गाइड: क्या से क्या हो गया…
विजय आनंद एक ऐसे लेखक-निर्देशक रहे हैं, जिन्होने गाइड जैसी क्लासिक फिल्म भी बनाई और ज्वेल थीफ, जॉनी मेरा नाम जैसी कल्ट फिल्में भी। 22 जनवरी को उनके जन्मदिन के मौके पर उनकी ऑलटाइम फेवरिट फिल्म गाइड (1965) की बात सिनेमा के साहित्य की समीक्षा में अजय चंद्रवंशी की कलम से। इस सीरीज़ में हम किसी फिल्म के कथानक की साहित्यिक-सामाजिक पक्ष पर एक समीक्षा देते हैं, क्योंकि सिनेमा साहित्य से ही बनता है। हमने सिनेमा के साहित्य की समीक्षा के नाम से चुनिंदा फिल्मों की कुछ अलग किस्म की समीक्षाओं की सीरीज़ शुरु की है, जो उनके कथानक और उनमें अंतर्निहित साहित्य को लेकर लिखी गई हैं। लेखक-समीक्षक अजय चंद्रवंशी बतौर शिक्षा अधिकारी कवर्धा, छत्तीसगढ़ में कार्यरत हैं।
बहुधा जीवन एक रेखीय नही होता। इसमे कई उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। दृढ़ व्यक्तित्व में भी परिस्थितिवश विचलन आ जाया करता है। सफलता मनुष्य के अस्मिताबोध को और तीव्र कर देती है, और कभी-कभी यह अहंकार का रूप भी ले लेती है, जिसके लिए अक्सर बाद में पछताना भी पड़ता है।
फ़िल्म ‘गाइड‘ में राजू (देवानंद)और रोज़ी (वहीदा रहमान) की सफलता को इस संदर्भ में देखी जा सकती है। रोज़ी जिस तरह मार्को (किशोर साहू)के यहाँ घुट रही थी और आत्महत्या के कगार पर पहुंच गई थी, उसे उस कैद से मुक्ति दिलाने और अपनी पहचान बनाने में राजू का ही सर्वाधिक योगदान है। पूरी तरह भी कहा जा सकता है। इसके लिए राजू अपने पेशे, घर-परिवार, समाज सब से पृथक हो जाता है, मगर रोज़ी का साथ नही छोड़ता। अंततः रोज़ी सफल होती है। वह बड़ी नृत्यांगना बन जाती है। इस दौरान दोनों एक-दूसरे से प्रेम करने लगते हैं, और विवाह करने की सोचते हैं।
रोज़ी की सफलता में राजू का ख़ुश होना स्वभाविक था। उसने रोज़ी में जो संभावना देखी, वह सार्थक हुई। रोज़ी को भी अपनी महत्ता का अहसास हुआ। मगर सफलता कभी-कभी आदमी में विचलन भी ला देती है। राजू पैसे पानी की तरह बहाने लगता है। नशा, जुआ में डूबकर घर में मज़मा लगाए रहता है। रोज़ी पैसे देने में मना नहीं करती मगर राजू का इस तरह का व्यवहार उसे खटकने लगता है। इधर रोज़ी की महत्ता के कारण लोग बिना राजू की मध्यस्थता के उससे मिलने लगते हैं, इससे राजू असहज होता है। रोज़ी भी कई बार राजू की उपस्थिति को सामान्य ढंग से लेती है।
हालात बदलने लगते हैं। दोनो में नोक झोंक होने लगती है। राजू तो यहां तक कह देता है यदि मैं न होता तो तुम इस जगह न होती। रोज़ी भी अब उसके प्रति पहले सा समर्पण नही दिखाती। इसी बीच मार्को का रोज़ी के नाम पुस्तक पार्सल आता है। यह पुस्तक उसी गुफा से सम्बंधित है जिसकी खोज में वह और रोज़ी राजू गाइड की सम्पर्क में आए थे। राजू मार्को को रोज़ी से न मिलने देता है न ही रोज़ी को पुस्तक दिखाता है। आगे मार्को राजू से कहता है कि लॉकर में रोज़ी के कुछ गहने हैं जिसको निकालने के लिए उसके हस्ताक्षर की आवश्यकता है। राजू इसे रोज़ी को न दिखाकर उसका जाली हस्ताक्षर कर देता है। वह यह कार्य वह इस आशंका से करता है कि कहीं रोज़ी और मार्को में सहज सम्बन्ध न स्थापित हो जाय। ज़ाहिर है यह प्रेमजनित ईर्ष्या है।
मगर यह कार्य आगे उसके लिए आघात देने वाला साबित होता है। राजू और रोज़ी का द्वंद्व बढ़ते जाता है। रोज़ी जैसे-जैसे ‘सचेत’ होती जाती है, उसका ध्यान राजू की तरफ कम होता जाता है, जिससे वह एक तरह की हीनता महसूस करता है। उसका आत्मसम्मान यह गवारा नही करता और वह अपने घर अपने पुराने काम के लिए लौट आता है। इधर मार्को को अवसर मिलता है और वह जाली हस्ताक्षर के आरोप में राजू को गिरफ़्तार करवा देता है। रोज़ी के पास एक अवसर था यदि वह झूठ बोल देती कि हस्ताक्षर उसी का है तो वह बच सकता था। मगर वह ऐसा नहीं करती और राजू को दो साल की सजा हो जाती है।
राजू के जेल जाने के बाद कहानी में नाटकीयता आती है। अपने अच्छे आचरण के कारण वह छः माह पहले रिहा हो जाता है। मगर बदनामी से बचने वह घर नहीं जाने का निर्णय लेता है और दूसरी राह निकल पड़ता है। बिना मंज़िल के चलते वह साधुओं के एक दल के साथ हो लेता है, जो गांव के एक पुराने मंदिर में रुकता है। सुबह जब वह जागता है तो साधुओं का दल वहां नहीं रहता और एक साधु उसके ऊपर पीली धोती ओढ़ा दिया रहता है, जिसके कारण गांव वाले उसे भी साधु समझने लगते हैं। परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि गांव वाले उसे सिद्ध महात्मा समझने लगते हैं, और उसके लिए भोजन आदि की व्यवस्था करने लगते हैं। राजू शुरू में असहज महसूस करता है, मगर एकाकी जीवन के कारण वह इसे स्वीकारने भी लगता है। वह अपने सहज ज्ञान से लोगों को अच्छी बातें बताते रहता है। इन्ही बातों में एक दिन वह एक साधु की कहानी सुनाता है जिसने गांव में पानी न गिरने पर बारह दिन का उपवास किया था और जिसके कारण बारिश हुई थी।
विडम्बना कि यह कहानी उसके जीवन मे घटित होनी थी! गांव में बारिश न होने से दुर्भिक्ष की स्थिति आ जाती है। लोग भूख से मरने लगते हैं। चोरी, लूट-पाट, हत्या होने लगती है। लोग आशा भरी निग़ाह से राजू की तरफ़ देखने लगते हैं। उस पर उपवास रखने का नैतिक दबाव बन जाता है। वह यह नहीं चाहता। वह बताना चाहता है कि वह कोई सन्त नही एक साधारण आदमी है, मगर परिस्थितियाँ उसके नियंत्रण से बाहर हो चुकी हैं। मगर इस दौरान उसके अंदर इंसानियत भी उभर कर आती है, वह लोगों की भुखमरी से मुक्ति चाहता है, किसी भी तरह, चाहे उसकी जान क्यों न चली जाय। ज्यों-ज्यों अपवास के दिन आगे बढ़ते जाते हैं उसकी चेतना और निर्मल होती जाती है। उसके अंदर मानवीय और ‘दैवीय’ चरित्र का द्वंद्व बढ़ता जाता है, मगर अंत मे ‘दैवीय’ पक्ष की विजय होती है। उसका चित्त ‘निर्मल’ हो जाता है। यहां कथाकार ने अद्वैतवादी चिंतन का सहारा लिया है। यानी शरीर मरता है, आत्मा अमर होती है। राजू का शरीर कमजोर होता जाता है और जिस दिन उसकी मृत्यु होती है उसी दिन तेज बारिश होती है।
मृत्यु पूर्व उसकी माँ, रोज़ी, दोस्त सब उसके करीब आ चुके होते हैं। इस तरह इस दुखांत में लोक कल्याण की भावना जुड़ जाती है। फ़िल्म में चरित्र मुख्यतः तीन ही हैं मार्को, रोज़ी और राजू। मार्को एक पुरातत्वविद है, सम्पन्न है, प्रतिभावान है, अपने काम के प्रति उसमे जुनून है मगर उसमे मानवीयता नहीं है। उसने रोज़ी से विवाह किया मगर महज एक अहसान भाव से, उसकी खुशियों, इच्छाओं यानी उसकी जिंदगी की उसे कोई परवाह नहीं। वह सामंती पितृसत्ता के मूल्य से ग्रसित है जहां स्त्री की कोई निजी पहचान नहीं होती। मगर वही मार्को रोज़ी के प्रसिद्ध होने पर उससे जुड़ना चाहता है तो इसका कारण केवल उसका स्टेटस है।
रोज़ी एक देवदासी की पुत्री है। शिक्षित है, नृत्यकला में पारंगत है मगर उसकी ‘सामाजिक छवि’ उसके जीवन के लिए अभिशाप है। मार्को से बेमेल विवाह का कारण यही है। बावजूद इसके वह समझौता करती है और ख़ुशी ढूंढने का प्रयास करती है, मगर मार्को उसे कदम-कदम पर आहत करता है। राजू के सम्पर्क में आने से उसे अपनी अस्मिता का बोध होता है और उसके सानिध्य में वह अपनी पहचान बनाती है।
राजू एक गाइड है। महलों, खंडहरों का जानकार। मगर इसके अलावा संवेदनशील इंसान है। मार्को और रोज़ी से उसका सम्पर्क उसके पेशे के कारण ही होता है। इस दौरान वह मार्को के अमानवीय और दोहरे चरित्र को देखता है। रोज़ी के जीवन की विडम्बना उसे असहज करती है। वह बार-बार प्रयास करता है कि दोनों का दाम्पत्य सहज हो जाय, मगर असफल रहता है। इस दौरान वह रोज़ी के करीब आता जाता है, उसे आत्महत्या से बचाता है, उसकी मदद करता है, उसे अपनी पहचान बनाने में सहयोग करता है। स्वाभाविक रूप से इस क्रम में दोनो के बीच प्रेम पैदा हो जाता है।
फ़िल्म आर.के. नारायण के अंग्रेजी उपन्यास ‘ द गाइड‘(1958) पर आधारित है, निर्माता देवानंद और निर्देशक विजय आनंद है। एस डी बर्मन के यादगार संगीत वाली इस फ़िल्म में मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर के कुछ बेहतरीन गीत हैं।