रिश्तों की ‘गहराइयां’ दिखाती एक उथली फिल्म
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![Amitabh Srivastava](https://ndff.in/wp-content/uploads/2021/08/Amitaabh-ji.jpg)
अंतरंग दृश्यों को पब्लिसिटी का आधार बना कर दीपिका पादुकोण की मुख्य भूमिका वाली निर्देशक शकुन बत्रा कीचर्चित फिल्म गहराइयां सिनेमा की कसौटियों पर निराश करती है… बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म समीक्षकअमिताभ श्रीवास्तव। फिल्म 11 फरवरी को ओटीटी प्लैटफॉर्म अमेज़न प्राइम पर रिलीज़ हुई है। अमिताभ श्रीवास्तव आजतक, इंडिया टीवी जैसे न्यूज़ चैनलों में बतौर वरिष्ठ कार्यकारी संपादक कार्य कर चुके हैं। NDFFसे बतौर अध्यक्ष जुड़े हुए हैं।
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गहराइयाँ अपने शीर्षक से उलट उथली फिल्म है जिसे सिर्फ और सिर्फ दीपिका पादुकोण के अच्छे अभिनय ने बचा लिया है। कपूर एंड सन्स से तारीफ़ें बटोर चुके शकुन बत्रा की फिल्म गहराइयाँ रिश्तों के उलझाव, प्यार, ईमानदारी, बेवफाई की कहानी कहने का दावा करती है लेकिन अंतत: यह हमारे अत्याधुनिक शहरी परिवेश में जी रहे सुविधा संपन्न समुदाय के अकेलेपन , खोखले से खालीपन और चाकलेटी ऊब का किस्सा बन कर रह गयी है। लेखक , निर्देशक तय नहीं कर पाये हैं कि उन्हें अपने किरदारों के ज़रिये दर्शकों से क्या कहना है, कहानी को कहां ले जाना है। दीपिका पादुकोण इससे पहले कॉकटेल, ये जवानी है दीवानी , लव आज कल और तमाशा में ऐसे किरदार सलीक़े से निभा चुकी हैं जहाँ रिश्तों के बीच फँसे मन की उलंझन केंद्रीय तत्व रहा है।
गहराइयाँ की अलीशा ( दीपिका पादुकोण) अपने तनावग्रस्त बचपन की यादों से त्रस्त है । बचपन में माता-पिता के झगड़ों और माँ की आत्महत्या ने पिता से उसका रिश्ता बहुत बिगाड़ दिया है। पिता (नसीरुद्दीन शाह) नासिक में अकेले रहते हैं और अलीशा अपने लिव इन पार्टनर करन( धैर्य करवा) के साथ मुंबई में रहती है। अलीशा योग प्रशिक्षक है, मध्यवर्गीय सी रिहायश है , सपने हैं , महत्वाकांक्षा है, बोरियत है। उसका पार्टनर करन कोई किताब लिख रहा है जो पूरी होने का नाम ही नहीं ले रही। घर की जिम्मेदारियों को लेकर दोनों में नोकझोंक झगड़े तक पहुंचती रहती है। सब कुछ होते हुए भी जीवन में खालीपन सा लगता रहता है । ऐसे में दाखिल होता है महा अमीर ज़ेन (सिद्धांत चतुर्वेदी) जो अलीशा की चचेरी बहन तिया (अनन्या पांडे) का मंगेतर है। ज़ेन की रईसी और आलीशा की खूबसूरती दोनों को नजदीक लाती है , दोनों अपने अपने जोडीदारों को धोखे में रखकर ऐसे रिश्ते की राह पर निकल पडते हैं जिसकी बुनियाद मानसिक जुडाव से ज्यादा भौतिक आकर्षण है।अलीशा को यह अहसास भी है कि मामला उलझा हुआ है ।उसने बचपन में मां-बाप के झगडे देखे हैं , मां की घुटन देखी है जो कहती है- I am so stuck– मैं किस कदर फंस गई हूं। मां के अंजाम से डरी अलीशा फिल्म में बार बार कहती है- I don’t want to be stuck. जटिल किरदार की चाहत, जरूरत, महत्वाकांक्षा और नैतिकता की उधेडबुन को दीपिका ने बहुत अच्छी तरह अभिव्यक्त किया है।
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नतीजा किसी के लिए सुखद नहीं होता। फिल्म प्रेमकहानी से बेवफाई और धोखेबाजी का रास्ता तय करते हुए अपराध कथा के क्लाईमैक्स पर पहुंच जाती है। फिर -अंत भला तो सब भला । सीख यह है कि अतीत का पीछा छोड दें तो शायद वह भी हमारा पीछा छोड दे। दीपिका के कंधों पर टिकी है गहराइयां। चतुर्भुजाकार कहानी के बाकी तीन मुख्य किरदारों में अनन्या पांडे , धैर्य करवा और सिद्धांत चतुर्वेदी का काम ठीक-ठाक ही है। सिद्धांत और दीपिका के अंतरंग दृश्यों को दर्शकों को ललचाने के लिए खूब प्रचारित किया गया था लेकिन उनका भी कुछ खास असर नहीं पडा है। गली ब्वाय से चमके सिद्धांत अच्छे अभिनेता हैं मगर यहां फिट नहीं लगते। निर्देशक और लेखक मंडली ने उनका किरदार कमजोर बनाया है। आख़िर तक आते आते विलेन ही बना डाला है। सिद्धांत ग़ुस्से की अभिव्यक्ति करते हुए कहीं कहीं शाहिद कपूर और पुराने नसीरुद्दीन शाह की झलक दे जाते हैं। छोटी भूमिकाओं. में नसीर और रजत कपूर याद रह जाते है। फिल्म का तकनीकी पक्ष किस्सागोई के मुकाबले ज्यादा अच्छा है। कपूर एंड सन्स जैसी प्यारी सी फिल्म के बाद शकुन बत्रा से उम्मीदें बढ गई थीॉ। गहराइयां अधूरा छोड जाती है।फिल्म अमेज़न प्राइम पर देखी जा सकती है।