गिरीश कर्नाड: मिथक से यथार्थ तक का सफर


आज 10 जून को प्रसिद्ध नाटककार, अभिनेता और बुद्धिजीवी गिरीश कर्नाड की पुण्यतिथि है। प्रस्तुत है हिंदी के प्रमुख कवि और उपन्यासकार स्वप्निल श्रीवास्तव का उन पर लिखा एक स्मृति लेख। नवें दशक के प्रमुख कवियों में से एक स्वप्निल श्रीवास्तव के ‘ईश्वर एक लाठी है’ (1982), ‘ताख पर दियासलाई’ (1992), ‘मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए’ (2004), ‘ज़िंदगी का मुक़दमा’ (2010) और ‘जब तक है जीवन’ (2014) के नाम से पाँच काव्य-संग्रह प्रकाशित हैं। अपने जो अनुभव कविताओं में व्यक्त नहीं कर सके, उनके लिए कहानी और संस्मरण विधा का चयन किया। इस क्रम में उनके दो कहानी-संग्रह ‘एक पवित्र नगर की दास्तान’ और ‘स्तूप और महावत’ शीर्षक से प्रकाशित हुए। उनका संस्मरण ‘जैसा मैंने जीवन देखा’ शीर्षक से प्रकाशित है। इसके अलावे यदा-कदा किताबों की समीक्षा भी की है। उन्हें भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, फ़िराक़ सम्मान और केदार सम्मान के साथ ही रूस के अंतर्राष्ट्रीय पुश्किन सम्मान से पुरस्कृत किया गया है। कर्नाड के नाटकों पर प्रकाश डालता ये विस्तृत आलेख स्वप्निल श्रीवास्तव की किताब. लेखक की अमरता से उनकी अनुमति से साभार उद्धृत है।
मैं मरने के अभिनय की बात नहीं करता, सचमुच मर जाऊंगा
ऐन आपकी आंखों के सामने मेरा अंत हो जायेगा (नागमंडल)
गिरीश कर्नाड को याद करते हुये मुझे विलियम शेक्सपियर के नाटक ‘एज़ यू लाइक इट’, की कुछ पंक्तियां याद आती हैं। वे लिखते हैं कि यह दुनिया एक रंगमंच है और स्त्री-पुरूष अभिनेता हैx। उनके अपने प्रवेश और निकास द्वार हैं। एक आदमी अपने समय में कई भूमिकायें निभाता है। इसी क्रम में हम कबीर को भी याद कर सकते है। उन्होने कहा है- देह धरे को दंड है, भोगत है हर कोय। ज्ञानी भोगे ज्ञान से भोगी भोगे सोय।
यह हमारी दुनिया और जीवन का सत्य है। इस दुनिया में हर व्यक्ति अपनी भूमिकायें निभाता है। दुनिया के रंगमंच में ऐसे अभिनेता हैं- जो अपने अभिनय की छाप छोड़ जाते हैं और हम उन्हे मंच से जाने के बाद याद करते हैं। उनके संवाद हमें बदलते हैं। वे हमें जीवन के लिये ऊर्जा देते हैं। कुछ ऐसे अभिनेता हैं जो मंच पर बहुत दिनों तक बने रहते है लेकिन हमारे ऊपर कोई प्रभाव नही पड़ता है। ये अभिनेता नही हमारे समय के खलनायक है जो केवल रंगमंच का कारोबार करते है। उनका कोई सामाजिक सरोकार नही रहता । ऐसे लोगो की जगह इतिहास के डस्टविन में सुरक्षित रहती है। रंगमच नेपथ्य से शुरू होता है। नाटक के पहले मंच पर सूत्रधार आता है और नाटक की पृष्ठभूमि के बारे में बताता है। उसके बाद मंच पर पात्र आते है। रंगमंच की सफलता निदेशक के ऊपर निर्भर करती है।
गिरीश कर्नाड भारतीय रंगमंच के ऐसे नायकों में रहे हैं – जिन्होने देहभाषा के साथ रंगभाषा बदलने का काम किया। कर्नाड की मातृभाषा कोंकडी थी लेकिन उन्होनें कन्नड़ में मूललेखन किया। उनके नाटक हिंदी में अनूदित हुये और उनका मंचन हिंदी परिक्षेत्रों के साथ देश के अन्य हिस्सों में हुआ। बहुत से लोग उन्हें हिंदी का नाटककार मानते और जानते रहे हैं। वे बंगाली लेखक शरतचंद्र, बिमल मित्र, महाश्वेता देवी, पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम की तरह हिंदी में लोकप्रिय रहे। इन लेखको के साथ गिरीश कर्नाड को हिंदी पाठको और दर्शको ने खूब अपनाया। आज के समय में उनकी लोकप्रियता की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यह मीडिया का दौर है – जहां साहित्य की जगह निरंतर कम होती जा रही है। मनोरंजन एक धंधा बन चुका है। वह हमे विचारहीनता और विचलन की तरफ ले जा रहा है। इस भाग-दौड़ की जिन्दगी में वह सब कुछ छूटता चला जा रहा है, जो हमारे जीवन को समृद्ध करता है। साहित्य और कला जैसी विधायें हाशिये पर हैं। सबसे बड़ी विधा पूंजी और सत्ता है। लोग इन्हीं के आसपास मोक्ष की खोज करते रहते हैं। जो सत्ता के विरूद्ध काम करता है, उसे अरबन नक्सल कह दिया जाता रहा है।

गिरीश कर्नाड का जीवन कम रोचक नहीं रहा है। वे 10 जून 1938 को महाराष्ट्र के माथेरान में पैदा हुये। फिर उनका परिवार कर्नाटक आ गया। धारवाड़ स्थित कर्नाटक विश्वविद्यालय से उन्होने स्नातक की उपाधि ली और गणित में सर्वोच्च स्थान हासिल किया। लेखक प्राय: गणित में बेहद कमजोर विद्यार्थी होते है लेकिन गिरीश कर्नाड इसके अपवाद सिद्ध हुये। वहां से वह ऑक्सफोर्ड गये – जहां से दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और अर्थशात्र में स्नाकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। वो रोड्स स्कॉलरशिप के तहत ऑक्सफोर्ड गए थे और वहां वे सात साल रहे। शिकागो यूनिवर्सिटी के अतिथि प्रोफेसर रहे। छात्र जीवन से ही उनकी नाटकों में अभिरूचि रही थी।
उनका पहला नाटक – ‘ययाति’ छब्बीस साल की उम्र में प्रकाशित हुआ। यह नाटक महाभारत की एक कथा पर आधारित है लेकिन गिरीश कर्नाड ने इसे नये परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की है। यही उनकी विशेषता है ,वे प्राख्यानों और लोककथाओं को नये स्वरूप में प्रस्तुत करते हैं। वे उसे वर्तमान से जोड़ते हैं। वे कथा को विचारवान बनाते हैं। हिंदी पाठकों को धर्मवीर भारती के ‘अंधायुग’ की जरूर याद होगी। भारती महाभारत की कथा में सत्ता-संबंधों और उसके भीतर चल रहे षड़यंत्रों को हमारे सामने उजागर करते है। ‘अंधायुग’ सर्वाधिक प्रदर्शित नाटक है। ‘महाभारत’ सीरियल के सम्वाद-लेखक राही मासूम रज़ा ने महाभारत की कथा को नया अर्थ दिया है। कर्नाड ने ‘ययाति’ की कथा के साथ नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। ययाति की दो पत्नियां है। शुक्राचार्य की बेटी देवयानी और असुर कन्या की आत्मजा शर्मिष्ठा। देवयानी रानी है और शर्मिष्ठा उसकी दासी – जिसके साथ ययाति का देह – संबंध वर्जित है। इस संबंध का उल्लंघन करने के बाद वह श्राप स्वरूप असमय वृद्धावस्था को प्राप्त होते हैं। इस श्राप से मुक्त होने का यही तरीका है कि कोई उन्हें अपनी युवावस्था का दान कर दे। उनके कई पुत्र इसके लिये तैयार नहीं होते लेकिन उनका सबसे छोटा पुत्र इस के लिये तैयार हो जाता है। बस कथा इतनी है। इस कथा के भीतर वे देवयानी और शर्मिष्ठा के भीतर के द्वंद दिखाते हैं। शर्मिष्ठा की कुंठा और देवयानी का वर्चस्व इस नाटक को दिलचस्प बनाते हैं। सबसे अदभुत सम्वाद ययाति के पुत्र पुरूराज और उसकी पत्नी चित्रलेखा के साथ उसके ययाति के हैं। इस गृहयुद्ध में प्रजा कम कष्ट नही उठाती। चित्रलेखा का एक संवाद देखें –
…आपने अपने बेटे से तारूण्य छीन लिया। इसलिये यह तर्कसंगत है कि उससे संबधित सब आप स्वीकार करें।
.. यह क्या महाप्रभु नीति तो अपनी रक्षा के लिये सामान्य जनता द्वारा निर्मित बंधन है। पैदा हुये बच्चे प्रबल प्रवाह में पेड़-पौधों के समान दिशाहीन-निराधार न हो जाएं इसलिये योजनायें बनाई गयी हैं। हमे असामान्य होना चाहिये। .. पूर्वजों की नीति की बेड़ियों को हम क्यों धारण करें।
ये संवाद हमे बताते है कि गिरीश कर्नाड अपने नाटकों द्वारा हमे संदेश भी देते हैं।
…………
ययाति के बाद उनका दूसरे नाटक – ‘तुगलक’ का प्रकाशन 1964 में हुआ । यह नेहरूयुगीन समय था। यह नाटक बेहद विवास्पद शासक मुहम्म्द बिन तुगलक के जीवन पर आधारित था। तुगलक की मान्यता एक सनकी शासक के रूप में रही है। उनके फैसलों और कार्यप्रणाली के बारे में बहुत से दिलचस्प किस्से हैं। इतिहासकारों में उसे लेकर भिन्न-भिन्न मत रहे हैं। जहां इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद उसे विद्वान और सुसंस्कृत शासक मानते रहे हैं वहीं आशीर्वादी लाल की राय अलग थी। वे उसे विरोधाभासों का समुच्चय मानते थे। इब्नेबतूता उसे परोपकारी राजा मानता था। तुगलक के दो निर्णयों की काफी आलोचना हुई। पहला दिल्ली से दौलताबाद राजधानी का स्थानांतरण और दूसरा तांबे के सिक्के को चांदी के सिक्के के बराबर के मूल्य का साबित करना। पहले निर्णय के बारे में बताया गया कि चूंकि उसका साम्राज्य दक्षिण तक फैला हुआ था, इसलिये राजधानी को राज्य के बीचोंबीच होना चाहिये ताकि राज्य पर नियंत्रण रखा जा सके । दूसरा यह कि किसी रियासत का सिक्का किसी धातु से नही उसके मोल से निर्धारित होता है ।
तुगलक पर यह आरोप लगाया जाता है कि उसने अपने वालिद और भाई की हत्या करवाई है। जबकि तथ्य अलग थे। उसके वालिद और भाई लकड़ी के तख्ते पर जुलूस में चल रहे थे, उसी बीच पागल हाथी के उपद्र्व से तख्ता उलट गया और दोनों की मृत्यु हो गयी। गिरीश कर्नाड के नाटक में ये तथ्य सामने आते हैं। इतिहास में प्राय: यह देखा गया है कि लोग तथ्य की तस्दीक नही करते पूर्व लीक पर ही चलते रहते हैं। तुगलक के साथ यही हुआ, उसे सनकी और असफल सम्राट के रूप में ही देखा जाता रहा है । उसके मानस और उसके भीतर चल रहे द्वंद को समझने की कोशिश नही की गयी। गिरीश कर्नाड ने इस एकतरफा दृष्टि को बदलने की कोशिश की है।
इस नाटक के दृश्य- 3 में तुगलक और शेख के साथ जो तल्ख संवाद हुये है, उसे कोई शासक बरदाश्त नही कर सकता। संवाद का कुछ अंश देखें –
शेख- .. अगर आपके हुक्म से गुलाम ही आपके जलसे में आनेवाले हो, तो मेरा यहां आने का मकसद ही खत्म हो जायेगा …
मुहम्मद – मुमकिन हो कि हमने कभी नासमझी की हो। लेकिन हमारा दावा है कि हमने अपना फर्ज अदा करने में लापरवाही कभी नही बरती।
वह आगे कहता है .. घुटनों के बल रेंग कर फासला तय नही किया जाता , शेख साहब! घुटनों के बजाय मैं पंजों पर चलना चाहता हूं।
गिरीश कर्नाड ने तुगलक को मसीहा नहीं सिद्ध किया है। उसके भीतर भी मानवीय कमजोरी है लेकिन वह दोनों कौमों की बेहतरी के लिये कटिबद्ध रहता है। जिस तरह की राजनीतिक परिस्थियां उसे विरासत में मिली थीं, उसके भीतर उसके गुणों-अवगुणों का विकास हुआ था। इस नाटक में तत्कालीन समय और उसके अंतर्विरोध साफ दिखाई देते हैं। इस नाटक के जरिये वे तुगलक और इतिहास की नये सिरे से खोज करते हैं।
इस नाटक का कन्नड़ से हिंदी में तर्जुमा प्रसिद्ध नाट्य निदेशक बी. वी. कारंत ने किया है। विश्वप्रसिद्ध निदेशक अब्राहम अल्काज़ी ने इसका निर्देशन किया था। इस नाटक की भूमिका में उन्होने लिखा है ..यह समझना कठिन नहीं है कि गिरीश कर्नाड ने तुगलक के चरित्र और काल को अपने नाटक के लिये क्यों चुना। एक कारण, जैसा उन्होने स्वंय कहा है, कन्नड़ में ऐतिहासिक नाटकों का प्राय: अभाव सा है … कुछ ही वर्षों में तुगलक की गगनचुंबी योजनायें और स्वप्न धूल में मिट गये। अपनी इच्छाओं की पूर्ति में बाधा बनने वाले सभी व्यक्तियों को उसने मौत के घाट उतार दिया .. निपट अकेला . शवों के झुंड से और अपने ही हाथों किये सर्वनाश से घिरा हुआ वह उन्माद के छोर तक पहुंच गया ..।
यह तय है कि शासन चलाना बच्चों का खेल नहीं है, उसके लिये कठोर फैसले लेने पड़ते हैं, हत्या उनमें से एक है। जिस अशोक को हम आदर्श सम्राट मानते रहे हैं, उसके हाथ भी खून से रंगे हुये थे। तुगलक के सामने जो राजनीतिक परिस्थियां थीं, वे उसे क्रूर बनाने में कम उत्तरदायी नहीं हैं।
इस नाटक ने कर्नाड को एक नाटककार के रूप में स्थापित किया। इस नाटक का कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ।
गिरीश कर्नाड के नाटक बहुधा ऐतिहासिक पात्रों और लोककथाओं को लेकर लिखे गये हैं लेकिन उसकी कथा में किंचित बदलाव करके उसे आधुनिक बनाया गया है। उसमें वर्तमान के प्रश्न उठाये गये हैं। उसे समकालीनता से जोड़ा गया है। कर्नाड प्रतिबद्ध लेखक हैं। उनके नाटक सिर्फ मनोरंजन नहीं करते बल्कि हमे वैचारिक रूप से शिक्षित करते हैं। उनके लेखन और कर्म में फांक नहीं थी। वे जनांदोलन और प्रतिरोध का भी हिस्सा बनते थे।
उनके दो अन्य नाटक – ‘हयवदन’ और ‘नागमंडल’ आज के समय में बहुत प्रसांगिक है। तुगलक की तरह उनका नाटक ‘हयवदन’ बहुत मकबूल हुआ। दोनो नाटक लोककथाओं पर आधारित हैं।

……
एक तो घोड़े का मुखौटा लगाये आते -जाते लोगों को
डराते हो, ऊपर से रोने-बिलखने का स्वांग भी रचते हो
आखिर हंसी-मजाक की कोई हद है
………
सचमुच इन चमत्कारों का कोई अंत नहीं
घड़ी पहले कोई कहता है कि घोड़े के चेहरेवाला मनुष्य होता है
तो मैं जोर से हंस पड़ता , लेकिन अब ?
( हयवदन )
यह नाटक देवदत्त , कपिल और पद्मिनी की कथा है। देवदत्त शिक्षित और सुसंस्कृत युवक है। उसे कला और संस्कृति से प्रेम है। कपिल उसके उलट हैं लेकिन उसकी देहयष्टि अदभुत है। इन दोनों के बीच अनिंद्य सुंदरी पद्मिनी है। देवदत्त और कपिल में गहरी मित्रता है। देवदत्त से पद्मिनी का विवाह हो जाता है। वह इस हेतु काली को अपनी भुजायें और रूद्र को अपना सिर चढ़ाने का वचन दे चुका था। वे तीनों एक यात्रा पर निकलते हैं और रास्ते में रूक जाते हैं। पद्मिनी को सुहाग का फूल दिखाई देता है। कपिल अपने वस्त्र उतार कर पेड़ पर चढ़ जाता है। पद्मिनी कपिल की देह देख कर कहती है …कैसी सुडौल काया-चौड़ी पीठ . तरंगों की सी थिरकती मांसपेशियों से भरे समुद्र की तरह! और वह छोटी सी पतली कमर – निहारती रहो तो रोम-रोम खिल जाये …।
…. जैसे किसी गंधर्व ने शिकारी का जन्म लिया हो! उसकी देह थिरकती है, अंग-अंग फड़कते हैं, जैसे कोई नृत्य हो।
मंदिर पहुंच कर देवदत्त अपने वचन के अनुसार अपना मस्तक देवी को काट कर अर्पित कर देता है। उसे देखकर कपिल विस्मित हो जाता है और अपना मस्तक देवी को भेंट कर देता है।
जब दोनों प्रतीक्षा के बाद नहीं आते हैं तो पद्मिनी मंदिर की तरफ जाती है और इस दृश्य को देख कर स्तब्ध हो जाती है। लेकिन असली कथा इस प्रकरण के बाद शुरू होती है। देवी की आकाशवाणी होती है कि कटे हुये सिर को जोड़ दे तो वे जीवित हो उठेंगे। शाम के अंधेरे में पद्मिनी देवदत का सिर कपिल के धड़ से और कपिल का सिर देवदत्त से जोड़ देती है |
नाटक यह सवाल उठाता है कि आदमी देह या मस्तिष्क। देवदत्त का आधा भाग कपिल का शरीर है और कपिल आधा देवदत्त है । यह आधा अधूरापन दोनों के लिये संकट का कारण बनता है। देह का संचालन मस्तिष्क से होता है। कुछ इसी तरह की समस्या मोहन राकेश के नाटक ‘आधे-अधूरे’ की भी है। वहां एक आदमी कई तरह की भूमिका में होता है। बुद्धि और देह का यह अंतर्द्वंद ही आज की समस्या है। इससे मुक्त होने के लिये दोनों पूर्वदशा में आना चाहते हैं। देवदत्त से ज्यादा बड़ी समस्या पद्मिनी के लिये है कि वह देवदत्त किसे माने।
यह आस्तित्व का संकट ही हमारी मूल समस्या है। जीवन की लड़ाई में मस्तिष्क जीतेगा या देह की हार होगी। इस नाटक के कुछ संवाद देखे —
कपिल –क्यों मैं इतने दिन अपने से जूझते-लड़ते समझने लगा था कि मैं जीत गया .. अब मैं कपिल हूं – जंगली बेरहम कपिल। अपने शरीर और सिर के बीच की दरार मिटा देनेवाला कपिल। अब तुम क्या चाहती हो? और एक सिर और एक आत्महत्या? मेरी बात सुनो, तुम अभी यहां से वापस चली जाओ। देवदत्त के पास। वही तुम्हारा पति है – इस बच्चे का बाप।
…..
पद्मिनी – चुप रहो पगले! तुम्हारे शरीर ने किसी नदी में स्नान किया, सुख भोगा, तो तुम्हारे मस्तक को यह नहीं जानना चाहिये कि वह नदी कौन सी थी, उसका बहाव कैसा था।
देवदत्त और कपिल दोनो अपने पूर्व आस्तित्व को पाने के लिये लड़ते रहे और अंत में वे मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं ।
‘हयवदन’ के बारे में निदेशक और नाट्य समीक्षक रामगोपाल बजाज की टिप्पणी महत्वपूर्ण है। वे लिखते हैं…पुरूष की अपूर्णता (मनुष्य की अपूर्णता) को विभिन्न कालखंडों में रखकर अनेक नाटक लिखे गये हैं- आधे-अधूरे ,द्रौपदी, सूर्य की अंतिम किरण से पहली किरण तक आदि में भी यही ध्वनि है। इन सभी नाटकों में स्त्री-पुरूष सम्बंध को लेकर किसी या किन्हीं बिंदुओं से त्रिकोण बनते हैं। हयवदन की उपर्कथा में मनुष्य के पूर्ण मनुष्य होने से आरम्भ होकर – शरीर और मस्तिष्क दोनों की श्रेष्ठता की कामना मुख्य कथा में प्रदर्शित की जाती है।
अब उनके एक अन्य नाटक – ‘नागमंडल’ की कथा की ओर चलें। गिरीश कर्नाड ने इस नाटक की भूमिका में स्वीकार किया है कि यह नाटक कर्नाटक की दो लोककथाओं का परिणाम है – जिसे उन्होने प्रोफेसर ए . के रामानुजम से सुना था। यह नाटक उन्होने शिकागो –प्रवास में लिखा था। यह नाटक भी ‘हयवदन’ की तरह रूपांतरण की कथा है। यह कहानी अप्पण्णा / नागप्पा, रानी और कुरूडब्बा के बीच चलती है। रानी अप्पण्णा की पत्नी है लेकिन उसका वैवाहिक जीवन सुखी नही है। वह अपनी पत्नी को बंद ताले के बीच रखता है। कुरूडब्बा इस दाम्पत्य जीवन को नियमित करने के लिये उसे जड़ी-बूटी देती है कि इसका काढ़ा बनाकर अप्पण्णा को खिला दे। रानी काढ़ा तो बनाती है लेकिन उसे एक ढ़ूह पर डाल देती है। उसमें से फन फैलाये हुये नाग़ दिखाई देता है। नाग उसके गुसलखाने की नाली से होते हुये उसके कमरे तक अप्पण्णा का भेष बदल कर रात के प्रहर में पहुंचता है। उसका व्यवहार बदला हुआ मिलता है। दिन के समय अप्पण्णा उसका पति आता है जिसका रूख एकदम उलट है । रात के समय कर्नाड उसे नागप्पा का नाम देते हैं।
असली समस्या तब पैदा होती है जब रानी गर्भवती हो जाती है। यह बात वह नागप्पा के सामने रखती है तो वह कहता है कि वह नाग परीक्षा के समय नाग का नाम ले तो वह निष्कलंक साबित हो जायेगी। अप्पण्णा का यह आरोप है कि उसने रानी के साथ किसी तरह के देहसम्बंध नही बनाये हैं तो वह गर्भवती कैसे हो सकती है। रानी के सामने दो विकल्प है या तो वह जलती हुई लोहे के राड को पकड़ ले या नाग की बांबी में अपना हाथ डाल कर अपने आपको निर्दोष सिद्ध करे। नाटक के कुछ संवाद देखें –
रानी ; .. क्या यह बेहतर नहीं होगा कि मैं नागराज के दंश और बांबी की अंधेरी चुप्पी को अंगीकार कर लूं?
बुजुर्ग – 2 – सुनो बिटिया, लोहे की छड़ तपकर लाल हो चुकी है, इधर आओ।
रानी – नही मैं नाग-परीक्षा ही दूंगी।… इस गांव में आकर मैंने अपने हाथों से दो का परस किया है।
अप्पण्णा – सुनो वह खुद अपने मुंह से कुबूल कर रही है। दो .. दो कौन हैं वे दो।
रानी .. मेरा पति और यह काला नाग .. इसमें कुछ भी झूठ हो तो यह काला नाग मुझे डस ले
काला नाग उसके कंधे पर चढ़ कर छत्र की तरह अपना फन फैला देता है। भीड़ अवाक रह जाती है। पंचायत भी चकित। लोग कहते है तुम्हारी पत्नी कोई साधारण स्त्री नही देवी है अप्पण्णा कहता है – मुझे माफ कर दो । मैं पापी हूं। मैं अंधा हो गया था।
इसी तरह हमारी राजनीति और समाज में साधारण घटनाओं को आसाधारण बनाने के करिश्मे किये जाते है। यह रूपांतरण और चमत्कार की कला है – जो यथार्थ को ढक देती है। इस कथा का संदेश दूर तक जाता है। हम जिस समय में रह रहे है, वहां मिथक को वास्तविक माने जाने का खेल चल रहा है। वे मिथक से यथार्थ तक की यात्रा करते हैं।

….
गिरीश कर्नाड की प्रतिभा और भूमिका नाटक तक सीमित नही है। उन्होने फिल्मों मे भी अभिनय किया है और उसमें अपनी नाट्य-भाषा का उपयोग किया है। यू आर अनंतमूर्ति के उपन्यास ‘संस्कार’ पर बनी फिल्म में उन्होने प्राणाचार्य की केंद्रीय भूमिका को जीवंत कर दिया था। श्याम बेनेगल की फिल्म ‘निशांत’ में उस स्कूल मास्टर के दर्द को याद करिये – जिसकी पत्नी का अपहरण सामंत द्वारा कर लिया जाता है। उस सामंत के विरूद्ध भीड़ इकट्ठी हो जाती है। इसमें उसकी और सामंत दोनों की पत्नियां मारी जाती हैं।
‘मंथन’ फिल्म श्वेत आंदोलन के जनक वर्गीस कुरियन के जीवन पर निर्मित है। इस फिल्म में कर्नाड डॉक्टर के रोल में है। ‘इकबाल’ फिल्म का कोच हो या ‘टाइगर जिंदा है’- फिल्म का रॉ के अफसर की भूमिका का निर्वाह वे बड़ी कुशलता के साथ करते हैं। इस फिल्म में उनके अभिनय के सामने नायक सलमान खान ठिगने दिखते हैं। व्यवसायिक फिल्म आशा , पुकार और उत्सव में उन्होंने सफल अभिनय किया था। चाहे कला फिल्म हो या व्यवसायिक फिल्म- दोनो स्तरों पर वे कामयाब हुये है। टी. वी सीरियल ‘मालगुडी डेज़’ में उन्होने स्वामी के पिता का किरदार अदा किया था। यह सीरियल घर-घर देखा जाता था। इस तरह उनका जीवन वैविध्यपूर्ण था। वे कन्नड़ और अंग्रेजी में समान रूप से लिखते थे। इस लेख में उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियों का उल्लेख किया गया है।
वे लेखन से ही नही सामजिक सरोकार से जुड़े लेखक थे। उन्होने आपातकाल का विरोध किया था और फिल्म एंड टेलीविजन संस्थान के निदेशक पद से इस्तीफा दे दिया था। पिछले कई वर्षों से उनके भीतर ऑक्सीजन की कमी हो गयी थी – जिसकी आपूर्ति वह नाक में नली लगाकर करते थे। ऐसी विकट स्थिति में उन्हें – ‘मैं हूं अरबन नक्सल’ की तख्ती लगाये देखा गया था। वे उन बुद्धिजीवियों से अलग थे जो बंद कमरों में क्रांति का बिगुल बजाते हैं। किसी आंदोलन में शामिल होने से डरते हैं। पानसरे, कलबुर्गी या गौरी लंकेश हो , उन्होने सबकी हत्या का विरोध किया। वे विपक्ष के लेखक थे। अफसोस यह है कि ऐसे लेखको की पीढ़ी समाप्तप्राय है – जिससे दरबारी संस्कृति का उन्न्यन हो रहा है और प्रतिरोध के स्पेस कम हो रहे हैं।
गिरीश कर्नाड को संगीत अकादमी, साहित्य अकादमी, कन्नड़ साहित्य अकादमी के पुरस्कार के साथ ज्ञानपीठ सम्मान मिला था। वे पद्मश्री, पदमविभूषण से विभूषित किये गये थे लेकिन यह उनका वास्तविक परिचय नही है। वास्तविक परिचय यह है उन्होने नाटक के क्षेत्र में मौलिक काम किया। पुराण और लोकमिथकों की प्रस्तुति नये संदर्भो में की। बादल सरकार, विजय तेंदुलकर, उत्पल दत्त जैसे साथी नाटककारों से मिल कर रंगमंच की भारतीय छवि बनाई। उनके साथ इस पीढ़ी का अंत हो रहा है।
गिरीश कर्नाड अपने जीवन में कम विवादस्पद नहीं थे। कुछ साल पहले जब मुम्बई की एक संस्था ने वी एस नायपाल को लाइफटाइम एचीवमेंट एवार्ड से नवाज़ा तो उन्होंने उनके मुस्लिम विरोध की भरपूर आलोचना की। उन्होने रवींद्रनाथ टैगोर को दूसरे दर्जे का लेखक बता कर एक नया विवाद खड़ा कर दिया। उनकी पहचान इन विवादों से अलग है। विवाद से किसी लेखक का मूल्यांकन नहीं होता। किसी लेखक का साहित्य और समाज में उसका क्या योगदान है- इस आधार पर उसे जांचने का काम किया जाना चाहिये ।