रंग दे बसंती: ‘डीजे’ से ‘लक्ष्मण’ तक के जागने की कहानी

Share this
Ajay Chandravanshi
Ajay Chandravanshi

26 जनवरी के दिन देशभक्ति के माहौल में राकेश ओमप्रकाश मेहरा की रंग दे बसंती की बात ज़रुर की जानी चाहिए… जो इसी दिन साल 2006 में रिलीज़ हुई थी। मुख्यधारा की ये फिल्म ज़बरदस्त लोकप्रिय हुई… इसे दर्शकों-समीक्षकों दोनों ने सराहा और कल्ट फिल्म माना। सिनेमा के साहित्य की समीक्षा में अजय चंद्रवंशी की कलम से आज इसी फिल्म की कहानी की साहित्यिक समीक्षा। इस सीरीज़ में हम किसी फिल्म के कथानक के साहित्यिक-सामाजिक पक्ष पर एक समीक्षा देते हैं, क्योंकि सिनेमा साहित्य से ही बनता है। लेखक-समीक्षक अजय चंद्रवंशी बतौर शिक्षा अधिकारी कवर्धा, छत्तीसगढ़ में कार्यरत हैं।

युवावस्था जीवन का वह पड़ाव है जहां सर्वाधिक ऊर्जा की अनुभूति होती है। प्रेम हो, संघर्ष हो कि शारीरिक श्रम इसी अवस्था में कुछ कर गुजर जाने की चाह सर्वाधिक उमड़ पड़ती है।यह अकारण नहीं कि इसे जीवन की सर्वश्रेष्ठ अवस्था माना जाता है।

मगर युवावस्था में ऊर्जा तो होती है,दिशा नहीं। इस ऊर्जा को सही दिशा देने की आवश्यकता होती है अन्यथा यह सृजन के बदले विध्वंश की ओर उन्मुख हो सकती है।विध्वंश के भी समाज में कम उदाहरण नहीं हैं!सम्भवतः किसी भी दौर की तुलना में आज अधिक है।

दुनिया मे बड़े बदलाव युवाओं ने लाये हैं। इस देश के स्वतंत्रता आंदोलन में भी क्रांतिकारी युवाओं ने संघर्ष और शहादत का जो उदाहरण प्रस्तुत किया है, वह दुर्लभ है।आज भी हम उनके संघर्ष से प्रेरणा लेते हैं और उनके ज़ज़्बे को सलाम करते हैं।

मगर स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वालों ने जो सपने देखे थे, उनका आजादी के बाद, अपने तमाम उपलब्धियों के बावजूद क्षरण होता गया।राजनीति, व्यापार हो कि लोकसेवा हर जगह शुचिता-अशुचिता का भेद मिटता गया। आज सफलता ही एकमात्र मापदंड स्वीकृत सा हो गया है।

इसलिए मुट्ठी भर ‘सफल’ के अलावा बहुसंख्यक जनता इस व्यवस्था से त्रस्त और परेशान है। ज़ाहिर है यह द्वंद्व इतना इकहरा नहीं है। अधिकांशतः इस ‘सफल’ समूह में शामिल होने को प्रयासरत भी रहते हैं, बावजूद इसके बहुसंख्यक जनता इस व्यवस्था से नाख़ुश है और बदलाव चाहती है। मगर पहल कौन करे?

फ़िल्म रंग दे बसंती’ में यह प्रश्न शिद्दत से उभर कर आया है कि पहल कौन करे? व्यवस्था की नाकामी और भ्रष्टाचार का रोना तो सभी रोते हैं मगर उसे दूर करने कोई आगे नही आता। ज़ाहिर है ऐसे में सबकी नज़रे युवाओं पर ही अधिक टिकी रहती हैं। फ़िल्म के युवा यूनिवर्सिटी में पढ़ते है और खुले विचारों के हैं।धर्म-जाति-लिंग से परे इनकी दोस्ती सच्ची है। मगर ये अभी जीवन के प्रति लगभग निश्चिंत हैं। इन्हें कैरियर की चिंता नहीं है और हरदम मस्ती में डूबे रहते हैं। इनके ‘आधुनिक’ जीवन शैली के कारण कुछ शुचितावादी संगठन इन्हें ‘भारतीय’ संस्कृति को ‘विकृत’ करने वाले समझते हैं और इनका विरोध भी करते हैं। ऐसा वे ‘देशभक्ति’ के नाम पर करते हैं। कहना न होगा ऐसे ‘देशभक्तों’ की इधर बाढ़ आई है।

फ़िल्म में कहानी को क्रांतिकारी आंदोलन की पृष्ठभूमि से जोड़कर एक नया रंग दिया गया है। एक ब्रिटिश छात्रा ‘सू’ के दादा को भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, बिस्मिल के दौर का जेल अधिकारी बताया गया है। ‘सु’ के पास उसकी एक डायरी है जिसमे उसने इन क्रांतिकारियों की साहस, देशभक्ति, जिंदादिली और निर्भीकता तथा अपने द्वंद्व का चित्रण किया है। ‘सू’ इस डायरी को पढ़कर इन चरित्रों से अत्यधिक प्रभावित होती है और इन पर फ़िल्म बनाना चाहती है। मगर अपने देश में सहयोग न मिलने पर उसका जुनून उसे भारत ले आता है।

‘सू अपने जुनून में काम पूरा करने के लिए भारत आती है जहां दिल्ली विश्वविद्यालय में उसकी फ्रेंड सोनिया अध्यनरत है। उसके माध्यम से वह फ़िल्म के लिए उपयुक्त कलाकारों की तलाश करती है, मगर काम नहीं बनता। अंततः प्रिया उसे अपने चार मित्रों डीजे, करण, असलम, सुखी से मिलाती है। ‘सू’ को ये अपने किरदारों के लिए उपयुक्त जान पड़ते हैं। मगर ये लोग तो दुनिया, राजनीति, देश से लगभग अछूते अपनी दुनिया में मगन हैं इसलिये इसे बहुत हल्के में लेते हैं। मगर नाटकीय घटनाक्रमों में ‘सु’  इनके अंदर अहसास जगाने में सफल होती है और ये काम को गंभीरता में लेने लगते हैं।

फ़िल्म का एक और चरित्र लक्ष्मण पांडे एक सांस्कृतिक शुद्धतावादी संगठन का सदस्य है और इस ग्रुप को उनके लाइफ स्टाइल के कारण पसंद नहीं करता। मगर नाटकीय घटनाक्रम में ‘सू’को वह फ़िल्म के एक चरित्र के लिए उपयुक्त लगती है और अंततः वह भी इस ग्रुप में शामिल हो जाता है। लक्ष्मण वास्तविक देशभक्त है इसलिए वह संगठन में था तब भी किसी लाभ के कारण नहीं था, मगर जब वह अपने ‘पुरोधाओं’ के भ्रष्ट आचरण को देखता है तब उसका मोहभंग होता है।

डीजे और उसके साथी फ़िल्म में अभिनय गम्भीरता से करने लगते हैं और क्रांतिकारियों के चरित्र से प्रभावित भी होने लगते हैं। उन्हें कुछ-कुछ लगने लगता है कि सबकुछ ठीक नहीं हो रहा है। फिर भी वे मानकर चलते रहते हैं कि इस देश का कारोबार ऐसा ही चलता रहेगा, कुछ नहीं हो सकता।

मगर इसी बीच कहानी में नाटकीय मोड़ आता है। सोनिया का प्रेमी अजय जो इस ग्रुप का भी मित्र है और फाइटर विमान का पायलट है; उसकी मृत्यु विमान के क्रैश हो जाने से हो जाती है। अजय कुशल पायलट था और क्रैश होने से पहले विमान को किसी तरह शहर में गिरने से बचा लेता है मगर इस उपक्रम में ख़ुद उसकी जान चली जाती है। अजय की माँ स्वाभिमानी महिला है, उसके पति भी सेना में थे और शहीद हुए थे।

इधर मीडिया में यह बात तेजी से फैलती है कि एक खास किस्म के विमान लगातार क्रैश हो रहे हैं और इसका कारण उपयुक्त गुणवत्ता के कलपुर्जे का न खरीदना है; जिसका कारण भ्रष्टाचार है। मगर सरकार और रक्षामंत्री सारा दोष पायलट की ‘लापरवाही’  पर डालकर अपना दामन बचा लेते हैं। सोनिया और उसके मित्र इससे हतभ्रत हो जाते हैं और अजय की शहादत को न्याय दिलाने इंडिया गेट पर युवाओं के साथ मिलकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते हैं, मगर शासन द्वारा उन पर बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज किया जाता है। चोट से अजय की माँ कोमा में चली जाती है।

यह बर्ताव इन युवाओं को झकझोर देती है और वे जनता की सोयी चेतना को जगाने के लिए ‘खतरनाक’ रास्ता चुनते हैं और रक्षामंत्री की हत्या कर देते हैं। ऐसा नही की यह भावुकता भरा कदम था, उनके पास इसे अंतिम पड़ाव तक ले जानी की पूरी योजना थी। जिस तरह भगत सिंह ने ‘बहरों को सुनाने के लिए’ खाली जगह पर बम का धमाका किया था उसी तरह के ‘आल इंडिया रेडियो’  पर बलात कब्जा कर जनता को सम्बोधित कर अपना पक्ष रखते हैं, और बतातें हैं कि ऐसा उन्होंने ने किन कारणों से किया। यहां तक कि करण यहां आने से पहले भ्रष्टाचार में लिप्त अपने पिता की भी हत्या कर देता है। इससे स्पष्ट है कि ये युवा कुछ कर गुजरने को तैयार थे और इन्हें अपने अंजाम का एहसास था।

रेडियो सन्देश में भी करण हालात को बदलने के लिए एक-एक व्यक्ति को आगे आने की बात कहता है और अपना और मित्रों का पक्ष रखता है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण इसके द्वारा अपने पिता की हत्या है।अंततः सेना के ऑपरेशन द्वारा इन्हें ‘आतंकवादी’ मानकर मार दिया जाता है, बिना समर्पण का मौका दिए। बच जाते हैं केवल सोनिया और ‘सू’ जिनकी यादों में ये जिंदा रहते हैं।

इस तरह यह फ़िल्म देशभक्ति के परंपरागत फिल्मों से हटकर दूसरा रास्ता अख़्तियार करती है, जहां गर्जन-तर्जन से अलग सम्वेदना और जनता के जागरूकता पर बल है। दूसरी बात इसमे आधुनिक ढंग से जीवन जीने वाले युवाओं पर अविश्वास की प्रवत्ति से बचने का सन्देश भी समझा जा सकता है। जरूरत उनकी सम्वेदना और वैचारिकता को रचनात्मक मोड़ देने की है। फ़िल्म में क्रांतिकारियों की कहानी समानांतर चलती रहती है और युवाओं को उनसे जोड़ा जाता है। एक तरह से पात्र का अभिनय करते-करते वे उसे जीने लगते हैं।

‘सू’ के माध्यम से एक बात और बताई गई है कि कई बार हम स्वयं अपने क्रांतिकारी विरासत का महत्व नहीं समझ पाते और यथास्थितिवाद के शिकार हो जाते हैं।यह फ़िल्म यह भी बताती है कि रास्ते कभी खत्म नही होतें और बदलाव की शुरुआत कहीं से भी हो सकती है।