आज सोचा तो आंसू भर आए…
महज़ 51 साल की उम्र मिली संगीतकार मदन मोहन को जीने के लिए, लेकिन जो संगीत वो रच गए वो कालजयी है। आज भी उनमें उतनी ही गहराई है, उतनी ही खूबसूरती है। उनके गीतों को सुनते हुए आज भी अफ़सोस होता है कि काश वो कुछ समय और रहे होते तो हमें संगीत के कुछ और नगीने नसीब हो जाते। 14 जुलाई उनकी पुण्यतिथि होती है, उनकी शख्सियत, उनके सुरों को याद कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म समीक्षक अमिताभ श्रीवास्तव…
साल 1956 . अशोक कुमार और किशोर कुमार की भाई – भाई हिट हो गयी थी. फिल्म के गानों और धुनों का भी खूब चर्चा हो रहा था फ़िल्मी दुनिया में और संगीत के कद्रदानों के बीच. किस्सा मशहूर है कि ग़ज़लों की मलिका कही जाने वाली बेग़म अख्तर ने फिल्म का गाना ‘कदर जाने न मोरा बालम बेदर्दी’ सुना. गाना फिल्म में लता मंगेशकर की आवाज़ में था. लता की लरजती-लहराती आवाज़ और परदे पर निम्मी की शानदार अभिव्यक्ति ने इसे यादगार बना दिया है. गाने की मिठास पर मुग्ध होकर बेगम अख्तर ने मदन मोहन को मुबारकबाद देने के लिए फ़ोन लगाया और उनसे ये गाना खुद गाकर सुनाने की फरमाईश की. बेग़म अख्तर और मदन मोहन के बीच दोस्ती, अदब और नफासत का एक रिश्ता था जो लखनऊ रेडियो स्टेशन पर मदन मोहन की नौकरी के दौरान कायम हुआ था जहाँ उनकी दोस्ती तलत महमूद से भी हुई थी.
तो बेग़म अख्तर ने फ़ोन पर ही ‘कदर जाने न’ सुनने की फरमाईश की. फ़ोन पर मदनमोहन गाते रहे और बेग़म अख्तर सुनती रहीं. ये सिलसिला कोई पंद्रह मिनट तक चला.
सोचिये क्या सीन रहा होगा !
ये था मदन मोहन के संगीत का जादू.
हिंदी सिनेमा के संगीत के इतिहास में जब भी फ़िल्मी ग़ज़लों का ज़िक्र होगा, मदन मोहन का नाम कतार में सबसे आगे के लोगों में गिना जायेगा. लता मंगेशकर की आवाज़ में पचास के दशक के ढलते बरसों में और साठ के दशक में गायी गयी तमाम लोकप्रिय ग़ज़लों में से कई ग़ज़लें मदन मोहन ने ही संगीतबद्ध की थीं.
मदन मोहन का जन्म 25 जून 1924 को इराक की राजधानी बगदाद में हुआ था. उनके बारे में ये भी कहा जा सकता है कि वो चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुए थे. उनके पिता राय बहादुर चुन्नीलाल आज़ादी से पहले इराक में बड़े ऊँचे सरकारी ओहदे पर थे. बाद में जब हिन्दुस्तान आये तो देविका रानी और हिमांशु राय की मशहूर फिल्म कंपनी बॉम्बे टॉकीज में साझेदार हो गए. फिर फिल्मिस्तान स्टूडियो के भी मालिक रहे.
मदन मोहन बेहद आकर्षक शख्सियत के मालिक थे. अच्छी शक्ल सूरत, अच्छी आवाज़ – एक्टर बनना चाहते थे . शुरू- शुरू में उन्होंने फिल्मों में छोटे-मोटे रोल भी किये, गाते बहुत अच्छा थे. क्रिकेट और बिलियर्ड्स के शौक़ीन . उन की पत्नी शीला ढींगरा शहीद मदन लाल ढींगरा की भतीजी थीं. फिल्म एक्ट्रेस अंजू महेन्द्रू उनकी इकलौती सगी बहन की बेटी यानी उनकी भांजी हैं.
सेठ चुन्नीलाल के बैनर तले दिलीप कुमार, अशोक कुमार और देव आनंद की कामयाब फ़िल्में बनीं लेकिन खुद अपने बेटे यानी मदन मोहन के फिल्मों से जुड़ने के वो एकदम खिलाफ थे. उन्होंने मदन मोहन को फ़ौज में भर्ती होने का फरमान सुना दिया.
मदन मोहन ने जब अपने रईस पिता के सामने ये ख्वाहिश ज़ाहिर की कि वो फ़िल्मी दुनिया से जुड़ना चाहते हैं तो उनके पिता राय बहादुर चुन्नी लाल ने उन्हें घर से बाहर कर दिया. बाप अक्खड़ , तो बेटा भी ज़िद्दी. मदन मोहन ने घर से बाहर निकल कर संघर्ष शुरू किया . गाइड बन कर सामने आये सचिन देव बर्मन (एस डी बर्मन) ने मदन मोहन को सलाह दी कि संगीत निर्देशक बनने के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित कर दें. लता मंगेशकर के साथ मदन मोहन की कुछ ऐसी जुगलबंदी बैठी कि लता की आवाज़ और मदन मोहन का संगीत दोनों ने मिल कर नायाब नग्मे रचे जो फिल्म संगीत की धरोहर हैं.
मदन मोहन बेमिसाल थे ये उनके समकालीन संगीतकार और फिल्मकार जानते थे और मानते थे. फिर भी उनके खाते में न तो कोई बड़ा बैनर रहा न कोई फिल्मफेयर पुरस्कार. इकलौता सम्मान जो उन्हें मिला वो था फिल्म दस्तक के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार. उस फिल्म के गाने ‘माई री मैं कासे कहूँ ‘ को फिल्म में लता मंगेशकर ने गाया था लेकिन उसे मदन मोहन ने भी गाया जो लता से कहीं भी उन्नीस नहीं है.
पुरस्कारों के मामले में अपनी उपेक्षा से वो बहुत क्षुब्ध रहते थे . शायद भीतर ही भीतर सालने वाले इस दुःख की वजह से ही उन्हें शराब की लत लगी जो अंततः जानलेवा साबित हुई और 14 जुलाई 1975 को महज 51 साल की उम्र में मदन मोहन इस दुनिया से रुखसत हो गए .