होलोकास्ट की पुनर्रचना और दर्द से गुज़रता सिनेमा
9 मई वो दिन होता है जिसे रूस में विक्ट्री डे के तौर पर मनाया जाता है। ये वो दिन है जब द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रूस ने नाज़ी जर्मनी पर जीत हासिल की थी। नाज़ी जर्मनी हिटलर की तानाशाही और यहूदियों की त्रासदी का युग है। द्वितीय विश्वयुद्ध ने पूरी दुनिया के साहित्य और संस्कृति पर ज़बरदस्त असर डाला और आने वाले दौर को हमेशा के लिए बदल दिया। इस दौर को तमाम कहानियों-उपन्यासों और फिल्मों में दर्ज किया गया है। विश्व सिनेमा ने इसमें बहुत अहम भूमिका निभाई है। जानी मानी लेखिका और सिने-अध्येता विजय शर्मा ने नाज़ी यातना शिविरों की त्रासद गाथा के नाम से एक बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है, जिसमें हिटलर के दौर में यहूदियों पर हुई ज़्यादतियों पर आधारित फिल्मों का सूक्ष्म विश्लेषण, समीक्षा और कई दिलचस्प जानकारियां दी गई है। इस पुस्तक का पेपरबैक संस्करण हाल ही में वाणी प्रकाशन ने अपनी ‘सिनेमा और साहित्य ‘सीरीज़ के तहत छापा है, जिसका अनावरण इस साल फरवरी में लगे विश्व पुस्तक मेले में हुआ था। ‘सिने बुक रिव्यू’ श्रृंखला के तहत इस पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत कर रहे हैं वैभव मणि त्रिपाठी। वैभव कहानी उपन्यास से लेकर कथेतर साहित्य तक पढ़ने के शौकीन हैं। झारखंड सरकार की सेवा में कार्यरत हैं और वर्तमान में रांची में पदस्थापित हैं।
दूसरे महायुद्ध की कालिमा और जर्मन यातना शिविरों के काले सच को पूरी बेबाकी और बेदर्दी से दिखाती फिल्मों की एक सूची बनाई जाए तो कम से कम दो दर्जन फिल्में ऐसी होंगी जो पश्चिमी फिल्म जगत की श्रेष्ठ सौ फिल्मों में अपनी जगह बनायेंगी। आम भारतीय सिनेमा प्रेमी से जब भी होलोकास्ट फिल्मों की बात की जाती है तो, उसने देखी हो या ना देखी हो, पर ‘शिंडलर्स लिस्ट’ (Schindlers List) उसकी सूची में अवश्य होती है । क्या किसी सिनेमा प्रेमी की होलोकास्ट फिल्मों की सूची बिना ‘शिंडलर्स लिस्ट’ के पूरी हो सकती है ? इसका जवाब है जी हाँ । मौजूदा दौर की फिल्मों की सबसे गंभीर अध्येताओं में से एक और कथेत्तर साहित्य के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय विजय शर्मा जब होलोकास्ट फिल्मों की सूची बनाती हैं तो उनकी सूची में शिंडलर्स लिस्ट कोई स्थान नहीं पाती। विजय शर्मा की इस सूची में मौजूद ‘द पियानिस्ट’ से लेकर ‘द ज़ूकीपर्स वाइफ’ तक नाजी यातना शिविरों का क्रूर सच दिखाती बीस एक फिल्में आपको बहुत भीतर तक दहला देती हैं। मानव सभ्यता के इतिहास को अगर चौबीस घंटे के एक दिन में बदल दें तो रात्रि का सबसे काला समय होगा द्वितीय विश्वयुद्ध और इस कालिमा का गहनतम पल होलोकास्ट की यादें । वाणी प्रकाशन से प्रकाशित विजय शर्मा की पुस्तक “नाजी यातना शिविरों की त्रासद गाथा”, मानव इतिहास के इन सबसे काले पलों को फिल्मों के माध्यम से याद करती है। दो सौ छप्पन पृष्ठों की ये किताब बीस फिल्मों के माध्यम से होलोकास्ट के दौर के जीवन और समाज को देखने समझने वाली फिल्मों की पड़ताल करती है। ‘टिन ड्रम’ से लेकर ‘द ज़ूकीपर्स वाइफ’ तक फैले इस चयन में शामिल फिल्में नाजी यातना शिविरों और द्वितीय महायुद्ध की अमानवीय यादों को पूरी मानव जाति की स्मृति में गहरे अधिरोपित करती हैं।
विजय शर्मा जी की इस किताब की सबसे पहली खासियत है विषय चयन, होलोकास्ट फिल्मों की बात करें तो इन फिल्मों से गुजरना बहुत धैर्य और साहस का काम है । दुख और पीड़ा को उकेरती इन फिल्मों में मनुष्यों के अमानवीय पलों के लोमहर्षक चित्रण हैं । किसी फिल्म पर लिखने से पहले फिल्म समीक्षक औसतन दो से तीन बार उस फिल्म को देखते हैं, ऐसे में समझा जा सकता है कि यातना के लंबे दौर से लेखिका स्वयं किस प्रकार गुजरी होंगी । इसलिए इन फिल्मों की कहानी से जब बात आगे बढ़ती है तो पीड़ा सघन होती जाती है । ऐसी फिल्में जिनमें दर्द और पीड़ा के गहनतम पलों की पुनर्रचना के दृश्य होते हैं, उनकी तारीफ के लिए शब्द जुटाना भी एक भयानक बेबसी का सबब होता है । उदाहरण के लिए “द पियानिस्ट”, इस फिल्म में एक दृश्य है कि नाजी दस्ते से छुपे बैठे नायक को एक पियानो दिखाई देता है, पर उस पियानो को नायक इस कारण नहीं बजा सकता है कि कहीं नाज़ियों द्वारा पियानो की आवाज सुन कर उसे पकड़ न लिया जाए। ऐसे में अपने अंदर के कलाकार को शांत करने के लिए नायक हवा में अपनी उँगलियाँ पियानो बजाने की अदा से घुमाता है और उसके मन में पियानो का संगीत गूँजता है। एक संवेदनहीन कला समीक्षक के लिए ये दृश्य कितनी संभावनाओं का दृश्य है, पर अपनी पुस्तक में विजय शर्मा जी जब लिखती हैं कि, “अधिकतर होलोकास्ट की फिल्में प्रदर्शित करती हैं कि जो इस अमानवीय काल से बचे रहे वे अपने साहस और बहादुरी से बचे। वे लोग बहादुर थे। पोलान्स्की के अनुसार जो बच निकले वे सब-के-सब बहादुर नहीं थे। सब लोग बहादुर हो भी नहीं सकते हैं मगर फिर भी कुछ व्यक्ति बहादुर न होते हुए भी बचे रहे”, तो ऐसा विश्वास होता है कि लेखिका निर्देशक की भावना और सोच के साथ जुड़ती चली जाती हैं । ऐसी बारीक समझ के अनेकानेक उदाहरण किताब में भरे पड़े हैं।
किताब की दूसरी सबसे बड़ी खासियत है किताब की भाषा। किताब में फिल्मों पर, निर्देशकों पर फिल्म के क्राफ्ट पर इतनी जानकारियाँ समेटी गई हैं जिन्हें परोसने में सबसे पहला संकट भाषा की सहजता के खो जाने का रहता है। पर एक सिद्धहस्त लेखक के रूप में विजय जी की भाषा की तरलता न सिर्फ बनी रहती वरन, गूढ़ विषयों की चर्चा के समय ये और भी बोधगम्य हुई जाती है। नोबल पुरस्कार विजेता साहित्यकार गुंटेर ग्रास के उपन्यास ‘द टिन ड्रम’ पर इसी नाम से वर्ष 1979 में बनी फिल्म को एक कठिन फिल्म माना जाता है और अगर किसी ने उपन्यास पहले नहीं पढ़ तो फिल्म और भी कठिन हुई जाती है। इसकी समीक्षा की चर्चा करें तो भाषा की सहजता और बोधगम्यता स्वतः स्पष्ट हो जाती है। एक बौने नायक की कहानी कहती इस फिल्म पर अपनी बात रखते हुए जब अंत में विजय शर्मा जी यह कहती हैं कि, “इस डिस्टोपियन फिल्म को देख कर मन कई दिनों तक कसैला रहता है” तो आप तक फिल्म की सघनता बिना अतिरिक्त प्रयास पहुँच जाती है।
सिने बुक रिव्यू श्रृंखला के तहत‘न्यू डेल्ही फिल्म फाउंडेशन’ पर आप सिनेमा से जुड़ी नई पुस्तकों की(पुरानी और महत्वपूर्ण पुस्तकों की भी) नियमित रुप से जानकारी पा सकेंगे और उनकी समीक्षा भी पढ़ सकेंगे। इसके अलावा हम उन पुस्तकों पर अपने यूट्यूब प्लैटफॉर्म पर भी चर्चा का आयोजन करेंगे। सिने बुक रिव्यू के नाम से शुरु इस पहल के लिए हम रचनाकारों, समीक्षकों और प्रकाशकों के सहयोग के आकांक्षी हैं। अधिक जानकारी के लिए ई मेल पर संपर्क करें ndff.india@gmail.com
किताब की एक बड़ी खासियत इसका शिल्प है, फिल्म समीक्षा लिखते हुए फिल्म की कहानी, फिल्म का क्राफ्ट, लेखक की टेक्नीक, निर्देशन की बारीकियाँ, फिल्म की पृष्ठभूमि और इन सब के बीच गुँथी हुई आलोचकीय टिप्पणियाँ इस किताब को पढ़ने का आनंद कई गुणा बढ़ा देती हैं।
इस पुस्तक में शामिल फिल्मों कि समीक्षा करते बीस आलेखों के अतिरिक्त जो अन्य तीन आलेख हैं – 1. होलोकास्ट : सिनेमा, त्रासदी और जिजीविषा, 2. डायस्पोरा, होलोकास्ट और लेखन, और 3. साहित्य और होलोकास्ट ये तीनों आलेख अपने आप में होलोकास्ट फिल्मों के इतिहास लेखन जैसा प्रयोग है। इन तीन आलेखों में इतनी जानकारियाँ शामिल हैं जो किसी भी पुस्तक को असाधारण रूप से समृद्ध करने का सामर्थ्य रखती हैं।
सामान्य तौर पर फिल्म समीक्षाएँ पत्रकारिता के पेशे से जुड़े लोगों का शनिवारीय शगल या कार्य का दायित्व हुआ करता है। बीते दशक में सिनेमा को साहित्य का एक अंग मान कर फिल्मों को डायस्पोरा अध्ययन, जेंडर अध्ययन जैसे पाठ्यक्रमों का हिस्सा बना लिया गया जहां कास्ट, जेंडर, डायस्पोरा जैसे नजरिए से फिल्मों की पड़ताल किये जाने का चलन है। ऐसी एकांगी समीक्षाएँ पढ़ते हुए मन एकाग्र नहीं हो पाता और फिल्म की खामियाँ और खूबियाँ एकांगी दृष्टिकोण से उभरती हैं। एक पाठक के रूप में इस किताब से गुजरते हुए आपको शायद पहली बार ऐसी समीक्षाएँ पढ़ने को मिलें जो एक साहित्यकार, एक सिने-प्रेमी व्यक्तित्व द्वारा फिल्मों के आकर्षण में बंध कर लिखी गई हैं।
पेपरबैक पुस्तक का मूल्य ₹ 399/ है, जो इसमें लिखी गई जानकारियों की तुलना में नगण्य है। फिल्मों और विश्व इतिहास पर शोध करने वाले हर एक विद्यार्थी के निजी पुस्तकालय में इस पुस्तक को होना ही चाहिए । फिल्म या सिनेमा किस प्रकार साहित्य का एक्स्टेंडेड वर्ज़न है, यह इन लीक तोड़ती समीक्षाओं को पढ़ कर बेहतर तरीके से समझ जा सकता है।