दर्शकों को खींचने के लिए अनेकोनेक हथकंड्डों को आजमाती फिल्मों की आपाधापी में ‘ढाई आखर’ एक ऐसे सिनेमा की दरकार है, जिसकी गुंजाइश तो हमेशा रही है पर हर बार उसे अगर जिंदा रहना है तो एक ऐसे दर्शक वर्ग का सहयोग भी चाहिए।
‘न्यू डेल्ही फिल्म फाउंडेशन’ सिनेमा से जुड़ी गंभीर पुस्तकों के बारे में जानकारी देने और उनकी विषयवस्तु से परिचित कराने के लिए ऐसी नई पुस्तकों की (पुरानी और महत्वपूर्ण पुस्तकों की भी) नियमित रुप से जानकारी और समीक्षा प्रकाशित करने की शुरुआत कर रहा है।
हिंदुस्तानी सिनेमा की जो धर्मनिरपेक्षता और साझा संस्कृति की परंपरा रही है, दिलीप कुमार उसी परंपरा के महान आइकन हैं क्योंकि वे जितने दिलीप कुमार हैं, उतने ही यूसुफ खान भी हैं। वे जितने देवदास हैं, उतने ही शहज़ादा सलीम भी हैं, जितने मुंबई के हैं, उतने ही पेशावर के भी हैं और जितने उर्दू के हैं, उतने ही हिंदी के हैं