाजिकता के द्वंद्व से संस्कृति का रूपाकार बनता है और इसी से नैतिक मूल्य निर्धारित होते हैं।
स्त्री-पुरूष का परस्पर आकर्षण सहज है, जैविक है।कालांतर में सामाजिक विकास के क्रम में ‘यौन संघर्ष’ की अराजकता से बचने को विवाह जैसी संस्था का विकास हुआ और इसे सुदृढ बनाये रखने के लिए जिन ‘नैतिक मूल्यों’ का विकास हुआ वह अपने तमाम सदिच्छाओं के बावजूद पितृसत्ता की तरफ झुके रहे।
बहरहाल स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम सम्बन्ध बनते रहे हैं। “प्रेम केवल एक से होता है” जैसे अस्वाभाविक मूल्य सामंती समाजों की जरूरत भले रहे हों, वह भी केवल स्त्री के लिए! आधुनिक पूंजीवादी समाज में इसका क्षरण होता गया। आज बहुत हद तक स्त्री-पुरूष अपना साथी चुनते और बदलते भी हैं। कहना न होगा ‘चुनाव की स्वतंत्रता’ के बरक्स एक स्थिति ‘अराजकता’ की भी होती है जो दायित्वहीनता को स्वतंत्रता की आड़ में ढकने का प्रयास करती है।
नयी कहानी के दौर तक आते-आते कहानियों में स्त्री-पुरूष के सहज सम्बन्धों का प्रमुखता से चित्रण होने लगा। स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध को अब आदर्शवादी ढंग से न देखकर यथार्थवादी नज़रिए से देखा जाने लगा। ज़ाहिर है यह परिवर्तन समाज में भी हो रहा था जिसकी छवि तत्कालीन साहित्य में दिखाई पड़ रही थी।
फ़िल्म रजनीगंधा की दीपा का द्वंद्व अराजकता नहीं सहजता की श्रेणी में रखा जा सकता है। वह ‘नए जमाने’ की स्त्री है। वह जितनी सहजता से कभी नवीन से प्रेम करती थी उतनी ही सहजता से आज संजय से करती है। इसमें कहीं कोई अपराधबोध नहीं है न ही किसी अतीत के दर्द की छाया। वह नवीन के बारे में भी संजय को बता चुकी है।
बहरहाल उसके अंदर पुराने और नए प्रेम में चुनाव का द्वंद्व परिस्थितिवश पैदा हुआ है। संजय और नवीन दोनों का अपना अलग-अलग व्यक्तित्व है। संजय का व्यक्तित्व एक तरह से बहिर्मुखी है।वह अपनी भावनाओं को व्यक्त कर देता है। नवीन के व्यक्तित्व में एक गंभीरता सी है। कॉलेज के दिनों में दीपा के साथ उसका प्रेम प्रसंग था जो एक कड़ुवाहट से खत्म हुआ था। मगर एक अंतराल के बाद दोनों मिलते हैं तब उसके अंदर कोई असहजता नहीं है, न ही कोई प्रकटतः पुलक है। वह दीपा की मदद किए जाता है मगर उसकी भावनाएँ जैसे उसके काले चश्मे के अंदर छुपी रहती हैं।
दीपा का आकर्षण दोनों के लिए बराबर है। वह जब संजय के पास रहती है तब संजय सबकुछ होता है। वह नवीन को भूल चुकी होती है। मगर जब वह परिस्थितिवश बम्बई में नवीन के पास आती है तो धीरे-धीरे उसे लगने लगता है वह नवीन से ही सच्चा प्यार करती है जो कि उसका पहला प्यार है। उसके मन मे संजय की जगह नवीन की तस्वीर उभरने लगती है।
इस द्वंद्व का पटाक्षेप उसके वापस दिल्ली आने पर होता है। वह जब वापस आती है तो पूरी तरह नवीनमय हो गई प्रतीत होती है, मगर नवीन का पत्र नहीं आना और आने पर औपचारिक सा जवाब उसे खटकता है। इसी बीच जब संजय उससे मिलने आता है तो जैसे वह कुछ समझ नहीं पाती और उसे लगता है जैसे अब तक नींद में थी। उसे जैसे होश आता है और वह संजय से लिपट जाती है और अंततः उसे अहसास होता है “यही सच है”।
इस तरह फ़िल्म (और कहानी) में एक स्त्री के दो पुरुषों के बीच के चुनाव के द्वंद को बेहतर ढंग से प्रकट किया गया है। महत्वपूर्ण यह है कि इसमें कहीं पर भी ‘आदर्शवादी नैतिकताबोध’ का सहारा नहीं लिया गया है और यथार्थ ढंग से व्यक्ति के मानवीय व्यवहार को प्रस्तुत किया गया है। फ़िल्म मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर आधारित है जिसमें फ़िल्म निर्माण की जरूरत अनुसार निर्देशक बासु चटर्जी द्वारा आवश्यक बदलाव और विस्तार किया गया है, जो सार्थक है।