सतीश कौशिक: भारतीय सिनेमा के नायाब कॉमेडियन, लेखक, निर्देशक और प्रोड्यूसर

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पर्दे पर निभाए किरदारों को देखकर इस बात का अंदाज़ा लगाना वाकई मुश्किल है कि सतीश कौशिक रचनात्मक और बौद्धिक तौर पर कितने समृद्ध और प्रतिभासंपन्न थे। पर्दे के साथ साथ रोज़मर्रा के जीवन में भी अपनी प्रतिभा, गंभीरता और कद को किनारे रखते हुए वो हमेशा सहज और सामान्य बने रहे और उनकी छवि भी एक बेहद क्रिएटिव और टैलेंटेड होने के साथ साथ खुशदिल और खुशमिज़ाज इन्सान की बनी रही। सिनेमा के पर्दे पर और उससे परे भी यही बात उनकी लोकप्रियता की सबसे बड़ी वजह रही। उन्हे श्रद्धांजलि के तौर पर पेश है मुंबई से आलोक नंदन शर्मा का लेख।आलोकनंदन एक पत्रकार-लेखक-चिंतक हैं, जो फिल्म लेखन में भी सक्रिय रहे हैं। फिल्मों को लेकर उनका बेहद खास और एक बिलकुल अलग नज़रिया रहा है, ये लेख उसी की एक बानगी है।

जिंदगी चाहे कितनी भी लंबी क्यों न हो, मृत्यु निश्चित है और जो निश्चित है उसके लिए शोक क्या करना, बस अपना काम करते जाना है। भारतीय सिनेमा के नायाब कॉमेडियन, लेखक, निर्देशक और प्रोड्यूसर सतीश कौशिक ताउम्र इसी सूत्र पर चलते रहे कि बस अपना काम करते जाओ। फिल्म ‘जाने भी दो यारों’ में उन्होंने न सिर्फ अपनी बेजोड़ अदाकारी से दर्शकों को गुदगुदाया था बल्कि इस फिल्म के चुटीले डायलॉग लिखकर साबित कर दिया था कि उनके अंदर सृजन की असीम काबिलियत है, और भारतीय परिवेश और उससे जुड़े किरदारों की परख भी लाजवाब है।

फिल्म ‘जाने भी दो यारो’ को लोग आज भी “मैट्रोपोलिटन के भ्रष्टाचार” में लिपटे हुए मारक संवादों के लिए बार-बार देखते हैं और हंसते-हंसते लोटपोट हो जाते हैं। इस फिल्म के तमाम किरदारों के मुंह में सतीश कौशिक ने ऐसे संवाद डाले थे कि दर्शकों के लिए हंसी को रोक पाना मुश्किल था। यह फिल्म एक ब्लैक कॉमेडी थी, जिसमें अपनी जान पर खेलकर शहरी जिंदगी की गंदगी को कैमरे में कैद करने वाले दो फोटोग्राफरों को अंत में जेल की हवा खानी पड़ती है।

फिल्म ‘मिस्टर इंडिया’ में सतीश कौशिक द्वारा निभाए गए “कैलेंडर” के किरदार के लोग आज भी मुरीद हैं। एक रसोइया के किरदार को उन्होंने सिल्वर स्क्रीन पर इस तरह से पेश किया था कि वह बच्चों के बीच उनके सबसे चहेते अदाकार के रूप में स्थापित हो गया था। उनकी संवाद अदायगी के अंदाज और हावभाव से आज के कॉमेडियन्स को सीखने की जरूरत है जो सिर्फ भोंडे संवादों और उल-जुलूल भाव- भंगिमा के जरिये ही हास्य उत्पन्न करने में यकीन रखते हैं। निस्संदेह, सतीश कौशिक अपने आप में हास्य अदाकारी के विश्वविद्यालय थे। आम किरदारों को भी इस तरह से पेश करते करते थे कि लोगों के पेट में हंसते हंसते बल पड़ जाते थे। यही वजह है कि बेहतरीन कॉमेडी के लिए 1990 उन्हें फिल्म राम लखन और 1997 में ‘साजन चले ससुराल’ के लिए फिल्म फेयर के अवार्ड से नवाजा गया।

13 अप्रैल 1956 को हरियाणा के महेंद्रगढ़ में जन्में सतीश कौशिक ने 1972 में दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज से ग्रेजुएट करने के बाद नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा और फिर फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया में पढ़ाई की। यह वह दौर था जब देश में बदलाव की आहट महसूस की जा रही थी, सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार और भाई भतीजेवाद के खिलाफ आवाजें उठने लगी थी, बेरोजगारी की वजह से लोगों में असंतोष घर करने लगा था, महंगाई ने भी सिर उठाना शुरु कर दिया और मध्यम वर्ग के लोगों की जिंदगी इन्ही सब चीजों के इर्दगिर्द घूम रही थी, कुल मिलाकर 1975 देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा लगाई जाने वाली इमरेजेंसी की भूमिका तैयार हो रही थी। अपनी बात को सीधे तरीके से न कह पाने की छटपटाहट का सामना पूरा देश करने वाला था। इसी तरह के परिवेश वाले सांचे में सतीश कौशिक जवानी की दहलीज में कदम रख रहे थे, और अपने आप को एक कॉमेडियन के रूप में ढाल भी रहे थे और निखार भी रहे थे। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा और फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने उनके हुनर के दायरे का विस्तार किया। यही वजह है कि जब 1983 में उन्हें कुंदन शाह की फिल्म ‘जाने भी यारों’ का संवाद लिखने का मौका मिला तो अब तक सीखे गये अपने हुनर का जमकर इस्तेमाल किया।

अपने थियेटर के दिनों में ऑर्थर मिलर के “डेथ ऑफ ए सेल्स मैन” के हिन्दी रूपांतरण वाले किरदार सेल्समैन रामलाल के किरदार को वो पूरी शिद्दत से रंगमंच पर पेश करते थे।

मजे की बात है कि इतना सबकुछ होने के बावजूद उनके निर्देशन में अभिनेता अनिल कपूर और श्रीदेवी को लेकर 1993 में बनाई गई फिल्म “रूप की रानी चोरों का राजा” बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह से फ्लॉप साबित हुई। उनकी पहली हिट फिल्म हम आपके दिल में रहते हैं थी, जो 1999 में रिलीज हुई थी।

सतीश कौशिक एक जिंदादिल और दयालु हद्य वाले इंसान थे। वह लोगों से संबंधों को बेहतर तरीके से निभाना जानते थे। 9 मार्च 2023 को एनसीआर में दिल दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई। ऐसे फनकार कभी मरते नहीं है, सिल्वर स्क्रीन पर निभाये गये उनके तमाम किरदार दर्शकों के जेहन में हमेशा जिंदा रहेंगे।